केंद्रीय बजट में कोरोना से निपटने की सारी तैयारियों के साथ इससे हुए आर्थिक नुकसान से लोगों को उबारने का करें उपाय

वित्त मंत्री निर्मला सीतारामण द्वारा केंद्रीय बजट पेश करने में अब कुछ सप्ताह बचे हैं। इस वक्त अर्थव्यवस्था की दशा कुछ मिलीजुली-सी है।

Update: 2022-01-13 17:45 GMT

वित्त मंत्री निर्मला सीतारामण द्वारा केंद्रीय बजट पेश करने में अब कुछ सप्ताह बचे हैं। इस वक्त अर्थव्यवस्था की दशा कुछ मिलीजुली-सी है। जहां सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में एक उछाल आया है, वहीं निजी उपभोग का हिस्सा पूर्व कोविड-19 महामारी की तुलना में अभी भी तीन प्रतिशत कम है। इसी तरह उपभोक्ता विश्वास सूचकांक में बेहतरी के बावजूद उपभोक्ताओं का भरोसा डांवाडोल है। वर्ष 2020 में आई इस महामारी की पहली लहर की चपेट में ध्वस्त हो गए रोजगार और नतीजतन फैल गई गरीबी और कर्ज से हम पूरी तरह निकल भी नहीं पाए थे कि दूसरी लहर की विभीषिका ने 2021 में अमूमन सब कुछ मटियामेट कर दिया। पहली लहर में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग अधिक प्रभावित हुआ था। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि आम बजट में न केवल महामारी की तीसरी लहर से निपटने की सारी तैयारियों, बल्कि इसकी पहली दो लहरों की आर्थिक मार का जायजा लेकर उसके निदान के सभी संभव उपायों को प्राथमिकता दी जाए।

भारत में कोविड-19 महामारी की दो लहरों के बीच लगभग नौ महीनों (जून 2020 से फरवरी 2021) का अंतराल था। पहली लहर में फरवरी से अप्रैल 2020 के बीच मासिक औसतन प्रति-व्यक्ति पारिवारिक आमदनी में 44 प्रतिशत की गिरावट आई। हालांकि अप्रैल और मई 2020 की सख्त तालाबंदी के बाद जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था वापस पटरी पर आने लगी, वैसे-वैसे आमदनी में भी बढ़ोतरी होती गई। जनवरी 2021 तक औसतन मासिक पारिवारिक आमदनी फरवरी 2020 की तुलना में महज तीन प्रतिशत कम रह गई थी। दुर्भाग्यवश फरवरी 2021 से अर्थव्यवस्था पर दूसरी लहर का असर शुरू हो गया और आमदनी में दोबारा गिरावट होने लगी। दूसरी लहर के समय जनवरी से मई 2021 के बीच भारत में प्रति-व्यक्ति मासिक औसतन आमदनी में दोबारा 19 प्रतिशत की गिरावट आई। फरवरी 2020 की तुलना में मई 2021 में यह आमदनी 22 प्रतिशत कम थी। जहां पहली लहर का असर शहरी इलाकों पर ज्यादा था, वहीं दूसरी लहर ने ग्रामीण क्षेत्रों पर ज्यादा प्रभाव छोड़ा।
भारत के सभी परिवारों की महामारी के पहले और फिर बाद के हालात की हम तुलना करें तो पाते हैं कि पहली लहर के दौरान अमीर घरों की तुलना में गरीब घरों की आय में अधिक गिरावट आई। भारत के सबसे धनी 25 प्रतिशत परिवारों ने सबसे कम असर देखा। फरवरी और अप्रैल 2020 के बीच इन परिवारों की आय में 33 प्रतिशत की गिरावट आई। जबकि बाकी के 75 प्रतिशत परिवारों ने अपनी 46 प्रतिशत आमदनी गंवाई। शहरी क्षेत्रों में पहली लहर के बाद आमदनी में गिरावट का परिमाण अधिक रहा। फरवरी और अप्रैल 2020 के अंतराल में सबसे गरीब शहरी परिवारों की आमदनी में 57 प्रतिशत की कमी आई, जबकि सबसे धनी परिवारों की आमदनी 40 प्रतिशत घटी।
दूसरी लहर के वक्त सबसे गरीब घरों की आमदनी सबसे तेजी के साथ बढ़ती हुई महामारी-पूर्व स्तर तक करीब-करीब आ गई थी। जबकि सबसे धनी परिवारों की स्थिति में सुधार सबसे धीमा रहा था। जहां जनवरी 2021 तक सबसे गरीब 50 प्रतिशत घरों की आमदनी पूर्व-महामारी स्तर से भी कुछ बेहतर हो चली थी, वहीं सबसे अमीर 50 प्रतिशत घरों की कमाई महामारी-पूर्व स्तर के मुकाबले पांच-छह प्रतिशत नीचे ही थी। ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरी इलाकों में पहली लहर के बाद सुधार की गति धीमी रही। आय-श्रेणी के अनुसार पारिवारिक आमदनी में सुधार और लौटती नौकरियों के बीच एक स्पष्ट तालमेल देखा जा सकता है। निम्नतम श्रेणी में सुधार की गति दैनिक मजदूर और निजी व्यवसाय के लोगों में सबसे तेज थी। वहीं दूसरी ओर वेतन आश्रित लोगों की खोई आजीविका में सुधार की दर धीमी रही और यह अपेक्षित भी था। दूसरी लहर का आमदनी पर असर हालांकि पहली लहर के मुकाबले कम रहा, पर फिर भी काफी गंभीर था। हर तबका प्रभावित हुआ, पर सबसे ज्यादा मार इस बार बीच के 50 प्रतिशत घरों पर पड़ी। इस बार सबसे गरीब और सबसे अमीर लगभग बराबर प्रभावित रहे।
यद्यपि आंकड़े ऐसा इशारा करते लग रहे हैं कि हमारी गरीब आबादी की स्थिति पूर्ण रूप से सुधर चुकी है और सब कुछ महामारी-पूर्व जैसा यानी ठीकठाक हो चला है, लेकिन इस पर संतोष जताना दोहरी गलती होगी। पहली कि महामारी के पहले भी सब ठीक नहीं था। दूसरी यह कि हम मानव के मामले मशीनी नहीं होते। मार्च और अप्रैल 2020 के तालाबंदी के महीनों में जब सब ठप था, तब सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों यानी रोज कमाने-खाने वालों ने भारी मात्रा में उधार लिया होगा। पहली लहर के बाद कई सर्वेक्षणों से भी यह लगभग साबित हो चुका है कि महामारी के कारण कर्जदारी में भारी उछाल आया। भले ही इन परिवारों को नौकरी वापस मिल गई हो और इनकी आमदनी भी पहले जितनी हो गई हो, लेकिन अभी भी ये परिवार दीर्घकालीन ऋणग्रस्तता से जूझ रहे हैं। यह इनकी और इनसे ऊपर की आय-श्रेणी वाले वर्गों के बीच एक गुणात्मक फर्क है। जीवनयापन के लिए बेबसी में लिए गए कर्ज की रकम बड़ी नहीं होती, लेकिन यह कर्ज भारी सूद पर मिलता है, जिस वजह से गरीब उबर नहीं पाता। मनरेगा, विस्तृत खाद्य सहायता और शहरी रोजगार के लिए यथेष्ट वित्तीय अनुदान के साथ अगर सरकार इन्हें मामूली या नगण्य ब्याज पर यह छोटी रकम उपलब्ध करा दे तो ये लोग न केवल खुद को, बल्कि अर्थव्यवस्था को आर्थिक संकट से निकालने में अपना पूर्ण योगदान दे पाएंगे।





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