दिल्ली की इन दो महिलाओं का पाकिस्तान के तीन प्रधानमंत्रियों से क्या है रिश्ता?

दिल्ली-6 का चावड़ी बाजार यहां का स्थायी भाव है, रौनक और हलचल

Update: 2022-04-12 15:51 GMT
विवेक शुक्ला। 
दिल्ली-6 का चावड़ी बाजार यहां का स्थायी भाव है, रौनक और हलचल. यहां से सिविल लाइंस के श्याम नाथ मार्ग पर स्थित उत्तर भारत के पहले महिलाओं के इंद्रप्रस्थ कॉलेज के बीच की दूरी होगी तकरीबन 5 किलोमीटर. इन दोनों जगहों को जोड़ती हैं बिब्बो (Bibbo) यानी इशरत जहां और गुल-ए-राना इन दोनों का पाकिस्तान (Pakistan) के तीन प्रधानमंत्रियों से गहरा ताल्लुक है. कहते हैं, बिब्बो बला की खूबसूरत और हाजिर जवाब औरत थीं. उसकी सुरीली आवाज थी. उसे शेरो शायरी में दिलचस्पी थी. उसे उस्ताद शायरों के सैकड़ों शेर याद थे, वह संगीत निर्देशक और हिरोइन भी थी. बिब्बो महत्वाकांक्षी थी और छोटी उम्र में ही बंबई चली गई थी.
उसने 1947 तक हिन्दी फिल्मों में खूब नाम कमाया, रेलवे बोर्ड के पूर्व मेंबर और हिन्दी फिल्मों के गहन जानकार डॉ. रविन्द्र कुमार बताते हैं कि वे जब 1990 के दशक में वेस्टर्न रेलवे में नौकरी के दौरान मुंबई में पोस्टेड थे, तब उन्हें बिब्बो के बारे में जानकारी मिली. उसके बाद उन्होंने बिब्बो के संबंध में और कायदे से शोध किया तो उसके बारे में कई रोचक जानकारियां मिलीं. मसलन बिब्बो 1947 के बाद पाकिस्तान चली गई थी. वहां भी वह फिल्मों में काम करने लगी. उधर उसकी मुलाकात शाहनवाज भुट्टो (Shahnawaz Bhutto) से हुई, मुलाकात प्रेम में तब्दील हुई और फिर दोनों ने शादी कर ली.
किसकी समकालीन थीं बिब्बो
दरअसल बिब्बो समकालीन थीं देविका रानी, दुर्गा खोटे, सुलोचना, मेहताब, शांता आप्टे और नसीम बानों की. कहते हैं कि उसकी नसीम बानों से खूब पटती थी, क्योंकि दोनों दिल्ली से थीं. बिब्बो देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान चली गई. एक तरह से वह अपने ठीक-ठाक करियर को छोड़कर सरहद के उस पार चली गई थी. उसने तब तक करीब तीन दर्जन फिल्मों में काम कर लिया था. बिब्बो ने मास्टर निसार और सुरेन्द्र जैसे कलाकारों के साथ भी काम किया था. उसने सुरेन्द्र के साथ मनमोहन (1936), जागीरदार (1937), ग्रामोफोन सिंगर (1938) तथा लेडिज ओनली (1939) जैसी कामयाब फिल्मों में काम किया.
कहां मिली बिब्बो भुट्टो से
बिब्बो कराची में भी जाकर फिल्मों में काम करने लगी. वहां उसकी दोस्ती शाहनवाज भुट्टो से हो गई. उनकी दोस्ती प्रगाढ़ हुई तो दोनों ने शादी कर ली. यह वही शाहनवाज भुट्टो थे, जिनके पुत्र जुल्फिकार अली भुट्टो और पौत्री बेनजीर भुट्टो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भी बने, शाहनवाज भुट्टो गुजरात की जूनागढ़ रियासत के प्रधानमंत्री भी रहे थे, उन्होंने बिब्बो से शादी करने से पहले एक शादी पहले भी की हुई थी. वह महिला जुल्फिकार अली भुट्टो की मां थीं. वह हिन्दू परिवार से थीं.
डॉ. रविन्द्र कुमार कहते हैं, बिब्बो को भारत की फिल्मी दुनिया की पहली महिला संगीत निर्देशक माना जाता है, बिब्बो ने पाकिस्तान में जाकर भी लगातार फिल्मों में स्तरीय काम किया और नाम कमाया. उन्होंने पाकिस्तान में दुपट्टा, गुलनार नजराना, मंडी, कातिल जैसी फिल्मों में अपने अभिनय के जौहर दिखाए. उसे घोड़ों की रेस में पैसा लगाने का शौक था. बिब्बो ने भी शाहनवाज भुट्टो से शादी करने से पहले एक शादी पहले भी की हुई थी. हालांकि वह शादी सफल नहीं हुई. उसका कराची में इंतकाल हो गया था. तब वह अकेली थी.
क्या भुट्टो या बेनजरी को ख्याल आया होगा उसका
जो भी कहिए, बिब्बो के पुत्र तो माने जाएंगे जुल्फिकार अली भुट्टो. भुट्टो 1964 में पंडित जवाहरलाल नेहरु की अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए राजधानी में आईं, पाकिस्तान सरकार की टोली के मेंबर थे. यानी वे उस शहर में आए थे जिधर से उनके पिता की दूसरी पत्नी बिब्बो का संबंध था. भुटटो की पुत्री और पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो दिल्ली में कम से कम दो-तीन बार आईं. वह राजीव गांधी की अत्येष्टि में 1991 में भाग लेने आईं थीं. उसके बाद वह भारतीय उद्योग महासंघ (सीआईआई) के सम्मेलन में शिरकत करने के लिए 22 नवंबर, 2001 में भी दिल्ली आईं थीं. वह तब सीधे दुबई से आईं थीं.
उन्होंने तब सीआईआई के सम्मेलन में महिलाओं के सशक्तिकरण पर एक ओजस्वी वक्तव्य दिया था. उस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रमुख उद्योगपति संजीव गोयनका कर रहे थे. बेनजीर भुट्टो उस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए सीधे दुबई से दिल्ली आईं थीं. बेनजीर भुट्टो तब बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी से मिलने उनके पृथ्वीराज रोड स्थित सरकारी आवास पर भी गई थीं. बताते चलें कि संजीव गोयनका के पास पहले आईपीएल में राइजिंग पुणे सुपरजाइंट्स का स्वामित्व रहा है. अब वे आईपीएल में लखनऊ टीम के मालिक बन गए हैं. खैर, अब यह कहना तो मुश्किल है कि क्या पिता और पुत्री को दिल्ली में आकर अपनी सौतेली मां और दादी का ख्याल आया होगा?
किसकी पत्नी थीं गुल-ए-राना
बिब्बो की तरह इंद्रप्रस्थ कॉलेज में लेक्चरर गुल ए राना भी बंटवारे के दौरान कराची चली गई थीं. पर उन्होंने बड़े ही बेमन से दिल्ली छोड़ा था. आखिर वे यहां के पॉश 7, हार्डिंग लेन (अब तिलक मार्ग) के शानदार बंगले में रहती थीं और उनके पास एक बेहतरीन नौकरी थी. अब इस बंगले में पाकिस्तान के भारत में उच्चायुक्त रहते हैं. पर चूंकि उनके शौहर लियाकत अली खान मुस्लिम लीग के शिखर नेता थे, तो उन्हें पाकिस्तान जाना ही पड़ा. लेकिन, गुल-ए-राना कराची जाने से पहले धर्म संकट की हालत में थीं. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि नौकरी छोड़ी जाए या कुछ दिनों की छुट्टी लेकर पाकिस्तान जाया जाए.
आखिरकार गुले-ए-राना, जिनका परिवार ईसाई बनने से पहले उत्तराखंड के अलमोड़ा का कुलीन ब्राह्मण परिवार के रूप में मशहूर था, अगस्त , 1947 के पहले हफ्ते में कराची चली गईं. वह यहां से जाने से पहले इंद्रप्रस्थ कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ. वीणा दास को दो महीने के अवकाश की अर्जी देकर गईं. उन्होंने वादा किया कि वह जल्दी आएंगी.
यह जानकारी इंद्रप्रस्थ कॉलेज की मैनेजमेंट कमेटी के अध्यक्ष और मशहूर चार्टर्ड एकाउंटेंट लाला नारायण प्रसाद जी देते थे. इत्तेफाक देखिए कि आज 12 अप्रैल को नारायण प्रसाद जी की बहन तथा गुल ए राना की सहेली सरला शर्मा जी का राजधानी में निधन हो गया है. वह 101 साल की थीं. वह भी एक्टिविस्ट थीं. खैर, लाला जी के परिवार ने ही 1904 में चांदनी चौक में राजधानी का लड़कियों का पहला स्कूल इंद्रप्रस्थ हिन्दू कन्या विद्लाय स्थापित किया था. उन्होंने ही 1927 में इंद्रप्रस्थ कॉलेज खोला था.
क्यों मिली इतनी लंबी छुट्टी
कहते हैं कि गुल ए राना को इतना लम्बा अवकाश इसलिए मिल गया क्योंकि उनकी कॉलेज में टीचर के रूप में बढ़िया छवि बन चुकी थी. वे दो साल से कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ा रही थीं. लाला नारायण प्रसाद बताते थे कि गुल ए राना दिल्ली में महिलाओं के सवालों को लेकर भी काफी सक्रिय रहा करती थीं. उन्होंने इधर कश्मीरी गेट और चांदनी चौक में शराब की दुकानों को बंद करवाने के लिए चले आंदोलन में बढ़ चढ़कर भाग लिया था. उस आंदोलनों में अरुणा आसफ अली और सरला शर्मा भी भाग लेती थीं. यानी वह खासी जागरूक महिला थीं. पर गुल वापिस दिल्ली नहीं आईं. वह आगे चलकर पाकिस्तान में औरतों को खुद मुख्तार बनाने के लिए चले आंदोलन की सबसे सशक्त आवाज बनीं. उनके पति और पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की 1951 में हत्या कर दी गई. उसके बाद वह कई देशों में पाकिस्तान की राजदूत भी रहीं. गुल ए राना की 13 जून, 1990 को मौत हो गई थी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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