1. अपना सच घर पर छोड़कर, मन साथ ले जाना
हालांकि हमारे संस्कार हमें सच बोलना सिखाते हैं, लेकिन सफ़र में इस संस्कार को निभाना कई बार भारी पड़ सकता है. क्योंकि अकेले सफ़र करते हुए लड़कियां सबसे ज़्यादा जिस कारण से ग़लत लोगों का शिकार बनती हैं, वो सच है. शायद ये बात अजीब लग सकती है, लेकिन वाक़ई यह होता है. पहले ग़लत इरादेवाले व्यक्ति लड़कियों से नाम पूछते हैं और धीरे-धीरे उनके हाउस डिटेल्स, फ़ैमिली डिटेल्स, ऑफ़ि स डिटेल्स, गंतव्य, होटल का नाम, रूम नंबर आदि की जानकारी लेकर फिर उन्हें परेशान करते हैं. इसीलिए अगर कोई व्यक्तिगत जानकारी लेने की कोशिश करे भी, तो तोते की तरह सब कुछ सच-सच बताना बिल्कुल ज़रूरी नहीं है. बजाय इसके उसे यथासंभव टालने की कोशिश करें. या साफ़ कह दें कि मुझे पर्सनल डिटेल शेयर करने में दिलचस्पी नहीं, लेकिन घबराकर नहीं, पूरे आत्मविश्वास के साथ. क्योंकि घबराहटों भरा सफ़र कभी यादगार नहीं होता. यादगार सफ़र वो होता है जिसे पूरी आंख और मन की खिड़कियां खोलकर पूरी शिद्दत से किया और जिया जाता है. आख़िरकार हर सफ़र हमें ऐसे रास्तों से जोड़ता है, जहां जितना जोख़िूम है, उससे कहीं ज़्यादा सुंदरता और सुकून है.
2. अपना डर घर पर छोड़कर, विवेक साथ ले जाना
तुलसीदास ने कहा था,‘निज हित, अनहित पशु पहचाना...’ तो फिर ऐसा क्या है, जो विवेक पर भारी पड़ जाता है और चांद का पता पूछने वाली लड़कियां अगले शहर का बस स्टॉप भी अकेले नहीं देख पातीं. मशहूर पुस्तक द अल्केमिस्ट के लेखक पाओलो कोएलो के मुताबिक़ इसका कारण है डर... ‘हां ये डर ही है, जो सपनों को सच करने से रोकता है.’ लेकिन ऐसे देखें तो ये डर कहां नहीं है? क्या घर की चारदीवारों के भीतर डर नहीं? क्या पड़ोस में डर नहीं, बाज़ार में डर नहीं, स्कूल और दफ़्तरों में डर नहीं? लेकिन डर की वजह से हम जीना तो नहीं छोड़ सकते. अपनी पुस्तक प्रथम और अंतिम मुक्ति में जे कृष्णमूर्ति भी यही कहते हैं कि ‘जैसा कि डर के बारे में सोचा और समझा जाता है वास्तविकता वैसी नहीं है. यह हमें डराता है, क्योंकि हम विवेक का साथ छोड़ देते हैं. और विवेक का साथ छोड़ने का अर्थ है असावधान हो जाना. इसलिए अकेले सफ़र पर जाती अपनी बेटी को डर का नहीं विवेक का पाथेय दें.
3. अपने कयास घर पर छोड़कर, विश्वास साथ ले जाना
अंग्रेजी के एक प्रसिद्ध लेखक ने एक बार कहा था कि ‘अगर आपकी कल्पना का फ़ोकस सही नहीं है, तो आपकी आंखें कभी सच नहीं देख सकतीं.’ अकेले सफ़र करने वाली लड़कियों के लिए ये कथन किसी सूत्र से कम नहीं. क्योंकि सच में जब हमारे मन पर अनर्गल बोझ पड़ा होता है, तो हमारी कल्पनाएं भी अविश्वसनीय ढंग से भयाभय हो उठती हैं और फिर सच भी सच जैसा नज़र नहीं आता. मनोवैज्ञानिकों के अनुसार दहशतभरी ख़बरें इन दिनों इस क़दर हमारे भीतर ठूस-ठूस कर भर गई हैं कि हमारे लिए सामने आनेवाला हर चेहरा दहशतगर्द हो उठा है, लेकिन ख़ुद पर और दूसरों पर विश्वास क़ायम रहे तो नज़ारे बदले भी जा सकते हैं. इसलिए बेहतर है कि जब भी अकेले सफ़र पर निकलें तो उससे कहें कि वो दहशत भरे कयास घर पर ही छोड़ जाए. बचपने की जगह विवेक को आगे रखे. पब्लिक ट्रांसपोर्ट ज़्यादा सुरक्षित ऑप्शन होता है, सो यथा संभव उसका उपयोग करे. घर के लोगों से संपर्क में रहें. अपनी लोकेशन शेयर करती रहें. पैसे बचाने के लिए सुरक्षा से समझौता न करें और ऐसे किसी व्यक्ति से नज़दीकी संवाद न क़ायम करें, जिस पर ज़रा-सा भी शक़ हो.