स्किट्ज़फ्रेनिया, जिसे लोग सीज़ोफ्रीनिया भी कहते हैं, अपनी खोज के सौ बरस बाद ग्लोबल डिसेबिलिटी के दस बड़े कारणों में से एक बन चुका है. इसका शाब्दिक अर्थ है-मन का टूटना. क्या कभी सोचा है कि कैसी होती होगी किसी स्किट्ज़फ्रेनिक के मन की दुनिया? कैसा महसूस करता है एक स्किट्ज़फ्रेनिक? फ़ेमिना आपको इसके ख़तरों और इससे बचने के तरीक़ों से रूबरू करा रही है.
हम सबके भीतर अपनी एक दुनिया होती है. अपना एक ऐसा निजी संसार जिसमें औरों की पहुंच नहीं के बराबर होती है. कहने को ऐसी ही एक दुनिया स्किट्ज़फ्रेनिया के मरीज़ के भीतर भी होती है, लेकिन उस दुनिया में दर्द और छटपटाहट की ऐसी अनसुनी कहानियां होती हैं, जिनके बारे में हम सोच भी नहीं सकते. आमतौर पर यह माना जाता है कि स्किट्ज़फ्रेनिया के मरीज़ सच्चाई और वास्तविकता से कटे हुए होते हैं, लेकिन सच यह है कि उनकी सच्चाइयां हमारी सच्चाइयों से अलग होती हैं. वे उस स्थिति में होते हैं, जहां न तो वे सामान्य लोगों के सच को समझ सकते हैं और न सामान्य लोग उनके सच को. आप एक पल के लिए उस मरीज़ के भीतर की दुनिया के बारे में सोचकर देखिए जिसके कानों में तरह-तरह की आवाज़ें गूंज रही हैं, वो उन आवाज़ों से भयभीत है, परेशान है, लेकिन उसके आसपास के लोग हैरान हैं, क्योंकि उनको तो कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही है!
क्या है सीजोफ्रेनिया?
डॉ मुमुक्षु दीक्षित, सेवानिवृत्त वरिष्ठ काउंसलर, जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज, कानपुर बताते हैं,“स्किट्ज़फ्रेनिया का मरीज़ अपने ही रचे गए कल्पना-लोक में विचरण करता रहता है और सच व झूठ में फ़र्क़ नहीं कर पाता. सोचने व समझने की क्षमता विकृत हो जाने से विचारों का तालमेल कमज़ोर हो जाता है और बाहरी दुनिया से उसका संपर्क टूट-सा जाता है. वह घंटों अकेला गुमसुम बैठा रहता है. नहाना-धोना बंद कर देता है. भूख व प्यास के प्रति भी अनभिज्ञ रहने लगता है. ख़ुद से बात करना, लगातार शून्य में देखते रहना, बेवजह हंसना या रोना, चेहरे पर हावभाव न आना जैसे असामान्य लक्षण भी दिखाई दे सकते हैं. इस स्थिति में मरीज़ को अनुपस्थित होने पर भी किसी वस्तु या व्यक्ति का दिखलाई पड़ना और ध्वनि या गंध की अनुभूति होना पाया जा सकता है. मिथ्या विश्वास के कारण उसे वहम हो सकता है कि लोग उसे घूर रहे हैं, उसी के बारे में बात कर रहे हैं, उसका मज़ाक उड़ा रहे हैं या फिर उसके विरुद्ध कोई षडयंत्र रच रहे हैं. यह भी कि कोई अदृश्य बाहरी शक्ति उसके विचारों को नियंत्रित कर रही है, एलियंस उससे संपर्क कर रहे हैं. इस समस्या की विकसित अवस्था में मरीज़ विद्रोही और हिंसक हो जाता है और आत्महत्या जैसा घातक क़दम उठाने के लिए प्रोत्साहित हो सकता है. स्किट्ज़फ्रेनिया के क़रीब 10% पीड़ितों में आत्महत्या का ख़तरा रहता है.”
साइकियाट्रिस्ट्स के मुताबिक़ स्किट्ज़फ्रेनिया के लक्षण आमतौर पर 16 से 30 की उम्र के बीच शुरू होते हैं. आमतौर पर 45 वर्ष की आयु के बाद लोगों को स्किट्ज़फ्रेनिया नहीं होता है और बच्चों को भी बहुत रेयर केस में ही यह समस्या होती है. लेकिन किशोरावस्था में इस समस्या की आशंकाएं सबसे ज़्यादा होती हैं और इस पर क़ाबू पाना बेहद कठिन हो सकता है. स्किट्ज़फ्रेनिया महिलाओं-पुरुषों दोनों को समान रूप से प्रभावित करता है, लेकिन महिलाओं की तुलना में पुरुष मतिभ्रम (हलूसिनेशन) और भ्रांति (डिलूज़न) जैसे लक्षण पहले अनुभव करते हैं.
क्या है इसकी वजह?
स्किट्ज़फ्रेनिया के सुनिश्चित कारण अभी भी पता नहीं चल पाए हैं. साइकोलॉजिस्ट्स का कहना है कि इस समस्या के विकास में बहुत-से मनोसामाजिक व अन्य कारण अपनी भूमिका निभाते हैं. जैसे-वायरस का एक्सपोज़र, किन्हीं परिस्थितियों के प्रभाव से केमिकल असंतुलन, जन्म से पहले कुपोषण, जन्म से पहले मस्तिष्क के विकास में गड़बड़ी होना. डॉ दीक्षित के अनुसार,“डब्ल्यूएचओ के अध्ययन इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि विकसित देशों की अपेक्षा विकासशील देशों में स्किट्ज़फ्रेनिया के मरीज़ अधिक हैं. अनुमान है कि भारत की लगभग एक प्रतिशत जनसंख्या इससे ग्रस्त है. प्रति एक हज़ार की जनसंख्या में लगभग 7 लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं. वहीं शहरी आबादी के प्रति एक हज़ार में क़रीब 10 युवा स्किट्ज़फ्रेनिक हैं. हालिया रिसर्च से पता चला है कि इस समस्या की उत्पत्ति मस्तिष्क में पाए जानेवाले डोपामाइन और सेरोटोनिन नामक न्यूरोकेमिकल्स के स्तर में परिवर्तन से हुए असंतुलन की वजह से होती है.”
इस समस्या को प्रत्यक्ष रूप से प्रकट करने में निम्न कारण महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं-
आनुवांशिक: माता-पिता में से किसी एक को यह बीमारी होने की स्थिति में बच्चों को यह समस्या होने की संभावना 15% से 20% और माता-पिता दोनों को यह बीमारी होने पर बच्चों में इस समस्या की उत्पत्ति की संभावना 60% तक हो सकती है. जुड़वा बच्चों में से एक को बीमारी होने पर दूसरे को भी होने की संभावना बढ़ जाती है.
मानसिक आघात या सदमा: जैसे प्रियजन का वियोग, प्रेम संबंध का दुखद अंत, विवाह न होना या तलाक़, बेरोज़गारी या नौकरी का छूटना, परिवार का बिखरना, रंग या नस्लभेद का शिकार होना, क़रीबियों द्वारा नीचा दिखाया जाना आदि.
नशीली दवाओं का सेवन: नशीली दवाओं जैसे कोकीन, एलएसडी, भांग आदि का लगातार अत्यधिक उपयोग भी इस समस्या को उभार कर प्रकट करने में सहायक हो सकता है.
क्या स्किट्ज़फ्रेनिया एक लाइलाज और अंतहीन दर्द है?
नहीं... यह बात सही है कि यह पूरे जीवन रहने वाली समस्या है और इस समस्या का अभी तक कोई तयशुदा इलाज मौजूद नहीं है, लेकिन इलाज की जो प्रक्रिया उपलब्ध है, वह पीड़ित को सामान्य जीवन जीने में मदद करने वाली है. मनोचिकित्सक लक्षणों के आधार पर स्किट्ज़फ्रेनिया के निदान की कोशिश करते हैं. दवा, साइकोलॉजिकल काउंसलिंग, सामाजिक सहयोग आदि के द्वारा वे इस बीमारी के लक्षणों को नियंत्रित करके पीड़ित व्यक्ति के कष्ट को कम करने की, उसे सामान्य जीवन जीने के लिए प्रेरित करने की कोशिश करते हैं. मरीज़ के साथ उसके परिवार के सदस्यों की भी काउंसलिंग की जाती है, ताकि वे दुखी या बेचैन होने के बजाय मरीज़ की सामान्य जीवन की ओर लौटने में मदद कर सकें. स्किट्ज़फ्रेनिया से जूझने वाले अमेरिकी फ़िल्मकार और उपन्यासकार जॉनथन हर्ष की एक बात स्किट्ज़फ्रेनिया के मरीज़ और उसके परिवार के लिए बहुत मायनेखेज हो सकती है. अपनी आत्मकथा में वे लिखते हैं,‘हां, मुझे स्किट्ज़फ्रेनिया है. लेकिन मैं स्किट्ज़फ्रेनिक नहीं हूं. मेरी बीमारी मेरे जीवन का एक हिस्सा है, न कि मेरा जीवन...’
बात बस इतनी सी नहीं है...
डब्ल्यूएचओ से संबद्ध चेन्नई के स्किट्ज़फ्रेनिया रिसर्च फ़ाउंडेशन की डायरेक्टर डॉ तारा रंगास्वामी ने पिछले दिनों अपने एक शोधपत्र में कहा कि स्किट्ज़फ्रेनिया जिस तेज़ी से अपने पांव फैला रहा है उसे देखते हुए वैश्विक स्वास्थ्य को लेकर चिंताएं पैदा होना स्वाभाविक है. विश्व स्वास्थय संगठन ने इसे उन दस बड़ी बीमारियों में शुमार किया है, जो वैश्विक स्तर पर अपना प्रभाव दिखा रही हैं. अब तक इस समस्या से 0.5-1% वैश्विक जनता प्रभावित हो चुकी है यानी लगभग 125 में से एक व्यक्ति स्किट्ज़फ्रेनिया की जद में है. इस समस्या को बहुत व्यापक संदर्भों से जोड़कर देखने वाली डॉ रंगास्वामी का कहना है,“यह समस्या ख़ासतौर पर 15 से 30 वर्ष के लोगों को अपना शिकार बनाती है, इसीलिए इसे युवावस्था को अपाहिज कर देनेवाला सबसे बड़ा कारण कहा जा सकता है. स्किट्ज़फ्रेनिया केवल पीड़ित व्यक्ति की पीड़ा नहीं है, यह उसके पूरे परिवेश की पीड़ा है. उसकी समस्या केवल उसे ही प्रभावित नहीं करती, उसके आसपास के इन्वायरन्मेंट को भी प्रभावित करती है. इन्वायरन्मेंट से मेरा मतलब है- मरीज़ का घर-परिवार. अगर इस समस्या के आर्थिक पहलू पर बात करें, तो ज़ाहिर-सी बात है कि इससे जूझने के लिए राष्ट्रीय संपत्ति का एक अच्छा ख़ासा हिस्सा व्यय करना होगा, दूसरे इसकी वजह से घर और परिवार में जो आर्थिक, मानसिक बिखराव की स्थितियां बन रही हैं, वे भी इनडायरेक्टली देश की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करेंगी ही. अब बात आती है मेडिकल सुविधाओं की. जिस गति से मनोरोग बढ़ रहे हैं, उस गति से चिकित्सा सुविधाएं नहीं बढ़ रही हैं. वर्तमान में स्किट्ज़फ्रेनिया के जितने मरीज़ हैं, उनमें से लगभग 30% इस स्थिति में पहुंच चुके हैं, जहां उनको लाइफ़ टाइम ट्रीटमेंट की ज़रूरत है, लेकिन गंभीर क़िस्म के मनो मरीज़ भी चिकित्सकीय सुविधाओं की कमी में जीने के लिए बाध्य हैं.”