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शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए विटामिन का बड़ा योगदान माना गया है. लेकिन क्या उसके लिए हर व्यक्ति को विटामिन की गोलियां खाना ज़रूरी है.
विटामिन की गोलियां कब और कैसे, करोड़ों लोगों की ज़िंदगियों में शामिल हो गईं ? इस सवाल की पड़ताल बड़ी रोचक है.
100 साल पहले विटामिन के बारे में किसी ने सुना तक नहीं था, लेकिन अब दुनिया भर में हर उम्र के लोग फूड-सप्लीमेंट के तौर पर विटामिन की गोलियां खा रहे हैं.
वाइटल-अमीन्स
विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ के लिए काम करने वाली डॉक्टर लीसा रोजर्स के मुताबिक 17वीं शताब्दी में वैज्ञानिकों को पहली बार अहसास हुआ कि प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और वसा के अलावा खाने-पीने में कुछ तो ऐसा है जो अच्छी सेहत के लिए बेहद ज़रूरी है.
वो कहती हैं, "उस दौर में वैज्ञानिकों ने ये नोटिस किया कि जो नाविक लंबी समुद्री यात्राओं पर जाते हैं, उन्हें खाने के लिए ताज़े फल-सब्ज़ियाँ नहीं मिल पाते. इसकी वजह से उनके खान-पान में कमी रह जाती है जिसका असर सेहत पर पड़ता है."
लेकिन वैज्ञानिक 20वीं सदी की शुरुआत में ही वाइटल-अमीन्स को समझ पाए, जिन्हें हम आज वाइटामिन या विटामिन के नाम से जानते हैं.
हमारे शरीर को 13 तरह के विटामिनों की ज़रूरत होती है. ये हैं विटामिन ए,सी,डी,ई और के.
अल्फ़ाबेट के हिसाब से देखें तो विटामिन ए और सी के बीच में है विटामिन बी, जो आठ तरह के होते हैं. इस तरह कुल विटामिन हुए 13.
हर विटामिन दूसरे से अलग है और हर अच्छी सेहत के लिए सही मात्रा में बेहद ज़रूरी है.
इनमें से विटामिन डी को हमारा शरीर सूर्य के प्रकाश में बना सकता है, लेकिन बाक़ी विटामिन हमें भोजन से ही मिलते हैं.
डॉक्टर लीसा रोजर्स के मुताबिक, "दुनिया में अभी भी दो अरब से ज्यादा लोग विटामिन या मिनरल्स की कमी से पीड़ित हैं. इनमें से ज़्यादातर, अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया में रहते हैं. बच्चों के मामले में विटामिन की कमी जानलेवा साबित होती है, क्योंकि जब वो बीमार पड़ते हैं या उन्हें किसी तरह का संक्रमण होता है, तो भूख पहले ही कम हो चुकी होती है और यदि वो कुछ खाते भी हैं, तब शरीर पोषक तत्वों को ग्रहण ही नहीं कर पाता."
विज्ञान की इतनी तरक्की के बावजूद विटामिंस के बारे में अभी बहुत कुछ जानना बाकी है. ऊपर से हमारी खान-पान की बिगड़ती आदतों ने मुश्किल और बढ़ा दी है.
डॉक्टर लीसा रोजर्स का मानना है, "ज़्यादातर लोग यही सोचकर विटामिन की गोलियां खाते हैं कि इससे उन्हें फ़ायदा होगा, मानो इन गोलियों से कोई जादू हो जाएगा, लेकिन वो ये भूल जाते हैं कि विटामिन तो शरीर को तभी मिलते हैं जब हम संतुलित खाना नियमित रूप से खाते हैं. सिर्फ़ गोली लेने से बात नहीं बनती. प्रेग्नेंसी या बुढ़ापा जैसी ख़ास स्थितियों में विटामिन की गोलियां लेना अलग बात है."
लेकिन फिर भी ऐसे लाखों लोग हैं जो सिर्फ सप्लीमेंट के तौर पर विटामिन की गोलियां खाते हैं. क्या स्वस्थ लोगों के लिए विटामिन के सप्लीमेंट लेना ज़रूरी है?
साइंस जर्नलिस्ट कैथरीन प्राइस ने विटामिनों के बारे में काफ़ी अध्ययन किया है. उनका मानना है कि 20 शताब्दी की शुरुआत में विटामिन शब्द को ईजाद करने वाले पोलैंड के बायोकेमिस्ट कैशेमेए फंक को मार्केटिंग अवॉर्ड मिलना चाहिए.
वो कहती हैं, "इस दिशा में काम कर रहे अन्य वैज्ञानिकों ने इसे फूड-हॉर्मोन या फूड-एक्सेसरी फैक्टर जैसे नाम दिए. मैं अक्सर ये बात मज़ाक में कह देती हूं कि फूड-एक्सेसरी फैक्टर जैसा नाम वो कमाल नहीं दिखा पाता जो विटामिन ने दिखाया. कोई अपने बच्चे को हर दिन फूड-एक्सेसरी फैक्टर देना पंसद नहीं करता."
कैथरीन प्राइस का दावा है कि जो लोग उस दौर में पैसा बनाने के बारे में सोच रहे थे, विटामिन के 'नए कॉन्सेप्ट' से उनकी लॉटरी लग गई.
कैथरीन प्राइस का मानना है, "फूड प्रॉडक्ट की मार्केटिंग करने वालों को लगा कि ये तो गज़ब की चीज़ है, क्योंकि ख़ुद वैज्ञानिक कह रहे थे कि खाने में कुछ ऐसी चीज़ें होती हैं जो किसी को दिखाई नहीं देतीं, जिनका अपना कोई स्वाद नहीं होता. ये मात्रा में बहुत कम होते हैं, लेकिन इनकी कमी से होने वाली बीमारियां आपकी जान भी ले सकती हैं."
जिस दौर में विटामिनों की खोज हो रही थी, उसी दौर में फूड-इंडस्ट्री में कई बदलाव आ रहे थे. खाने-पीने की चीजों में जो पोषक तत्व कुदरती तौर पर मौजूद थे, अधिकतर मामलों में फूड-प्रोसेसिंग के दौरान वो सारे पोषक तत्व नष्ट हो रहे थे.
कैथरीन प्राइस कहती हैं, "नैचुरल विटामिन ऑयल्स में मौजूद होते हैं, लेकिन ऑयल की वजह से प्रोसेस्ड फूड ज्यादा दिनों में ख़राब हो जाते हैं. इसलिए नैचुरल ऑयल्स को प्रोसेसिंग के दौरान ख़त्म करना ज़रूरी था. तो इस तरह प्रोसेस्ड फूड से नैचुरल विटामिन ख़त्म हो गए. इसकी भरपाई करने के लिए प्रोसेस्ड फूड में ज़्यादा से ज़्यादा सिंथेटिक विटामिन मिलाए जाने लगे."
लेकिन मार्केटिंग की भाषा में इसे 'ऐडेड-वाइटामिंस' कहा गया और इस तरह 'ऐडेड-वाइटामिंस' का कॉन्सेप्ट चल निकला. इसी कड़ी में 1930 के दशक में अमरीका में विटामिन की गोलियों का जन्म हुआ और इन गोलियों का निशाना थीं महिलाएं.
कैथरीन प्राइस बताती हैं, "उन्होंने अपनी मार्केटिंग का रुख़ महिलाओं की तरफ़ किया. महिलाओं की मैग्ज़ीन में विज्ञापन दिए. यही तरीका आज भी आज़माया जा रहा है कि माँओं को विटामिन के मामले में बहुत अलर्ट रहना चाहिए ताकि उनका परिवार सेहतमंद रहे. इसके लिए बच्चों को 'वाइटामिन-सप्लीमेंट' भी देना चाहिए."
1930 के बाद के दशकों में अमरीका में विटामिन के बूते, फूड इंडस्ट्री जमकर फली-फूली और फूड-सप्लीमेंट्स का ये मार्केट बढ़ते-बढ़ते 40 अरब डॉलर पर पहुंच गया. कैथरीन प्राइस का दावा है मार्केट तो बढ़ता गया, लेकिन विटामिन कहीं पीछे छूट गए.
वो कहती हैं, "इंसानों के लिए 13 विटामिन ज़रूरी है. लेकिन आज 87 हज़ार से ज्यादा फूड-सप्लीमेंट्स बाज़ार में मौजूद हैं. विटामिंस की पूरी इंडस्ट्री खड़ी हो गई और हम उस पर निर्भर भी हो गए. इसमें संदेह नहीं कि विटामिन हमारे लिए बेहद ज़रूरी है. लेकिन फूड-सप्लीमेंट्स की मेगा इंडस्ट्री ने ख़ूब मेहनत करके ये बात हमारे दिमाग़ में बैठा दी है कि अच्छी सेहत और लंबी उम्र का राज़ गोलियों में छिपा है."
विटामिंस फॉर विक्टरी
"विटामिंस फॉर विक्टरी…ऐसा माना जाता है कि जीत के लिए विटामिंस ज़रूरी हैं. जंग जीतने के लिए सेहत का अच्छा होना ज़रूरी था. जीती हुई जंग को सहेजने के लिए ज़रूरी था कि लोगों की सेहत अच्छी हो. कामयाब देश के लिए ज़रूरी था कि उस देश की जनता कुपोषित ना हो."
ये कहना है हमारे तीसरे विशेषज्ञ डॉक्टर सलीम अल-गिलानी का जो ब्रिटेन की केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में 'फूड एंड न्यूट्रीशन' की हिस्ट्री पढ़ाते हैं.
वो बताते हैं कि विटामिन के मामले में सरकारी दख़ल के सबसे रोचक मामले दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान देखने को मिले. साल 1941 में राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूज़वेल्ट की सरकार ने अमरीकी सैनिकों के लिए 'विटमिंस-एलाउएंस' की घोषणा की.
ब्रिटेन की सरकार भी सेहत को लेकर परेशान थी. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन ने ये सुनिश्चित किया कि उसके सैनिकों में विटामिनों की कमी ना होने पाए.
लेकिन डॉक्टर सलीम अल-गिलानी के मुताबिक, "1940 के दशक में ब्रिटेन, विटामिनों को लेकर कुछ ज्यादा ही सजग हो गया. पढ़े-लिखे लोग मार्केटिंग की वजह से विटामिन सप्लीमेंट लेने के लिए प्रेरित हुए. विटामिन की गोलियों को व्हाइट-मैजिक कहा जाने लगा."
विटामिन कम मिले तो सेहत के लिए ख़तरा है, लेकिन ज़्यादा विटामिन लेना उससे भी ज्यादा ख़तरनाक साबित हो सकता है.
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद डॉक्टरों ने नोटिस किया कि ज़रूरत से ज़्यादा विटामिन की वजह से बच्चे गंभीर रूप से बीमार पड़ रहे हैं. सरकार के कान खड़े हुए और उसे अपनी योजना बदलनी पड़ी
फिर 1980 के दशक में ये बात तय हो गई कि भ्रूण के शुरुआती विकास के लिए फोलिक एसिड बहुत ज़रूरी है जो विटामिन बी का ही रूप है.
महिलाओं को प्रेग्नेंट होने से पहले फोलिक एसिड की कमी दूर करने और प्रेग्नेंसी के शुरुआती हफ्तों में फोलिक एसिड की भरपाई करने के लिए कहा जाता है.
इस बारे में डॉक्टर सलीम अल-गिलानी का मानना है, "तर्क ये दिया जाता रहा कि चूंकि ज़्यादातर प्रैग्नेंसी अन-प्लांड होती हैं, इसलिए फोलिक एसिड की भरपाई करने में काफी देर हो जाती है. यही वजह है कि अनाज से बनने वाले फूड-प्रोडक्ट्स को फोलिक एसिड से भरपूर कर दिया गया. दुनिया के लगभग 75 देशों में इसे अनिवार्य बना दिया गया. ब्रिटेन और यूरोपीय यूनियन के देश इस मामले में काफी सुस्त रहे. उन पर काफी दबाव रहा है कि वो भी अपने यहां फूड-प्रोडक्ट्स में फोलिक एसिड की मौजूदगी अनिवार्य बना दें."
डॉक्टर सलीम अल-गिलानी का मानना है कि विटामिन बेचने वाली कंपनियां बढ़ा-चढ़ाकर दावे करती हैं और सरकार उन्हें ठीक से रेग्यूलेट नहीं करती है, जिसकी वजह से ज़्यादातर लोग विटामिनों के मामले में मार्केटिंग के जाल में फंस जाते हैं.
वो कहते हैं, "ख़तरों की आशंका और संभावित फ़ायदों के बारे में सोचकर लोग विटामिन की गोलियां और दूसरे फूड सप्लीमेंट लेने लगते हैं. वो ऐसा तब भी करते हैं जब उन्हें विटामिन के मामले में भ्रमित करने वाली जानकारी मिलती है और कोई उन भ्रमों को दूर नहीं करता."
और यही वजह है कि विटामिनों का कारोबार पूरी दुनिया में जमकर फल-फूल रहा है.
परफ़ेक्शन की चाहत
"मिडिल क्लास लोगों की संख्या पूरी दुनिया में बढ़ी है. मिडिल क्लास के पास 'पर्चेसिंग-पावर' होती है, ख़र्च करने के लिए उनके पास पैसा होता है. उनके पास समय भी होता है जिसमें वो अपनी सेहत के बारे में ठीक से सोच सकते हैं."
ऐसा मानना है मैथ्यू ओस्टर का जो रिसर्च कंपनी यूरो मॉनिटर में काम करते हैं. उनका काम है हेल्थ के मामले में दुनिया भर के कंज़्यूमर-डेटा का विश्लेषण करना.
वो कहते हैं, "हेल्थ प्रोडक्ट की खपत, एशिया में सबसे तेज़ी से बढ़ रही है. चीन भी तेज़ी से चढ़ता बाज़ार है. दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में, ख़ासतौर पर थाइलैंड और वियतनाम में हेल्थ प्रोडक्ट का मार्केट बढ़ा है. एशिया में बीते कुछ वर्षों में ये मार्केट बेहद कमर्शियल हो गया है."
मैथ्यू ओस्टर का मानना है कि इंडस्ट्री में ग्लोबल ग्रोथ की एक वजह ये भी है कि अब नौजवान विटामिनों की खूब गोलियां खा रहे हैं.
वो कहते हैं," हाल के वर्षों में हमने देखा है कि कम उम्र में ही लोग विटामिनों की गोलियां खाना शुरू कर देते हैं जबकि उनसे पहले की पीढ़ी ऐसा नहीं करती थी. अब हर कोई "सेक्सी और कूल" दिखना चाहता है. सेलेब्रिटीज़ भी अपने लुक्स से, अपनी फिटनेस से इसे बढ़ावा देते हैं."
लेकिन क्या ये ट्रेंड इसी तरह जारी रहेगा या इस बात की संभावना है कि लोगों का ध्यान गोली के बजाय अपनी थाली पर जाएगा ? वैसे ये सवाल और इसका जवाब बाज़ार के विपरीत है.
मैथ्यू ओस्टर का मानना है, "मुझे लगता है कि इस इंडस्ट्री की रफ्तार कुछ धीमी पड़ सकती है. कंज़्यूमर्स का एक बड़ा ग्रुप ऐसा है जो दिन में एक भी गोली नहीं खा रहा है. कंज़्यूमर को अपने आप से ये कहना होगा कि मुझे अपनी थाली से ही पूरा पोषण चाहिए. मार्केट तो आपकी आदतों को भुनाता है. यदि हम संतुलित भोजन करें और तनाव को कम से कम कर सकें, तो कुछ ख़ास मामलों को छोड़कर कभी किसी को किसी सप्लीमेंट की ज़रूरत नहीं होगी."
इसमें संदेह नहीं कि कुछ लोगों की सेहत की स्थिति ऐसी होती है जिनमें मरीज़ के पास फूड-सप्लीमेंट लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. लेकिन सवाल तो यही है कि अच्छा-ख़ासा भला-चंगा, चलता-फिरता व्यक्ति आख़िर क्यों सप्लीमेंट लेता है.
क्या वाकई उसे इसकी ज़रूरत होती है, या ये सिर्फ़ और सिर्फ़ खान-पान में लापरवाही की वजह से है.
अब कुछ सवाल अपने आप से पूछकर देखिए और उनका जबाव ईमानदारी से दीजिए, क्योंकि सेहत है आपकी और उस पर ख़र्च होने वाला पैसा भी आपका ही है.