निकाय चुनाव में OBC आरक्षण पर क्यों उठ रहे हैं सवाल

संवैधानिक प्रावधानों के तहत देश की लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग के लिए सीटों का आरक्षण

Update: 2021-12-20 15:41 GMT
संवैधानिक प्रावधानों के तहत देश की लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग के लिए सीटों का आरक्षण है. लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए सीटों का आरक्षण नहीं किया गया है. अनेक राज्यों ने अपने शहरी और ग्रामीण निकाय में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रणाली से होने वाले निर्वाचन में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए सीटों का आरक्षण की व्यवस्था की है. सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में महाराष्ट्र के बाद मध्यप्रदेश के निकाय चुनाव में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित सीटों को सामान्य किए जाने के निर्देश दिए हैं. यद्यपि यह निर्देश आरक्षण की सीमा से जुड़े हुए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की अधिकतम सीमा पचास प्रतिशत निर्धारित की है.
ओबीसी आरक्षण का उद्देश्य राजनीतिक नेतृत्व नहीं
देश में अन्य पिछड़ा वर्ग को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिए जाने की व्यवस्था मंडल कमीशन की सिफारिशों के आधार पर की गई है. सिफारिशें प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने लागू की थीं. राज्य की विधानसभा और लोकसभा में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए सीट आरक्षित किए जाने का कोई प्रावधान संविधान में नहीं है. विधानसभा एवं लोकसभा में केवल अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के लिए ही सीटें आरक्षित हैं. लोकसभा में अनुसूचित जाति के लिए 84 और जनजाति के लिए 47 सीटें आरक्षित हैं. जबकि सभी राज्यों की विधानसभा में अनुसूचित जाति के कुल 614 जनजाति के 554 विधायक हैं. यह आरक्षण संविधान के अनुच्छेद 330,332 और 334 के तहत दिया जाता है. संविधान में आरक्षण की सीमा दस वर्ष निर्धारित की गई थी. लेकिन,इसे समाप्त करने का साहस कोई राजनीति दल नहीं कर पाया. 2020 में इसे एक बार फिर और दस साल के लिए बढ़ा दिया गया. पिछड़े वर्ग के लिए संविधान के अनुच्छेद 340 में आयोग गठित किए जाने का प्रावधान है. इस अनुच्छेद में इस वर्ग की दशा सुधारने के लिए प्रावधान करने का अधिकार राज्यों को दिया गया है. यह अधिकार भी शैक्षणिक एवं सेवाओं में आरक्षण तक ही सीमित है. विधानसभा और लोकसभा में प्रतिनिधित्व के लिए नहीं.
पंचायती राज के संविधान संशोधन में भी नहीं ओबीसी आरक्षण
संविधान के 73 वें एवं 74 वें संशोधन के जरिए देश में नगरीय एवं ग्रामीण निकायों को सशक्त बनाने संबंधित है. 73 वा संशोधन पंचायती राज से संबंधित है और 74 वां नगरीय निकाय को सशक्त बनाने के बारे में है. संविधान में यह दोनों संशोधन वर्ष 1992 के हैं. उस वक्त केन्द्र में कांग्रेस नीत पी व्ही नरसिंह राव की सरकार थी. नगरीय एवं ग्रामीण निकायों को निर्वाचन प्रणाली के जरिए सशक्त बनाने के पीछे कहीं न कहीं पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी वह बयान भी रहा होगा जिसमें उन्होंने कहा विकास के लिए सौ रूपए सरकार भेजती है लेकिन,नीचे सिर्फ पंद्रह पैसे ही पहुंचते हैं. पंचायती राज व्यवस्था को सशक्त करने से जुड़ा संविधान संशोधन एलएम सिंघवी समिति की सिफारिशों के आधार पर तैयार किया गया माना जाता है. त्रिस्तरीय पंचायत की परिकल्पना उनकी रिपोर्ट से ही निकली है. इन संविधान संशोधनों के जरिए पंचायत एवं नगरीय निकायों की लोकतांत्रिक प्रणाली को मान्यता दी गई. संविधान के 73वें एवं 74 वें संशोधन के मुख्य प्रावधानों में अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिया जाना नहीं है. परंपरागत तौर पर अनुसूचित जाति और जनजाति को दिए जाने वाले आरक्षण का ही उल्लेख है. वह भी आबादी के हिसाब से. अनुच्छेद 243 के अनुसार प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जातियों अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित रहेंगे. इसे आरक्षित स्थानों की संख्या उसी अनुपात में होगी जो उस पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे गए स्थानों का अनुपात है और उसका निर्धारण उस क्षेत्र की उनकी जनसंख्या के आधार पर किया जाएगा. ऐसे स्थानों को प्रत्येक पंचायतों के चक्र अनुक्रम से आवंटित किया जाएगा. इसी तरह का प्रावधान नगरीय निकायों को लेकर भी किया गया.
राज्यों ने अपने अधिकार क्षेत्र का उपयोग किया
अनुच्छेद 243 के अधीन राज्य विधानमंडल को विधि द्वारा पंचायतों की संरचना के लिए उपबंध करने की शक्ति प्रदान की गई है. राज्यों ने कानून बनाए और राजनीतिक लाभ-हानि के हिसाब से आरक्षण को भी इसमें शामिल कर दिया. मध्यप्रदेश देश का वह पहला राज्य है, जिसने संविधान की भावना के अनुरूप त्रिस्तरीय पंचायती राज की स्थापना की. नगरीय निकायों में संविधान की भावना के अनुरूप लोकतांत्रिक प्रणाली स्थापित की. मध्यप्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था स्थापित करने के लिए 1993 में कानून बनाया गया था. मूल अधिनियम में अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिए जाने का प्रावधान नहीं था. ओबीसी आरक्षण वर्ष 1999 में किया गया. वर्ष 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ तो वहां भी विरासत में मिली व्यवस्था स्थापित हो गई. अन्य पिछड़ा वर्ग को पच्चीस प्रतिशत तक पद आरक्षित किए जाने का प्रावधान कानून में है. राज्य में पिछड़ा वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में चौदह प्रतिशत पद आरक्षित रखे जाने का प्रावधान है. कमलनाथ के नेतृत्व वाली सरकार ने वर्ष 2019 में आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 27 प्रतिशत कर दी. इससे कुल आरक्षण पचास प्रतिशत की सीमा को पार कर गया. फिलहाल मामला हाईकोर्ट के सामने है. यही स्थिति पंचायतों के चुनाव में बन गई है.
महाराष्ट्र ने भी पार की पचास प्रतिशत की सीमा
महाराष्ट्र में किशनराव गवळी द्वारा आरक्षण को चुनौती देने वाली जो याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी,उसमें बताया गया था कि जिला परिषद के कुल 52 पदों में से 27 पद आरक्षित कर दिए गए. आरक्षण पचास प्रतिशत की सीमा से मात्र 1.92 प्रतिशत अधिक हो रहा था. इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की अधिकतम सीमा पचास प्रतिशत निर्धारित की है. सुप्रीम कोर्ट ने पहले महाराष्ट्र में ओबीसी के पदों को सामान्य में परिवर्तित कराया. अब मध्यप्रदेश में इसे लागू किया गया है. राज्य में महिलाओं को भी पचास प्रतिशत आरक्षण दिया गया है. लेकिन,यह होरिजेंटल है. नगरीय निकाय के चुनाव छत्तीसगढ़ में भी चल रहे हैं. लेकिन,वहां आरक्षण को लेकर कोई विवाद अब तक सामने नहीं आया है. इसकी बड़ी वजह यह हो सकती है कि मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा ही न हो. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मध्यप्रदेश में ओबीसी के लिए आरक्षित पदों पर चुनाव प्रक्रिया रोक दी गई है. राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने ट्वीट कर कहा कि आरक्षण के बिना चुनाव हुए तो यह सत्तर प्रतिशत आबादी के साथ अन्याय होगा.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
 
दिनेश गुप्ता
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. सामाजिक, राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखते रहते हैं. देश के तमाम बड़े संस्थानों के साथ आपका जुड़ाव रहा है.
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