जल आपदा

केरल में भारी बारिश के कारण बाढ़ और भूस्खलन से हुई तबाही की तस्वीरें स्मृति से ओझल भी नहीं हो पाई थीं

Update: 2021-10-20 07:50 GMT

केरल में भारी बारिश के कारण बाढ़ और भूस्खलन से हुई तबाही की तस्वीरें स्मृति से ओझल भी नहीं हो पाई थीं कि अब उत्तराखंड से आ रही खबरें चिंता बढ़ाने वाली हैं। पिछले तीन दिनों से जारी बारिश के कारण इस पहाड़ी राज्य के कई इलाके जलमग्न हो गए हैं, अनेक लोगों की जान चली गई है, पुल धंस गए हैं, और कई जगहों पर फंसे पर्यटकों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने के लिए बचाव दल को भारी मशक्कत करनी पड़ रही है। बताया जा रहा है कि प्रसिद्ध पर्यटन स्थल नैनीताल में नैनी झील का पानी लोगों के घरों तक पहुंच गया है। स्वाभाविक रूप से बिजली कटी हुई है और रास्तों के बंद हो जाने से लोगों की जिंदगी काफी मुश्किल हो गई है। हालात की गंभीरता का अंदाज इसी से लग जाता है कि प्रधानमंत्री ने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को फोन कर केंद्र की तरफ से हर मुमकिन मदद का भरोसा दिया है।

यह कुदरती आपदा है, और ऐसी आपदाओं के आगे विज्ञान भी अब तक लाचार ही है। दुनिया के तमाम विकसित देशों को भी प्राकृतिक प्रकोपों से जूझना पड़ता है। लेकिन सभ्यता के विकास क्रम में उन्होंने तकनीक की मदद से इतनी सफलता जरूर हासिल कर ली है कि वे पीड़ितों तक कम से कम समय में राहत उपायों के साथ उपस्थित हो जाते हैं। ऐसी आपदाओं का मुकाबला उत्कृष्ट मानव सेवा से ही किया जा सकता है। हमें भी वह दक्षता हासिल करनी पडे़गी। पहाड़ी राज्यों, खासकर उत्तराखंड को ऐसे प्राकृतिक प्रकोपों का अक्सर सामना करना पड़ता है। इसलिए विवेकपूर्ण तरीके से यह विवेचना होनी चाहिए कि ऐसी किसी सूरत में हानि कैसे न्यूनतम की जा सकती है? ऐसा नहीं है कि पहाड़ी राज्यों में मानव बसाहट कोई नई बात है, लेकिन उनके अविवेकपूर्ण विस्तार ने नुकसान को कई गुना बढ़ाया है। सुदूर क्षेत्रों को तो छोड़िए, हमारे महानगर तक अराजक विस्तार के शिकार हैं और हर मानसून में इसकी पीड़ा नागरिकों को भोगनी पड़ती है।
उत्तराखंड जैसे पहाड़ी और केरल जैसे समुद्र तटीय प्रदेश अपनी भौगोलिक स्थिति के लिहाज से अधिक संवेदनशील रहे हैं। उनके विकास की पूरी संरचना में इसका ख्याल रखा जाना चाहिए था। लेकिन दूरदर्शी नगर योजना व राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के अलावा बढ़ती आबादी के दबाव ने हमें इस मोड़ तक पहुंचाया है कि हम तय नहीं कर सके कि कहां पर रुक जाना चाहिए। झीलों, नदी मार्गों को पाटते हुए और उनमें अपने लालच बोते हुए हम भूल बैठे कि प्रकृति नाराज हुई, तब क्या होगा? यह सही है कि विकास के लिए प्रकृति का दोहन जरूरी है। पर उसकी सीमा क्या हो, यह तो हमें ही तय करना है। प्रकृति लगातार संकेत करती रही, मगर इंसानी समाज अपनी सुविधा से उनको अनदेखा करता रहा है। अपेक्षाकृत विकसित देशों में अब यह समझ बन रही है कि अपनी सभ्यता के अस्तित्व के लिए इस दोहन पर लगाम बहुत जरूरी है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने यूं ही सरकारी भूमि पर नए तेल कुओं की खुदाई को लेकर रोक नहीं लगाई या पर्यावरण संरक्षण को बेमतलब ही अपने एजेंडे में ऊपर नहीं रखा है। हमें भी सतर्क होने की जरूरत है। खासकर संवेदनशील भौगोलिक क्षेत्रों में। दक्षिण की देवभूमि केरल से लेकर उत्तर की देवभूमि तक कुदरत अगर नाराज है, तो वक्त रहते यह नाराजगी पढ़ी जानी चाहिए।

क्रेडिट बाय हिंदुस्तन 

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