बात पुरानी है. 1974 में जय प्रकाश नारायण ने तत्कालीन सरकार के खिलाफ बिहार से संपूर्ण क्रांति का बिगुल बजाया था. जेपी आंदोलन के नाम से मशहूर इस आंदोलन के परिणामस्वरूप देश में इमरजेंसी लगी, बाद में इंदिरा गांधी पद्च्युत हुईं और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी. 25 जून 1975 को रामलीला मैदान में हुई ऐतिहासिक रैली में जेपी ने कवि रामधारी सिंह दिनकर की मशहूर कविता की पंक्तियों को दोहराया था 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है'. बाद में ये पंक्तियां जेपी आंदोलन के स्लोगन बन गई थी. कविता की चंद लाइनें:
सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.
ऐसा तो हम नहीं कहते कि किसी कविता की चंद लाईनों के सहारे कोई आंदोलन खड़ा होता है या जीता जाता है, पर यह सच है कि कविताएं ऐसे आंदोलन में उत्प्रेरक काम करती हैं, जोश जगाती हैं. यही कविता की ताकत है.
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी अंग्रेजों को जितना परेशान आंदोलनकारी करते थे उतना ही परेशान कागज पर कलम से उकेरी गई कविताएं भी करती थीं. गद्य के मुकाबले गायी जा सकने वाले काव्य ज्यादा प्रभावी होते हैं, ये सीधे दिल में उतरते हैं. सुभद्रा कुमारी चौहान की लाईनें याद आती हैं –
'चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी,
… खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी.'
तब से लेकर अब तक कविता आंदोलन की धार को तेज करने का हथियार बनी हुई है. कुछ बरस पहले जेएनयू के आंदोलन के समय कवि शैलेन्द्र की एक कविता ने खूब धूम मचाई थी.
'तू जि़ंदा है तो जि़ंदगी की जीत में यकीन कर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर.'
बात सिर्फ आंदोलन या इंकलाब भर की नहीं है. कविता जिंदगी के हर पहलु को एड्रेस करती है. सुख-दु:ख, प्यार, मिलन, बिछोह, फिलॉसफी हर तरह की बात करती है, हर जि़दगी में झांकती है, बड़े-छोटे, ऊंच-नीच, जात-पांत या रंग-वर्ग का विभेद किए बिना.
कविता की व्याकरण में ज्यादा गहरे ना जाते हुए कह सकते हैं कि आम लोगों के नज़रिए से कविता को तीन भाग में बांट सकते हैं. पहला मंचीय कविता, परंपरागत कविता और समकालीन कविता जिसे पहले नई कविता के नाम से बुलाते थे. मंचीय कविता या शायरी कवि सम्मेलन या मुशायरे की रौनक बढ़ाती है. यह कविता का सबसे पापुलर फार्म है. साहित्य से जुड़े कवि मंचीय कविता से नाक मुंह सिकोड़ते हैं. उनका मानना है कि कवि सम्मेलन में सस्ती कविता परोसी जाती है. बहुत हद तक यह सही भी है आम लोगों की वाहवाही लूटने और कवि सम्मेलन को सफल बनाने के लिए कविता को चुटकुले बनाकर पेश किया जाने लगा है. इसके अलावा कवयित्री और संचालक की प्रायोजित नोंक झोंक कभी कभी अश्लीलता की श्रेणी में शामिल हो जाती है. कमोबेश यही हाल मुशायरों का है.
राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की रचना खण्डकाव्य 'पंचवटी' स्कूलों में चाव से पढ़ी जाती है.
'चारूचंद्र की चंचल किरणें खेल रही हैं जल थल में,
स्वच्छ चांदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में.'
विद्रोही और निडर कवि के रूप में जाने जाने वाले कबीर के दोहे सीधी और खरी बात कहने वाले मारक दोहे हैं.
'कबीरा खड़ा बाज़ार में मांगे सबकी खैर, ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर.'
'कारवां गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे' जैसा मशहूर फिल्मी गीत लिखने वाले गोपाल दास नीरज ने गंभीर गज़लें भी लिखीं हैं. 'जितना कम सामान रहेगा, उतना सफर आसान रहेगा' 'जब तक मंदिर और मस्जिद है, मुश्किल में इन्सान रहेगा.'
शिवमंगल सिंह 'सुमन' हिंदी कविता का प्रखर नाम है. उनका नाम आया है तो एक किस्सा सुना देते हैं. यह किस्सा कवि अटल बिहारी वाजपेयी से जुड़ा है. दिलचस्प किस्सा है.
बात उन दिनों की है जब पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज के स्टुडेंट थे. विक्टोरिया कॉलेज को अब महारानी लक्ष्मी बाई कॉलेज के नाम से जाना जाता है. उन दिनों ग्वालियर के कॉलेज आगरा यूनिवर्सिटी के अंतर्गत आया करते थे. विक्टोरिया कॉलेज में उनके एक सहपाठी थे राम कुमार चंचल. दोनों दोस्त थे और ख्यात कवि शिव मंगल सिंह सुमन के शिष्य भी. बता दें सुमन जी इसी कॉलेज में पढ़े और बाद में यहां प्रोफेसर भी बने. बाद में राम कुमार चंचल ग्वालियर के ही दूसरे कॉलेज माधव कॉलेज में पढ़ने लगे. ज्ञात हो कि रामकुमार चंचल अपने जमाने के जाने माने कवि थे.
मेरे एक मित्र फिल्म मेकर और निर्देशक हैं, रवि विलियम्स. रवि दूरदर्शन के लिए शिवमंगल सिंह सुमन पर एक डाक्युमेंट्री बना रहे थे. इस संदर्भ में वे सुमन जी से जुड़े लोगों और उनके शिष्यों से मिल कर उनका साक्षात्कार कर रहे थे. तभी उनकी मुलाकात सुमन जी के शिष्य राम कुमार चंचल से हुई. सुमन जी पर बात करते-करते चंचल जी ने अनायास अपने दोस्त अटलजी से जुड़ा एक बेहद दिलचस्प किस्सा भी सुना दिया. रवि के शब्दों में ये किस्सा.
'एक बार आगरा यूनिवर्सिटी ने इंटर कॉलेज कविता प्रतियोगिता का आयोजन किया. अटल जी और चंचल जी दोनों अपने-अपने कॉलेज का प्रतिनिधित्व करने सुबह ही आगरा पहुंच गए. प्रतियोगियों को यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में रूकवाया गया था. हॉस्टल में उन दिनों एक लाइन से टायलेट बने हुए थे. पहले ऐसे ही खुले-खुले टॉयलेट होते थे. अटल जी और चंचल जी दोनों फ्रेश होने के लिए एक साथ टॉयलेट में पहुंचे और अगल-बगल बैठ गए।
अटल जी ने चंचल से कहा 'पंडित, तुम कौन सी कविता सुना रहे हो, सुना कर बताओ। चंचल जी बोले 'मैं क्यों सुनाऊं, तू सुना.' अटलजी बोले, ठीक है मैं सुनाता हूं. अटल जी ने बुलंद आवाज़ में अपनी कविता चंचल जी को सुनाई. बाद में चंचल जी ने भी उसी तरह बुलंद आवाज़ में अपनी कविता अटल जी को सुनाई. जैसे ही चंचल जी की कविता खत्म हुई बाहर से तालियों की तेज आवाज़ सुनाई दी.
हुआ यूं था कि अटल जी कविता सुनकर बाहर छात्रों की भीड़ इकट्ठा हो गई थी. सब बड़े चाव से दोनों की कविता सुन रहे थे. जैसे ही चंचल जी की कविता खत्म हुई तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा माहौल गूंज उठा. अटल जी और चंचल जी बाहर निकले तो उन्हें 25-30 छात्रों का एक हुजूम जुलूस की शक्ल में हॉस्टल के उनके कमरे तक छोड़ने गया.'
ये अनसुना और अनजाना किस्सा है. रवि इस किस्से के इकलौते गवाह हैं.
मंचीय कविता पर जहां सस्तेपन का आरोप लगाया जाता है वहीं समकालीन कविता पर यह आरोप मढ़ा जाता है कि उसमें पद्य नहीं होता. इस बारे में साहित्य अकादेमी अवार्ड विजेता कवि राजेश जोशी कहते हैं, 'समकालीन वह है जो अपने समय के साथ खड़ा है, रूबरू है.' 'सिर्फ हम ही नहीं पूरी दुनिया समकालीन कविता लिख रही है. अगर छंद पर, तुक पर जोर देंगे तो कंटेंट के साथ न्याय मुश्किल होगा.' राजेश जोशी की एक पुरानी मशहूर कविता की कुछ लाइन्स 'जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे, मारे जाएंगे, कटघरे में खड़े कर दिए जाएंगे, जो विरोध में बोलेंगे, जो सच-सच बोलेंगे मारे जाएंगे.'
उर्दू शायरी की बात करें तो उसमें नज़्म ओर गज़लें दोनों शुमार की जाती हैं. ग़ज़ल का फार्म ज्यादा पापुलर है. जगजीत, गुलाम अली, मेंहदी हसन आदि अनेक सिंगर ने ग़ज़ल को आम आदमी तक पहुंचाया है. बशीर बद्र की ग़ज़लें जगजीत ने खूब गाई हैं.
'हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है, जिस तरफ भी चल पड़ेंगे रास्ते हो जाएंगे.'
निदा फा़ज़ली ने दोहे कहकर उर्दू शायरी को नया रूप दिया है.
'सातों दिन भगवान के, क्या मंगल क्या पीर, जिस दिन सोए देर तक भूखा रहे फ़कीर'
ऐसे बहुत सारे कवि और शायर हैं जिनके कलाम और नाम दोनों ही बहुत कीमती हैं. उनका उल्लेख भी यहां जरूरी था, लेकिन यह संभव नहीं, इसके लिए किताब लिखनी पड़ेगी. बहरहाल. शायरी और कविता की बात ग़ालिब के बिना पूरी नहीं होती. ग़ालिब ऐसे शायर थे जो अपनी खूबियों और खामियों दोनों पर अपनी शायरी में खुलकर बात करते थे. एक शेर से ग़ालिब को समझते हैं. शेर सुनाने से पहले उसका मतलब समझ लेते हैं तो सुनने में ज्यादा मज़ा आएगा. मसाइल-ए-तसव्वुफ यानि सूफीवाद और रहस्यवाद की समस्याएं, वली यानि संत, बादा ख़्वारा यानि शराबखोर. इस शेर में ग़ालिब अपनी तारीफ करते हुए कहते हैं बेशक तुझे सूफीवाद और रहस्यवाद की प्राब्लम्स का गहरा ज्ञान है, कि हम तुझे संत की पदवी दें. लेकिन… अगर तू शराबखोर न होता. अपने बारे में इतना साफ और सीधा सपाट सिर्फ ग़ालिब ही कह सकते हैं. मुलाहिज़ा फरमाईए –
ये मसाईल-ए-तसव्वुफ, ये तेरा बयान 'ग़ालिब'
तुझे हम वली समझते, जो ना बादा ख़्वार होता.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
शकील खान फिल्म और कला समीक्षक
फिल्म और कला समीक्षक तथा स्वतंत्र पत्रकार हैं. लेखक और निर्देशक हैं. एक फीचर फिल्म लिखी है. एक सीरियल सहित अनेक डाक्युमेंट्री और टेलीफिल्म्स लिखी और निर्देशित की हैं.