श्रीलंका अब किधर?

सम्पादकीय

Update: 2022-07-12 04:50 GMT
By NI Editorial
नई सरकार के सामने सबसे पहली चुनौती देश में परस्पर विरोधी नजरिए की वकालत कर रही ताकतों के बीच न्यूनतम सहमति बनाने की होगी। ऐसा वो नहीं कर पाई, तो श्रीलंका भंवर में फंसा रहेगा।
श्रीलंका में जन विद्रोह का नजारा दिखा। तीन महीनों से भी ज्यादा समय से आंदोलनकारी राष्ट्रपति गोटबया राजपक्षे का इस्तीफा मांग रहे थे। लेकिन वे ना तो गहराते आर्थिक संकट से लोगों को राहत दिलावा पाए और ना ही पद छोड़ने को राजी हुए, तो आंदोलनकारियों ने क्रांतिकारी तरीका अपनाया। बहरहाल, अब जबकि देश की सत्ता एक नई सर्वदलीय सरकार संभालने जा रही है, तो सबसे अहम सवाल यही है कि देश आगे किस रास्ते पर जाएगा? स्पष्टतः श्रीलंका में आंदोलनकारियों के बीच भी इस सवाल पर गहरे मतभेद हैँ। ये बात उनके बयानों से जाहिर हुई है। इस दौरान परस्पर विरोधी बातें कही गई हैं। साफ है कि इससमय देश में मौजूद परस्पर विरोधी दृष्टिकोण मैजूद हैँ। इसलिए अगली सरकार के लिए आर्थिक कार्यक्रम तय करना आसान नहीं होगा। एक राय है कि देश में तुरंत राजनीतिक स्थिरता बहाल कर सख्त राजकोषीय उपाय लागू किए जाने चाहिए। नई सरकार को तुरंत आर्थिक सुधारों को प्राथमिकता देनी चाहिए, जिससे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज मिलने का रास्ता साफ हो सके। यह समाज के अपेक्षाकृत सुविधा-संपन्न तबकों की राय है। जबकि आंदोलनकारियों के एक अन्य समूह ने खुला पत्र जारी कर चेतावनी दी है कि नई सरकार आईएमएफ की शर्तों को मान कर जनता की मुश्किलें ना बढ़ाए।
गौरतलब है कि आईएमएफ ने सरकारी उद्यमों के बड़े पैमाने निजीकरण और जनता पर टैक्स बढ़ा कर राजकोषीय सेहत बहाल करने की शर्त रखी है। आशंका है कि आईएमएफ की शर्तों को मानने का परिणाम बड़े पैमाने पर रोजगार खत्म होने, औसत वेतन में गिरावट, पानी और बिजली के शुल्क में बढ़ोतरी, और जन कल्याण के कार्यों में और कटौती के रूप में सामने आएगा। उससे पहले से ही मुसीबत में पड़े लोगों की मुश्किलें और बढेंगी। तो रास्ता क्या है? सरकार संसाधन कहां से लाएगी? तो वामपंथी रुझान वाले संगठन वकालत कर रहे हैं कि वह बैंकों, बड़ी कंपनियों, चाय बगानों आदि का राष्ट्रीयकरण करे। उत्पादन एवं वितरण के ऊपर सरकारी नियंत्रण कायम किया जाए। अरबपतियों के धन को जब्त कर राजकोषीय सेहत बहाल किया जाए। यानी राजपक्षे परिवार को सत्ता से हटाने के लिए इकट्ठा हुए आंदोलनकारियों के तमाम गुटों में वैचारिक एकता नहीं है। ऐसे में नई सरकार क्या करेगी, ये अहम सवाल है।
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