विजय गर्ग : आज और कल के बीच उलझते इंसान का जीवन बीत रहा है । कल से अभिप्राय अतीत और भविष्य दोनों से है । दरअसल, इंसान ताउम्र अतीत और भविष्य में ही गोते लगाता रहता है । उसे अपने आज यानी वर्तमान की सुध नहीं रहती। अगर कभी वह वर्तमान के बारे में सोचता भी है तो उस पर या तो अतीत हावी होता है या फिर वह भविष्य को लेकर फिक्रमंद होता है । इससे होता यही है कि अतीत को बदला नहीं जा सकता, भविष्य को अपने अनुकूल हर हाल में करना संभव शायद ही हो पाता है, मगर उसके चक्कर में वर्तमान की सहजता जाती रहती है। इस दौर में कहीं भी देख सकते हैं कि जीवन की मान्यताएं या महत्ता बची नहीं दिखती है । हमने अपने आप को खुद से इतना दूर कर दिया है कि स्वयं को पहचान पाना बहुत मुश्किल हो गया है। प्रकृति ने या फिर हम जिसे परम पिता परमात्मा कहते हैं, उसने हमें इस जगत में सबसे सर्वश्रेष्ठ बनाया है, लेकिन हमने उनका क्या मान रखा है ?
कहने को हम एक सभ्य समाज में रहते हैं, लेकिन हम अपने आसपास देखें कि सभ्यता या शिष्टता कहां बची दिखती है। कहीं अहं और क्रोध के भाव में डूबा व्यक्ति दूसरों को खारिज कर रहा होता है या फिर उस पर हावी होने की कोशिश करता है, तो कहीं खुद हाशिये पर चला जाता है। अब यह आम हो चुका है कि छोटी-सी बात को इतना तूल दे दिया जाता है, फिर वह चाहे घर-परिवार में हो या कहीं कोई सार्वजनिक जगह। हालत यह है कि बहुत मामूली बातों पर पहले झड़प शुरू हो जाती है, फिर कई बार वह ऐसी हिंसा में तब्दील हो जाती है, जिसमें किसी की जान तक चली जाती है । ऐसी अनेक खबरें आती रहती हैं । जाहिर है कि न हमारे भीतर सहनशक्ति रही, न ही दया और करुणा के भाव ।
यह सर्वविदित है कि सृष्टि का चक्र चलता रहता है । जो इस दुनिया में आया है, वह आज नहीं तो कल जाएगा भी । इसके बावजूद व्यक्ति के भीतर हावी अहंकार या दंभ की वजह समझना मुश्किल है। एक दूसरे से इतना बैर क्यों है, इसका कारण नहीं समझ में आता । पुराने वक्त में कहा जाता था कि ईश्वर करुणा और प्रेम का अथाह सागर है तो हम उसकी बूंद के बराबर हैं । मगर वर्तमान में हम कहां खड़े हैं ? हम सागर की वह बूंद तो नहीं बन पाए, जिससे एक-एक करके सागर बनता है । हम दरिया जरूर बने, वह भी लोभ, लालच, स्वार्थ, घृणा, ईर्ष्या, क्रोध और द्वेष से भरे हुए ।
सहनशक्ति और मर्यादा जैसे शब्दों को शायद हम अपने जीवन की डायरी से मिटा चुके हैं। फिर हम बड़े अपने छोटों से कैसे उम्मीद करते हैं कि वे तहजीब और मर्यादा में रहें, क्योंकि उन्होंने ये आधुनिक संस्कार हमसे ही पाए हैं। कई बार ऐसा लगने लगा है कि वक्त को हमसे भी जल्दी बीत जाने का तकाजा है। बचपन से कब इंसान जवानी और बुढ़ापे की ओर कदम रख चुका होता है, समझ ही नहीं आता और ढलान जीवन अंतिम पड़ाव पर दस्तक दे रहा होता है ।
हमने अपनी बेमतलब की जरूरतों को इतना बढ़ा लिया है। कि सब कुछ पाने की चाहत और बड़ा बनने की होड़ में इस अमूल्य जीवन को जीना छोड़ चुके हैं। हमारे सामने यह कोई प्रश्न नहीं है कि हम कब तक इस कभी न खत्म होने वाली इच्छाओं की अंधी दौड़ का हिस्सा बने रहेंगे । ऐसा नहीं है कि इंसान समझता नहीं है । वह अपने भीतर कई तरह के अभाव से पीड़ित होता है, वंचित होने के अहसास से परेशान होता है, लेकिन एक आभासी दुनिया में खुद को इस हद तक गुम कर चुका होता है कि वास्तविक सुख उससे छूट जाता है और जब तक इसका भान होता है, तब तक वक्त हाथ से निकल चुका होता है । फिर वही कहावत याद आती है कि 'अब पछताय होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत' ।
सुख की इच्छा रखना किसी भी लिहाज से गलत नहीं है। मगर सुख के लिए सही दिशा में प्रयास ' करना दूसरी बात है । मुश्किल यह है कि ज्यादातर लोग अपना पूरा जीवन सुख की चाह में बिता देते हैं, लेकिन लाख कोशिश के बावजूद उस सुख की प्राप्ति नहीं होती। आम हकीकत यही है कि इस तरह को लोग अपनी इस अधूरी इच्छा के साथ इस दुनिया से विदा हो जाते हैं। धन, संपत्ति और ऐशो-आराम के तमाम साधन जुटाने के बाद भी मन में वह शांति और सुकून नहीं मिल पाता, जिसकी तलाश उसे रहती है। सब कुछ छूट जाने के बाद इंसान खुद को दिलासा देने के लिए और अपने दुख को कम करने के लिए खुद से पूछता है कि ऐसा क्यों है । ऐसा दरअसल इसलिए है कि जो उसका होता नहीं है, उसे ही वह पूरी उम्र इकट्ठा करने में लगा रहता है। धन से न स्वास्थ्य मिलता है, न ही सांसें, फिर भी इसे ज्यादा से ज्यादा जमा करने की होड़ किसलिए जारी रहती है, यह समझना मुश्किल है। खुद से यह पूछने की जरूरत है कि इस अनमोल जीवन को क्यों निरुद्देश्य जिया जाए। सबको जीवन का कोई न कोई उद्देश्य जरूर मिला है । अपने व्यक्तित्व में हमें इसकी पहचान करनी होगी। अगर नहीं पहचान पाते तो इसका नुकसान हमें उठाना होगा। मगर सवाल है कि हम क्यों नहीं अपने जीवन को एक वाजिब उद्देश्य दें, जिससे समाज और दुनिया ढांचे को बेहतर और मजबूत आधार दिया जा सके ।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कोर चंद मलोट पंजाब