पाठक जी ने मुझे कार चलाने की दीक्षा सारनाथ के मूलगंधकुटी विहार के सामने की उसी सड़क पर दी जहां ढाई हज़ार साल पहले भगवान बुद्ध ने अपने शुरुआती पांच शिष्यों कौण्डिन्य, अश्वजित, वाष्प, महानाम और अद्रिक को प्रथम धम्मोपदेश दिया था. दुनिया ने इसे धम्मचक्र प्रवर्तन कहा. यहीं से बौद्ध धम्म/परम्परा की शुरुआत हुई. यानि मेरे जीवन में पाठक जी का महत्व बुद्ध से कम नहीं है.
भारतीय वांग्मय में सारथी और ड्राइवरों की बड़ी समृद्ध परम्परा रही है
चार फुट के पाठक जी अपनी बेफ़िक्री की दुनिया में रहते थे. अतिशय विनम्र, मुंह में ही बोलना. हमेशा आत्मगोपन की स्थिति में मग्न, निहायत ईमानदार. ये बात अलग है कि छोटे रास्ते के चक्कर में उन्होंने पूरा जीवन भीड़भाड़ वाले रास्ते में ही फंस कर काट दिया. मेरे जीवन में पाठक जी अकेले ड्राइवर थे जो धोती कुर्ता पहन, कन्धे पर गमछा रख ड्राइवरी करते थे. नाटे क़द के कारण जब एम्बेसडर में ब्रेक लगाते, तो पाठक जी लगभग खड़े हो जाते. डेढ़ दो घंटे चलने के बाद पाठक जी सड़क के किनारे गाड़ी लगा बोनट खोल उसका परीक्षण जरूर करते. ऐसा गाड़ी की ख़राबी की वजह से नहीं बल्कि यह उनकी आदत में शुमार था.
घर में पाठक जी से सबसे ज़्यादा संवाद मेरा ही था. अक्सर कालिदास और विद्योतमा की तरह इशारों और भंगिमाओं से ही ये संवाद होता था. पाठक जी का मेरे ऊपर असर भी था. अक्सर वो मुझे कुछ सूचनाएं देते. मैं उनकी सूचना ध्यान से सुनता. वजह कृष्ण भी तो अर्जुन के अस्थायी ड्राइवर ही थे. हो सकता है पाठक जी भी जीवन के इस रण में हमें गीता जैसा कोई ज्ञान कब दे जाएं. इसी उम्मीद में विलम्बित लय के व्यक्तित्व को झेलता रहा. भारतीय वांग्मय में सारथी और ड्राइवरों की बड़ी समृद्ध परम्परा रही है. प्राचीन काल में जो सारथी थे वही आज ड्राइवर हैं. समय बदला लेकिन सारथी की परिभाषा वहीं है… वह पहले रथ दौड़ाता था….अब गाड़ियां दौड़ा रहा है…. प्रसंग स्पष्ट करने के लिए महाभारत को बीच में ला रहा हूं. महाभारत का युद्ध चल रहा था. एक ओर अर्जुन थे, जिनके सारथी थे 'श्री कृष्ण' तो दूसरी ओर कर्ण थे ,उनके सारथी थे 'शल्य'। शल्य पांडवों के मामा थे, वे माद्री के भाई थे. लड़ रहे थे कौरवों की तरफ़ से पर दिल से पाण्डवों के साथ थे. कृष्ण ने सारथी की भूमिका खुद चुनी थी. वे सिर्फ़ सारथी नही थे अर्जुन उन्हीं के मार्गदर्शन में युद्ध का संचालन करते थे.
महाभारत का युद्ध खत्म हो गया था. कृष्ण अर्जुन से बोले, ''पार्थ! आज तुम रथ से पहले उतर जाओ. तुम उतर जाओगे तब मैं उतरूगॉं " यह सुन अर्जुन को कुछ अटपटा-सा लगा. अर्जुन के रथ से उतरने के बाद कुछ देर मौन रहे, फिर वह रथ से उतरे और अर्जुन के कंधे पर हाथ रखकर उन्हें रथ से दूर ले गए. उस दौरान जो घटा वह कृष्ण के लिए तो आसन्न था, पर अर्जुन के लिए विस्मयकारी, अकल्पनीय एवं आश्चर्यजनक. रथ से आग की लपटें निकलने लगीं और फिर एक भयानक विस्फोट में रथ जल कर खाक हो गया. अंचम्भित अर्जुन ने पूछा ''हे कान्हा! यह रथ अकाल मृत्यु को कैसे प्राप्त हुआ? कृष्ण बोले, ''यह सत्य है कि इस दिव्य रथ की आयु पहले ही समाप्त हो चुकी थी, पर यह रथ मेरे संकल्प से चल रहा था. इसकी आयु की समाप्ति के बाद भी इसकी जरूरत थी, इसलिए यह चला. धर्म की स्थापना में इसका महती योगदान था, इसलिए मैंने संकल्प बल से इसे इतने समय तक खींच लिया.'' यानि सारथी के संकल्प से ही वाहन की उम्र बढ़ती है. मेरे पिता जी कृष्ण के अध्येता थे. उन्होंने ही यह कथा बताई थी. इसलिए मैं भी पाठक ड्राइवर के संकल्प की इज़्ज़त करता था.
सिद्धार्थ के सारथी छन्न की कहानी
राजकुमार सिद्धार्थ पर भी उनके ड्राइवर (सारथी) का बड़ा असर था. सिद्धार्थ को गौतम बुद्ध बनाने वाला उनका ड्राइवर /सारथी छन्न ही था. छन्न राजकुमार गौतम को रोज़ घुमाने ले जाता था. इसी घुमाने में ही एक रोज़ एक बूढ़े, दूसरे रोज़ एक रोगी, तीसरे रोज़ एक शव और चौथे रोज़ एक संन्यासी को देखकर सिद्धार्थ का मन बदला. वे इनके बारे मे सवाल पूछते और ड्राइवर छन्न उन्हें जीवन और जगत के गूढ़ रहस्य समझाता. इस तरह अपने ड्राइवर से प्रबुद्ध होते होते राजकुमार सिद्धार्थ गौतम बुद्ध हो गए. मैं बुद्ध तो नहीं बना, आप मुझे बुद्धू समझ सकते हैं.
पाठक जी से जुड़ी एक बहुत दिलचस्प घटना है. बात नवम्बर 1989 की होगी. तब इन्हीं पाठक जी ने मेरी और डॉ. संजय सिंह (अमेठी) की जान बचाई थी. लोकसभा के आम चुनाव थे. वी पी सिंह भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंधी पर सवार थे. हमें भी भ्रम हो गया था. एक्सप्रेस समूह उनके लिए जी जान से जुटा था. तब हम जनसत्ता के राज्य संवाददाता होते थे. अमेठी से राजीव गांधी के ख़िलाफ़ महात्मा गांधी के प्रपौत्र राजमोहन गांधी जनतादल के उम्मीदवार थे. मामला असली गांधी और नक़ली गांधी का बने इसलिए राजमोहन जी को मैदान में उतारा गया था. भाजपा का उन्हें समर्थन था. राजमोहन गांधी इंडियन एक्सप्रेस चेन्नई के संपादक का पद छोड़ कर आए थे. इसलिए एक्सप्रेस उनके चुनाव में पूरी तरह लगा था. राजमोहन गांधी को कॉफी बीन्स से लेकर जरूरी पत्रं, पुष्पं, फलं तक पहुंचाने का काम लखनऊ से मेरे ज़िम्मे था. उस दौर को देखते हुए यह दायित्व काफी बड़ा था, क्योंकि सुल्तानपुर की सीट पर रामसिंह की देखभाल भी एक्सप्रेस समूह के ही ज़िम्मे थी. इस ' बड़ी' ज़िम्मेदारी के लिए ड्राइवर का भरोसेमंद होना ज़रूरी था.
बूथ लुटेरों ने संजय सिंह पर गोली चलाई
सो दफ़्तर की टैक्सी की जगह मैंने बनारस से पाठक जी को बुलाने का फ़ैसला किया. उनकी गाड़ी यूटीक्यू-478 के साथ. रुकने ठहरने का कुछ ठीक नहीं होता था और पाठक जी भरोसेमंद आदमी थे इसलिए उन्हें बनारस से बुलाया. मतदान से एक रोज़ पहले हम अमेठी पहुंचे. मेरे साथ पत्रकार साथी शीतल सिंह भी थे. आजकल वे शीतल पी सिंह हो गए हैं. हालांकि पीते तो उस वक्त भी थे. पर न जाने क्यों 'पी' लिखना अभी शुरू किया है. तब वे चौथी दुनिया के राज्य संवाददाता थे. दूसरे साथी थे सुल्तानपुर के हमारे सहयोगी राज खन्ना. मतदान के दिन हम सुबह-सुबह ही निकल पड़े. कोई दस बज रहे होंगे. हम बूथ देखने निकले तो जहां जाइए कांग्रेसी बूथ पर क़ब्ज़ा किए थे. राजमोहन जी हताश और निराश. वे बाहरी और अंग्रेज़ीदां आदमी थे. हिन्दी भी ठीक से नहीं समझते थे. वहां अवधी को ज़ोर था. उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था. उनको लड़वाने वाले भाजपा के लोग और संजय सिंह अपने अपने घरों में बैठे थे. मैं गुस्से में संजय सिंह के राजप्रासाद पहुंचा. अपने महल में वे नाश्ता कर रहे थे. बाहर गांधीवादी पिट रहे थे. संजय सिंह और मैंने एक ही गुरु के निर्देशन में पीएचडी की थी. इसलिए अपना नाता दोस्ताना था. हमने कहा, " भाई अमेठी में बूथ लूटे जा रहे हैं और आप घर में बैठे हैं. काहें बात के राजा". उन्होंने पूछा, "कहां लूटे जा रहे हैं." मैंने कहा, "आपके घर के सामने." उनकी कमर में साइटिका का दर्द था. शायद इसीलिए वे सुबह से निकले नहीं थे. हालांकि वे खुद विधानसभा के उम्मीदवार भी थे. उन्होने मुझसे कहा, "आइए देखते हैं" और हम उनकी एम्बेसडर में बैठ गए. मेरी गाड़ी उनके पीछे-पीछे चलने लगी जिसे यही राम उदय पाठक चला रहे थे.
हम अमेठी के एक बूथ पर पहुंचे ही थे कि एक धमाका हुआ और कुछ लोग कई गाड़ियों में भर कर भागे. पता चला कि वे वहां ज़बरन बैलेट पेपर पर ठप्पा लगा रहे थे और हमारे आने की सूचना से भागे. ये टीम बारी-बारी से मतदान केन्द्रों पर जा ज़बरन वोट डालती और आगे बढ़ जाती. वह दौर बैलेट पेपर पर ठप्पा लगाने का था बटन दबाने की नहीं. कब्जा करने वाले का नेतृत्व कोई आशीष शुक्ला नामक कोई व्यक्ति कर रहे हैं ऐसा हमें बताया गया. वे तब उस इलाक़े के बाहुबलि थे. बाद में भाजपा और बसपा से लोकसभा और विधानसभा का चुनाव भी लड़े. जनाब सात आठ गाड़ियों की फ़ौज लेकर चल रहे थे. संजय सिंह ने लोगों से बात की तो पता चला कि ये हरिशंकर तिवारी के आदमी हैं और कैप्टन सतीश शर्मा की देखरेख में यह सब हो रहा है. हम आगे बढ़े ही थे कि मुंशीगंज के आगे एक चौराहे पर दाहिनी ओर से यह क़ाफ़िला फिर आता दिखाई दिया. संजय सिंह ने अपनी गाड़ी रोकी, और वहीं उतर गए. चारों ओर खेत थे और खेत की छाती को चीरती सड़क पर चौराहा था, न कोई आड़, न दुकान. सीधा आमना सामना. सड़क के दोनों ओर नीचे गड्ढे थे.
संजय सिंह एक हाथ में छड़ी और दूसरे में रिवाल्वर लेकर ललकार रहे थे. तब तक सामने राइफ़लों से गोली चलने लगी. इधर रिवाल्वर, उधर राइफ़ल. इधर एक, उधर कई. मैं अवाक् संजय सिंह की गाड़ी की आड़ में बैठ उन्हें वापस बुलाने लगा. उनके गनर ने भी एकाध गोलियां चलाईं. तभी मैंने देखा संजय सिंह को एक गोली पेट में लगी और उनके दूसरे साथी ज़मीन पर गिरे. ड्राइवर को भी गोली लगी और गाड़ी के शीशे और बोनट पर भी गोलियां लगी थीं. मैंने संजय सिंह को पीछे खींचा और अपनी गाड़ी में जबरन घुसा दिया. पर यह क्या पाठक जी ग़ायब. अब मैं पाठक जी को ढूंढने लगा. दूसरी तरफ़ से गोलियां चल रही थीं. तेज तेज आवाज़ लगाई, प्राण सूख रहे थे. मुझे डर था कि अगर हमलावर आगे बढ़े, तो हम सब ऊपर जाएंगे. तभी देखा सड़क के नीचे गड्डे में पाठक जी बैठे हैं. मैंने पाठक को बुलाया और गाड़ी मोड़कर निकलने को कहा. पाठक जी थर थर कांप रहे थे. उनका दिमाग़ काम नहीं कर रहा था.
गाड़ी मुड़ते ही मैंने कहा, पाठक जी चांपिए. अब पाठक जी हवा से बात कर रहे थे. मैंने कहा कि कोई भी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर चलिए. तब मोबाइल का जमाना नहीं था, खून बह रहा था. पर संजय सिंह होश में थे. उन्होंने कहा मुसाफ़िर खाना के स्वास्थ्य केन्द्र पर चलिए, वह सात आठ किमी दूर लखनऊ हाईवे पर था. संजय सिंह का सिर मेरी गोद में था. गाड़ी में सिर्फ़ सुबह के अख़बार थे. मैं उन अख़बारों से उनके बहते खून को रोकने की कोशिश कर रहा था. गाड़ी में शीतल सिंह भी थे और डर यह था कि कहीं वो लोग पीछा न कर रहे हों. मुड़ मुड़ कर पीछे देखता. बाद में पता चला कि वो भी संजय सिंह के गिरने से भयभीत हो पीछे लौट गए. उन्हें इस बात का अंदाज़ भी नही था कि इस तरफ़ कितनी तैयारी है. अगर वे पीछा करते तो हमारा क्या होता पता नहीं.
पाठक जी की गाड़ी मुसाफ़िर खाना हेल्थसेंटर पर ही रुकी. रास्ते में संजय सिंह रुक कर कहीं पेशाब करना चाहते थे पर मैंने गाड़ी रोकी नहीं. मुसाफ़िर खाना पहुंचते ही अस्पताल के बाहर भीड़ लग गयी. तब तक लखनऊ को खबर हो चुकी थी. डॉक्टरों ने उनका प्राथमिक उपचार कर उन्हें लखनऊ रेफ़र किया. उनके पेट में दो गोली लगी थी. पुलिस ने बयान के लिए हमें रोके रखा. कुछ औपचारिकताओं के बाद हम खबर भेजने के लिए वहां से निकल लिए. पूरे रास्ते मुझे इस बात की ग्लानि थी कि अच्छे भले बाबूसाहब नाश्ता कर रहे थे, मैंने उन्हें क्यों ललकार दिया. फिर हम राजमोहन गांधी के कार्यालय पहुंचे. उन्हें घटना की पूरी जानकारी दी. एल सी जैन (बाद में योजना आयोग के उपाध्यक्ष) और धर्मपाल जी जैसे कई गांधीवादी यहां मौजूद थे. शायद राजीव वोरा भी वहां बैठे थे. इस चुनाव की एक बड़ी उपलब्धि यह थी कि मुझे इन बड़े-बड़े लोगों की सोहबत मिली. इन सब पर फिर कभी मौक़ा मिला तो अलग से लिखूंगा.
देर रात हम लखनऊ लौट आए पर पाठक जी महीनों तक विक्षिप्त जैसे थे. दाहिने कहिए तो बांए जाते थे. बाएं कहिए तो दाहिने. उन्हें कुछ समझ नहीं आता था. आज भी उन्हें उस घटना की याद दिलाइए तो वे सिहर उठते हैं. रात में ही संजय सिंह भी लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज लाए गए. उनका ऑपरेशन हुआ, फिर मामला बिगड़ा तो उन्हें इलाज के लिए विलायत भेजा गया.
30 बरस बाद फिर फिर से टकरा गए
दुनिया कितनी छोटी है और संयोग क्या होता है इसे देखिए. एक उदाहरण, इस घटना के कोई तीस बरस बाद का दृश्य. मिर्ज़ापुर के विधायक रत्नाकर मिश्र जो विन्ध्यवासिनी मंदिर के तीर्थ पुरोहित भी हैं, अपनी बिटिया के विवाह का निमंत्रण देने मेरे घर आए. उनके साथ एक सज्जन और थे. बातचीत शुरू हुई, मैंने कहा, मैं ज़रूर आऊंगा. शादी कहां कर रहे हैं, उन्होंने साथ आए सज्जन की ओर इशारा किया कि यही मेरे समधी हैं. इन्हीं के बेटे से शादी हो रही है. सुल्तानपुर से विधायक और लोकसभा का चुनाव लड़ चुके हैं. यह भी आपको न्यौता देने ही आए हैं. आप दोनों तरफ़ से निमंत्रित हैं. मैंने कहा बहुत सौभाग्य हमारा मैं दोनों तरफ़ से निमंत्रित हूं. पूछा तो पता चला कि नेता जी आशीष शुक्ला हैं. मेरे दिमाग़ की बिजली कौंधी, मैंने कहा, "तीस बरस पहले गौरीगंज के चौराहे पर इधर संजय सिंह, उधर से तड़ातड़. कहीं आप वही तो नहीं हैं." संयोग देखिए कि एक सौ तीस करोड़ के मुल्क में वही शुकुल जी मुझे फिर मिल गए थे. नतमस्तक होते हुए उन्होंने कहा, "भाई साहब कितनी पुरानी बात आपको याद है. अब तो हम दोनों एक ही पार्टी में हैं " मैंने कहा, " गुरुदेव वह तो ठीक है आप दोनों अब एक ही पाले में हैं. पर कहीं उस रोज़ आप पीछे-पीछे आ जाते तो हम आज आपसे निमंत्रण लेने के लिए यहां न बैठे होते।" वो बहुत असहज हो रहे थे.
खैर यह विषयांतर था, पर रोचक था. एक सौ तीस करोड़ का मुल्क भी कितना छोटा यह बताने के लिए. अब आइए पाठक जी पर. पाठक जी से मिलकर मुझे ड्राइवरों के समृद्ध इतिहास का बोध भी हुआ. ड्राइवरों की क़िस्मत तेज़ी से पलटती है. इन्हें कभी हल्के में नहीं लेना चाहिए. चीन में अरबपति बने एक पूर्व टैक्सी ड्राइवर लियू यिकिअन ने साल 2015 में एक नीलामी में दुनिया की दूसरी सबसे महंगी पेंटिंग खरीदी जिसकी कीमत 1100 करोड़ थी. यिकिअन आज चीन के 163 नबंर के अरबपति हैं, लेकिन उनकी जिंदगी की कहानी दिलचस्प है. उन्होंने अपने करियर की शुरुआत चीन के एक बंदरगाह पर ट्रैक्सी चालक के तौर पर की थी.
पुराणों में ड्राइवर की महत्ता
ड्राइवर यानि सारथी की गुरुता और महत्त्व को समझने के लिए हमें कठोपनिषद में यम और नचिकेता संवाद को समझना पड़ेगा. कठोपनिषद कृष्ण यजुर्वेद का उपनिषद है. इसमें नचिकेता और यमराज का ब्रह्मज्ञानी संवाद है. इसमें वे सूत्र हैं जो नचिकेता के ज्ञान से प्रसन्न होकर यमराज ने उसे दिए थे. यमराज नचिकेता से कहते हैं-
आत्मानं रथितं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च॥
(तू आत्मा को रथी जान, शरीर को रथ समझ, बुद्धि को सारथी जान और मन को लगाम समझ।) यानि शरीर का ड्राइवर बुद्धि है.
वैदिक और पौराणिक साहित्य में देव मण्डल का प्रधान देवता सूर्य हैं. सूर्य के अथर्ववेद में सात और महाभारत मे बारह नाम गिनाए गए हैं. ऋग्वेद ने सूर्य को विश्व की आत्मा और पिता माना है. स्वास्थ्य से सूर्य का सीधा सम्बन्ध है. यह रोगों को दूर भगाता है. सूर्य का रथ घोड़े खींचते हैं. पुराणों के मुताबिक़ सूर्य के सारथी अरुण हैं. उनके बारे में कहा जाता है कि अरुण का सूर्य पर इतना प्रभाव है कि वे रथ की कमान संभालते वक्त सूर्य देव की ओर मुंह कर के ही बैठते हैं. बावजूद इसके रथ अपनी दिशा में निरंतर सही मार्ग पर चलता रहता है.
एक ऋषि प्रजापति कश्यप थे. उनकी पत्नी विनता थीं. उनके दो बेटे थे. नाम था 'गरुड़' और 'अरुण'. गरुण भगवान विष्णु के वाहन थे तो अरुण सूर्य के रथ के सारथी. मान्यता है कि सूर्योदय के समय जो बैंगनी रंग की रोशनी आती है, वह अरुण की होती है.
दारुक ने अर्जुन से कहा- "मैं यादवों के विरुद्ध रथ नहीं हांक सकता
इन्द्र देवताओं के राजा थे, सुरा सुन्दरी से लैस. वे भोग विलास में लिप्त रहने वाले देवता थे. मातलि उनके सारथी थे. मातलि का उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में आता है. राम -रावण युद्ध के दौरान जब रावण रथी था और रघुवीर विरथ थे तो उस वक़्त इंद्र ने अपना ही रथ राम की सहायता के लिए भेजा था. उस वक्त भी मातलि ने ही रथ का संचालन किया था. इस सबके बीच एक किस्सा हमारे पाठक जी सुनाते थे. पाठक जी धर्म-करम में शिक्षित थे. वे अपनी ड्राइवरी को साबित करने के लिए एक किस्सा सुनाते थे जो बहुत ही रोचक है, यह किस्सा सारथियों के सारथी दारुक की है. दारुक भगवान श्रीकृष्ण के सारथी थे. वे बड़े स्वामी भक्त थे. जिस समय अर्जुन सुभद्रा को हरण कर ले जा रहे थे, उस समय दारुक ने अर्जुन से कहा- "मैं यादवों के विरुद्ध रथ नहीं हांक सकता, अत: आप मुझे बांध दें और फिर जहां चाहे रथ ले जाएं।" मान्यता के अनुसार उस यादव युद्ध में चार प्रमुख व्यक्तियों ने भाग नहीं लिया था, जिससे वे बच गये, वे थे- कृष्ण, बलराम, दारुक सारथी और वभ्रु. बलराम दु:खी होकर समुद्र की ओर चले गये, कृष्ण बड़े मर्माहत हुए. वे द्वारका गये और दारुक को अर्जुन के पास भेजा कि वह आकर स्त्री-बच्चों को हस्तिनापुर लिवा ले जाएं.
अब्दुल कलाम के ड्राइवर जो प्रोफेसर बने
कभी सेना में एपीजे अब्दुल कलाम के ड्राइवर रहे वी कथीरेसन अब कॉलेज में इतिहास के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. कथीरेसन और कलाम का लंबा साथ रहा और उनका मानना है कि इस साथ ने ही उनकी जिंदगी बदली. कथीरेसन 1979 में दसवीं में फेल होने के बाद सिपाही के तौर पर सेना में शामिल हुए. जब उन्होंने अपनी ड्राइवर की ट्रेनिंग पूरी की तो उनकी पहली ही पोस्टिंग रक्षा अनुसंधान और विकास संस्थान (डीआरडीओ) हैदराबाद में मिली. वहां वे संस्थान के डायरेक्टर कलाम के ड्राइवर नियुक्त हुए. कथीरेसन बताते हैं कि वे दोनों एक ही जिले अविभाजित रामनाड से आते हैं. कथीरेसन को कलाम पसंद करने लगे थे. उन्होंने कथीरेसन को पढ़ाई जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया था और पढ़ाई की सारी व्यवस्था भी की. कथीरेसन याद करते हैं कि एक बार डॉ. कलाम ने उनसे कहा था 'यदि मेरे पास ये डिग्रियां होतीं तो मैं टीचर होता और ये भी कि अब मुझे डॉक्टरेट कर लेना चाहिए… ताकि मैं कॉलेज में लेक्चरर हो पाऊं.' उन्होंने तब तक कलाम के साथ 10 साल काम कर 1998 में सेना से एच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली. उसी साल उन्होंने पीएचडी की. बाद में 2008 में उनकी नियुक्ति गवर्नमेंट आर्ट्स एंड साइंस कॉलेज अथूर में इतिहास के असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर हुई. मनमोहन सिंह की सरकार को रामलीला मैदान तक घसीटने वाला भी सेना का एक पूर्व ड्राइवर किशन बाबूराव हज़ारे ही था जिसे दुनिया अन्ना हज़ारे के नाम से जानती है. अन्ना को भारत सरकार पद्म विभूषण के सम्मान से नवाज चुकी है.
सो ड्राइवर यानि सारथी, यानि मार्गदर्शक, यानि गुरु, जीवन के कितने ही क्षेत्रों में आपकी नैया पार लगाता है. आपको रास्ते की उहापोह से निकालकर मंजिल तक पहुंचाता है. इतिहास उसका ऋृणी है. समय उसका कृतज्ञ है. समाज की प्रगति उसके आगे नतमस्तक है. जीवन की कितनी ही सफलताएं उसकी अनुचरी हैं. इसलिए जरूरी है कि ड्राइवर को सम्मान की दृष्टि से देखा जाए. उसकी महत्ता को स्वीकार किया जाए. उसके साथ जुड़ी महान परंपरा का अभिनंदन किया जाए. मैंने पाठक जी से न सिर्फ गाड़ी चलानी सीखी है बल्कि जीवन की गाड़ी चलाने के अनमोल सूत्र भी पाए हैं. आज भी छठे छमासे जो लोग मुझे बिना काम के अकारण सिर्फ़ कुशल क्षेम पूछने के लिए फ़ोन करते हैं पाठक जी उनमें एक हैं. बाक़ी किसे कोई मतलब नहीं.