सड़क सुरक्षा हमारे एजेंडे में क्यों नहीं : ट्रैफिक नियम पालन में सख्ती और अच्छी सड़कें रोक सकती हैं हादसे
रोड कांग्रेस सालाना डेढ़ लाख मौतों को लेकर गंभीरता से विचार करेंगी और ठोस कदम उठाएंगी।
बीते पंद्रह दिनों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात में हुए भयानक सड़क हादसों में करीब 80 लोगों की जान चली गई। तीन राज्यों की ये चुनिंदा घटनाएं हमारी परिवहन व्यवस्था और दुर्घटनाओं से निपटने की रणनीति पर गंभीर सवाल खड़े करती हैं। लखीमपुर की जिस बस दुर्घटना में 10 लोगों की मौत हुई, उसका आसपास के जिलों में कुल 25 बार चालान कटा था, लेकिन लखीमपुर में उसका एक भी चालान नहीं कटा।
कोई निष्कर्ष निकाल सकता है कि शक्तिशाली लोगों से आपकी करीबी है, तो आपके पास लोगों की जान लेने का लाइसेंस है। कानपुर सड़क हादसे के वायरल वीडियों में दिखता है कि शवों को घसीट-घसीट कर पानी से निकाला जा रहा है। यह हमारे तंत्र और समाज, दोनों की विफलता है। सड़क पर सुरक्षा हमारा राष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडा क्यों नहीं है? सड़कों पर लाखों लोगों की मौत हमें क्यों विचलित नहीं कर रही?
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, वर्ष 2021 में देश भर में 4.03 लाख सड़क दुर्घटनाएं दर्ज हुईं, जिनमें 1.55 लाख से ज्यादा लोगों की मौतें हुईं और 3.71 लाख लोग घायल हुए। देश में हर घंटे करीब 18 और हर दिन 426 लोग सड़क दुर्घटना में जान गंवा रहे हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि आम तौर पर सड़क दुर्घटनाओं में लोग घायल अधिक होते हैं, किंतु उत्तर प्रदेश, मिजोरम, पंजाब और झारखंड में घायलों की तुलना में मौतें अधिक होती हैं।
सरकार का दावा है कि इन हादसों को रोकने के लिए नई सड़कों के निर्माण के साथ ट्रैफिक नियमों के पालन में सख्ती बरती जा रही है, लेकिन ये उपाय नाकाफी साबित हो रहे हैं। वर्ष 2020 में जब पूरी दुनिया में कोरोना महामारी पर चर्चा हो रही थी, उसी दौरान केंद्रीय यातायात मंत्री नितिन गडकरी ने स्वीकार किया कि भारत में सड़क हादसे कोरोना महामारी से भी खतरनाक हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में वाहनों की संख्या दुनिया के कुल वाहनों का सिर्फ तीन फीसदी है, पर दुनिया भर में सड़क हादसों में जितनी मौतें होती हैं, उसका 12.06 फीसदी भारत में है।
दिल्ली पुलिस की 'दिल्ली रोड क्रैश रिपोर्ट- 2021' कहती है कि भारत की राजधानी पैदल और विकलांग यात्रियों के लिए सुरक्षित नहीं है। रिपोर्ट के मुताबिक, अलग-अलग वाहनों की चपेट में आने से सर्वाधिक (41.15 फीसदी) मौतें पैदल चलने वालों की हुई हैं। अन्य देशों से तुलना करें, तो अमेरिका का परिवहन विभाग पैदल यात्रियों का संरक्षक माना जाता है, जो पैदल, विकलांग और साइकिल यात्रियों के लिए अलग से सुरक्षा उपाय करता है।
ब्रिटेन और बाकी यूरोपीय देशों ने भी पैदल, विकलांग और साइकिल यात्रियों की सुरक्षा के लिए बेहतर यातायात नियम बनाए हैं। हमारी गलत प्राथमिकताओं को समझने का एक जरिया तथाकथित एक्सप्रेस-वे जैसे प्रोजेक्ट भी हैं। उत्तर प्रदेश की पिछली चार सरकारों ने हजारों करोड़ रुपये ऐसी परियोजनाओं में लगाए, वह पैसा सड़क सुरक्षा व सार्वजनिक यातायात को सुदृढ़ करने पर लगाया जा सकता था। आज लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे, पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे पर पसरा सन्नाटा और लखनऊ मेट्रो की वीरानी इसका सबूत है।
सड़क दुर्घटनाएं रोकने की व्यवस्थाओं को मजबूत करने के लिए केंद्र सरकार को राज्यों और शहरों में प्रतियोगी भावनाएं पैदा करनी चाहिए। जैसे सफाई के मामले में केंद्र सरकार हर साल महानगरों और शहरों की रैंकिंग करती है, उसी तरह सुरक्षित सड़कों को लेकर राज्यवार रैंकिंग हो और उसी के आधार पर अनुदान दिए जाएं, तो काफी फर्क पड़ सकता है। इसके साथ ही सार्वजनिक यातायात व्यवस्था बेहतर बनाने पर जोर होना चाहिए।
सरकार और नौकरशाही के अलावा इसमें समाज की भी भूमिका है। हम सभी को यातायात नियमों का पालन करना चाहिए और सड़क हादसे में घायल लोगों को तुरंत अस्पताल पहुंचाना चाहिए। भारतीय रोड कांग्रेस (आईआरसी) का 81वां वार्षिक अधिवेशन आज से 11 अक्तूबर तक लखनऊ में हो रहा है। उम्मीद है कि सरकार और रोड कांग्रेस सालाना डेढ़ लाख मौतों को लेकर गंभीरता से विचार करेंगी और ठोस कदम उठाएंगी।
सोर्स: अमर उजाल