विजय गर्ग : बाबूजी, मूंग के पापड़ और बड़ी ले लो। ' बाहरी दरवाज़े पर आवाज़ हुई तो लॉन में धूप सेंकते हुए अख़बार पढ़ रहे भटनागर जी ने नज़र उठाकर उसे देखा।
एक तेरह चौदह वर्षीय ग़रीब-सा दिखने वाला
बालक था।
भटनागर जी ने उसके पास पहुंचकर कहा, 'लाओ दो पैकेट पापड़ और एक पैकेट बड़ी दे दो।'
यह सुनकर उस बालक ने ख़ुश होते हुए झोले में से निकालकर दे दिया।
'कितने रुपये हुए ?”
'जी, एक सौ सत्तर रुपये।'
भटनागर जी घर में से रुपये लाकर देने लगे तो देखा कि बालक के एक पैर में कुछ असामान्यता थी । वे पूछ लेने से ख़ुद को रोक न सके, 'बेटा, ये तुम्हारे एक पैर में क्या हो गया ?"
'जी, साइकल चलाते समय एक कार से एक्सीडेंट हो गया था। '
'ओह! तो फिर तुम इतनी तकलीफ़ सहकर दर-दर भटकने के बजाय कोई दूसरा काम क्यों नहीं करते, बेटा ? मेरा मतलब है कोई छोटी-मोटी, बैठकर करने वाली नौकरी वग़ैरह। '
'अपंग हूं ना, इसलिए कोई काम नहीं देता ।' थोड़ा रुककर वह फिर बोला, 'बाबूजी, मेरी बस्ती के लोग बोलते हैं कि तू भटकना बंद कर दे और किसी मंदिर के बाहर जाकर बैठ जा, तेरी ख़ूब कमाई होगी।'
'तो तुमने क्या जवाब दिया?' भटनागर जी ने उत्सुकता से पूछा।
'बाबूजी, मैंने उन लोगों से साफ़ कह दिया था कि भीख मांगने से इज़्ज़त नहीं मिलती। और मुझे पैसों के साथ इज़्ज़त भी चाहिए। इसलिए मैं कष्ट सहने से नहीं डरता।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कोर चंद मलोट पंजाब