उत्तर प्रदेश: असंतुलन का प्रदेश

उसकी पार्टी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए बंधक बनाया जा रहा है।

Update: 2021-10-24 01:45 GMT

सितंबर, 1955 में भारत सरकार को सौंपी गई राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट को सर्वाधिक इस बात के लिए याद किया जाता है कि इसने प्रांतों की सीमाओं का निर्धारण भाषायी आधार पर करने की सिफारिश की थी। कर्नाटक जैसा राज्य, जहां मैं रहता हूं, एसआरसी की रिपोर्ट को लागू किए जाने के कारण ही अस्तित्व में आया। इसके जरिये चार भिन्न प्रशासनिक इकाइयों में फैले कन्नड़ बोलने वालों को एक एकीकृत प्रांत में एक साथ लाया गया।

एसआरसी में तीन सदस्य थे : जस्टिस एस फजल अली (जो कि आयोग के अध्यक्ष भी थे), सामाजिक कार्यकर्ता एच एन कुंजरू और इतिहासकार के एम पणिक्कर। मुख्य रिपोर्ट के परिशिष्ट के रूप में छपे एक आकर्षक नोट में पणिक्कर ने लिखा, कन्नड़-भाषी, तमिल-भाषी, उड़िया-भाषी इत्यादि के समेकित राज्यों की स्थापना के साथ ही एसआरसी को भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश को भी विभाजित करने का सुझाव देना चाहिए। आबादी के लिहाज से उत्तर प्रदेश कई राज्यों के संयुक्त रूप से बड़ा था। इससे राष्ट्रीय राजनीति में अनुपातहीन रूप से उसका प्रभाव बढ़ गया, जिसे इतिहासकार ने भारतीय एकता के लिए चेतावनी माना।
पणिक्कर ने अपने नोट में तर्क दिया, 'किसी संघ के सफलतापूर्वक काम करने के लिए आवश्यक है कि उसकी इकाइयों में संतुलन हो। बहुत अधिक असमानता न केवल संदेह और आक्रोश पैदा कर सकती है, बल्कि ऐसी ताकतें पैदा कर सकती है, जो खुद संघीय ढांचे को कमजोर कर सकती हैं और इस तरह देश की एकता के लिए खतरा बन सकती हैं।' पणिक्कर ने टिप्पणी की, 'यदि कोई यथार्थवादी होकर विचार करे कि दुनिया भर की सरकारें किस तरह से काम करती हैं, तो यह आसानी से देखा जा सकेगा कि अत्यंत विशाल इकाई के ऐसे प्रबल प्रभाव का दुरुपयोग किया जा सकता है, और इससे अन्य घटक इकाइयों में नाराजगी पैदा हो सकती है। आधुनिक सरकारें प्रायः कम-ज्यादा पार्टी-मशीनों द्वारा नियंत्रित होती हैं, जिसके भीतर संख्यात्मक रूप से मजबूत समूह की मतदान शक्ति बहुत दूर तक जाती है।'
पणिक्कर की टिप्पणी व्यावहारिक होने के साथ ही भविष्यदर्शी थी। 1955 में ही, केरल के इतिहासकार तर्क कर रहे थे कि 'इकाइयों की समानता के संघीय सिद्धांत को नकारने के कारण पैदा हुआ मौजूदा असंतुलन उत्तर प्रदेश के बाहर के सभी राज्यों में अविश्वास और रोष की भावना पैदा कर रहा है। न केवल दक्षिणी राज्यों में बल्कि पंजाब, बंगाल और अन्य जगहों पर भी आयोग के समक्ष आम तौर पर यह विचार व्यक्त किया गया था कि सरकार की वर्तमान संरचना के कारण अखिल भारतीय मामलों में उत्तर प्रदेश का प्रभुत्व हो गया है।'
इस असंतुलन को कैसे दूर किया जा सकता था? पणिक्कर ने बिस्मार्क के समय के जर्मनी का उदाहरण दिया कि आबादी और आर्थिक ताकत के लिहाज से प्रभुत्व वाले प्रशिया राज्य को राष्ट्रीय विधायिका में कम आनुपातिक प्रतिनिधित्व दिया गया था, ताकि कम आबादी वाले प्रांत आश्वस्त हो सकें कि एकीकृत जर्मनी में प्रशिया का बेजा प्रभुत्व नहीं होगा। पणिक्कर संयुक्त राज्य अमेरिका का भी उदाहरण दे सकते थे, जहां आकार की परवाह किए बिना प्रत्येक राज्य में सीनेट की दो सीटें हैं, ताकि कैलिफोर्निया जैसे बड़ी आबादी वाले राज्यों के बेजा प्रभुत्व को रोका जा सके।
हालांकि भारतीय संविधान ने लोकसभा में आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व तय कर दिया। इस सिद्धांत के अनुसार वर्ष 1955 में कुल 499 सांसदों में से 86 उत्तर प्रदेश से थे (2000 में उत्तराखंड के निर्माण के बाद कुल 543 सीटों में से 80 सीटें हो गईं) शासन तथा निर्णय लेने के अधिकार में लोकसभा के प्रभावी प्रभुत्व को देखते हुए पणिक्कर ने कहा, 'हमारे पास एक ही समाधान है कि अतिवृद्धि वाले राज्य का इस तरह से पुनर्गठन किया जाए कि असमानता को कम किया जा सके- संक्षेप में कहें तो विभाजन। मुझे यह एक स्वाभाविक प्रस्ताव लगता है।' उन्होंने इस राज्य को भागों में बांटने का सुझाव दिया, जिसमें एक नए 'आगरा राज्य' की स्थापना हो और उसमें मेरठ, आगरा, रोहिलखंड और झांसी संभाग (मंडल) हों।
हालांकि पणिक्कर को उत्तर प्रदेश के विभाजन की जरूरत 'स्वाभाविक' लग रही थी, लेकिन आयोग के अन्य सदस्यों को ऐसा नहीं लगा। और यह सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी को भी कम स्वाभाविक लगा, जिसके प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू खुद उत्तर प्रदेश से थे। राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट के शुरुआती पाठक थे डॉ. भीमराव आंबेडकर। उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया एक पुस्तिका में दर्ज की, जिसका प्रकाशन दिसंबर, 1955 के आखिरी हफ्ते में किया गया। अंबेडकर ने यूपी पर पणिक्कर के नोट पर सहमति जताते हुए लिखा, 'आबादी और अधिकार को लेकर राज्यों के बीच की यह असमानता पक्के तौर पर देश को त्रस्त कर देगी।' आंडेबकर ने महसूस किया, 'इस असमानता का समाधान अत्यंत आवश्यक है।' उन्होंने उत्तर प्रदेश को तीन भिन्न राज्यों में बांटने का प्रस्ताव रखा। केंद्र सरकार ने आंबेडकर के प्रस्ताव को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया।
पणिक्कर और आंबेडकर के उत्तर प्रदेश को विभाजित करने के सुझावों के साढ़े पांच दशक बाद मायावती ने एक नया प्रस्ताव रखा। 2011 में वह राज्य की मुख्यमंत्री थीं। मायावती ने विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर मौजूदा राज्य को चार छोटे राज्यों- पूर्वांचल, बुंदेलखंड, अवध प्रदेश और पश्चिम उत्तर प्रदेश में बांटने का प्रस्ताव दिया। उत्तर प्रदेश में इस प्रस्ताव का समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने तीखा विरोध किया, जो कि तब केंद्र की सरकार में थी।
शासन की एक सीट से एक मुख्यमंत्री के अधीन कुशलतापूर्वक संचालित करने के लिहाज से यूपी बहुत दुष्कर, बहुत बड़ा और बहुत बड़ी आबादी वाला राज्य है। विकास के अधिकांश संकेतकों के मामले में यूपी का प्रदर्शन अन्य भारतीय राज्यों से बहुत कमजोर है। इसके पिछड़ेपन की एक वजह है, हाल के दशकों में राज्य की राजनीतिक संस्कृति बहुसंख्यकवादी गौरव को बढ़ावा देने की ओर उन्मुख रही है। दूसरा कारण है कि यह राज्य घनघोर रूप से पितृसत्तात्मक है। लेकिन यूपी के अपेक्षाकृत पिछड़ेपन का तीसरा कारण निश्चित रूप से इसकी जनसंख्या का आकार है। बीस करोड़ से अधिक निवासियों के साथ, इसकी सीमाओं के भीतर पांच देशों को छोड़ दिया जाए, तो बाकी दुनिया की आबादी के बराबर संख्या के लोग रहते हैं।
भारत के लिए, इसके नागरिकों के लिए उत्तर प्रदेश को तीन संभवतः चार हिस्सों में पृथक और विशिष्ट राज्यों में विभाजित करना चाहिए, जिसमें प्रत्येक की अलग विधानसभा और मंत्रिपरिषद हो। दुखद है कि इसकी बहुत कम संभावना है। नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के लिए सत्ता पर कब्जा करना और उसे कायम रखना सुशासन से हमेशा आगे रहा है। 2014 और 2019 के आम चुनाव में भाजपा ने यूपी से क्रमशः 71 और 62 सीटें जीती थीं, जिससे उसे बहुमत हासिल करने में मदद मिली। मोदी सरकार उम्मीद कर सकती है कि 2024 तक अर्थव्यवस्था के प्रबंधन व महामारी को नियंत्रित करने में उनकी विफलताओं को भुला दिया जाएगा, और राम मंदिर के निर्माण और मुस्लिम जनसांख्यिकीय विस्तार के डर पर आधारित एक आक्रामक हिंदुत्व एजेंडा ध्रुवीकरण करेगा और एक बार फिर भाजपा को यूपी से लोकसभा की 80 सीटों में से अधिकांश सीटें मिलेंगी।
और इसलिए एक अविभाजित उत्तर प्रदेश पीड़ित और स्थिर रहेगा और देश के बाकी हिस्सों पर भी नकारात्मक प्रभाव डालेगा। राज्य और भारत के भविष्य को वर्तमान में एक व्यक्ति और उसकी पार्टी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए बंधक बनाया जा रहा है।
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