आपकी थाली में रखी हुई मछली के पेट में जहरीले माइक्रोप्लास्टिक हो सकते हैं. ये इतने माइक्रोप्लास्टिक राई के दाने से एक चौथाई छोटे होते हैं. देश की सात मशहूर खाने वाली मछलियों की वैराइटी में जहरीले माइक्रोप्लास्टिक मिले हैं. ये खुलासा किया है नेशनल सेंटर फॉर कोस्टल रिसर्च ने. चेन्नई के मरीना बीच के किनारे मिलने वाली मछलियों में से 80 फीसदी मछलियों में माइक्रोप्लास्टिक मिले हैं. आइए जानते हैं कि कौन-कौन सी मछलियों के पेट में माइक्रोप्लास्टिक मौजूद हैं. इनसे क्या नुकसान होगा. ये कितना खतरनाक है.
नेशनल सेंटर फॉर कोस्टल रिसर्च (National Centre for Coastal Research - NCCR) की स्टडी में खुलासा हुआ है कि इंडियन मैकेरेल (Indian Mackerel), ग्रेटर लिजार्डफिश (Greater Lizardfish), हंपहेड स्नैपर (Humphead Snapper), बाराकुडा (Barracuda), डे स्नैपर (Day Snapper), स्पेडनोस शार्क (Spadenose Shark) और गोल्डेन स्नैपर (Golden Snapper) में माइक्रोप्लास्टिक मिले हैं.
इन मछलियों के गिल्स और गट्स में 1.93 मिलीमीटर से 2.03 मिलीमीटर आकार के माइक्रोप्लास्टिक (Microplastics) मिले हैं. माइक्रोप्लास्टिक्स धागे, टुकड़े, फिल्म्स और जाल की तरह मछलियों के शरीर में मिले हैं. इन मछलियों की वैराइटी काफी ज्यादा मात्रा में चेन्नई के मरीना बीच स्थित पट्टिनापक्कम फिश मार्केट में मिलती हैं.
इंडियन मैकेरेल (Indian Mackerel) को भारत में बांगडो, बांगडी, बांगडा, काजोल गौरी जैसे नाम से जाना जाता है. ग्रेटर लिजार्डफिश (Greater Lizardfish) को चोर बुमला, चोर बॉम्बिल, आरन्ना आदि नामों से जाना जाता है. बाराकुडा (Barracuda) को भारत में स्थानीय भाषाओं में तिर्थाकड्डायन और फारूथोली कहते हैं. डे स्नैपर (Day Snapper) को रटडो, चेम्बाली, मुरुमीन, पहाड़ी, बांदा आदि नामों से जाना जाता है.
NCCR के साइंटिस्टस प्रवकार मिश्रा ने एक अंग्रेजी अखबार को बताया कि मछलियां लाल रंग की वस्तुओं को खाने की सामग्री समझती है. इसलिए वो माइक्रोप्लास्टिक निगल लेती हैं. बंगाल की खाड़ी, पुलिकट झील, ओडिशा के तट और मरीना बीच के पास समुद्र में मौजूद मछलियों के शरीर में माइक्रोप्लास्टिक मिले हैं.
प्रवकार मिश्रा ने कहा कि बड़ी मछलियों को खाने से पहले माइक्रोप्लास्टिक निकाले जा सकते हैं, लेकिन छोटी मछलियों में यह संभव नहीं है. इन प्लास्टिक से निकलने वाले जहरीले पदार्थों से इंसानों को नुकसान हो सकता है. अगर ज्यादा जमावड़ा हो तो ये कैंसर, अल्सर, अंगों को निष्क्रिय करने का काम कर सकते हैं. इंसान के आहार नाल को बंद कर सकते हैं. दिमाग पर असर पड़ सकता है. एंडोक्राइन हॉर्मोंस का संतुलन बिगड़ सकता है. इतना ही नहीं थॉयरॉयड्स असंतुलिस हो सकते हैं.
इसके पहले भी कई शहरों में मसेल्स, स्क्विड्स, झींगा और केकड़ों में भी माइक्रोप्लास्टिक्स मिले हैं. मछलियों के शरीर में ये माइक्रोप्लास्टिक यानी प्लास्टिक के अत्यधिक छोटे टुकड़े पॉलीथीन बैग्स, क्रीम्स, टूथपेस्ट के कंटेनर, फेश वॉश के डिब्बों से नदियों के जरिए समुद्र तक जाते हैं.
आखिरकार माइक्रोप्लास्टिक (Microplastic) कहते किसे हैं? माइक्रोप्लास्टिक प्लास्टिक उत्पादों के 5 मिलीमीटर या उससे कम आकार के सूक्ष्म टुकड़े होते हैं. जब बड़े-बड़े प्लास्टिक के टुकड़े टूटते हैं तब ये माइक्रोप्लास्टिक बनते हैं. माइक्रोप्लास्टिक्स का उपयोग टूथपेस्ट, कॉस्मैटिक प्रोडक्ट्स में किया जाता है.
कई बार ये माइक्रोप्लास्टिक्स समुद्र की सतह पर तैरते हैं तो कई बार ये पानी के अंदर जाकर तलहटी में जम जाते हैं. ये मछलियों के सिर्फ गिल्स और गट्स में नहीं मिलते, बल्कि स्टडीज में ये बात सामने आई है कि ये मांसपेशियों में प्रवेश कर जाते हैं. जिन्हें साफ करना मुश्किल होता है. इसलिए ये इंसानों के शरीर में जा सकती हैं.
NCCR के वैज्ञानिकों ने चेन्नई के मछली बाजार में जब सैंपल कलेक्ट किया तो उन्होंने 21 अलग-अलग प्रजातियों की मछलियों की जांच की. हैरानी की बात ये है कि जिन सात प्रजातियों में माइक्रोप्लास्टिक ज्यादा मिले हैं, उनमें से कई उत्तर भारत के गुजरात, बंगाल समेत कई राज्यों में खाया जाता है.