हर जगह कुछ ऐसे खास किसिम के महानुभाव होते हैं जो अपने ईमान, जुबान की परवाह किए बिना दूसरों के ईमान, जुबान के फिसलने की फिराक में चौबीसों घंटे मुस्तैद रहते हैं सोए सोए भी। वे अपने ईमान, जुबान से बेपरवाह किसी के भी ईमान, जुबान की फिसलन को फिसलन मापी यंत्र लिए पल पल मापते रहते हैं। ज्यों ही उन्हें किसी के ईमान, जुबान का अपने फिसलन मापी यंत्र में स्तर सामान्य से ऊपर नजर आता है तुरंत वे चौकन्ने हो जाते हैं। तब और जगह किसी के फिसलने पर हंगामा हो या न, पर राजनीति में हंगामा जरूर होता है, खूब होता है। तब तक होता है जब तक अगले हंगामे के आसार नहीं दिखते। हंगामे का पर्याय राजनीति है। हंगामे के बिन राजनीति बेजान होती है। फिसलने के पीछे सौ बहाने होते हैं तो फिसलन पर हंगामा करने के हजार। जिस बयान पर उबाल न उठे वह बयान मेरे दूध वाले के दूध सा होता है। अब मेरे दूध के पतीले में दूध गरम करते हुए उबाल नहीं आता, पर राजनीति के पतीले में इनके उनके ईमान, जुबान आए दिन उबाल लाए रहते हैं। ऐसे में कह सकता हूं कि मेरे पतीले में न सही, उनके पतीले में ही सही, हो कहीं भी बवाल, उबाल आना चाहिए।
राजनीति और जिंदगी की सडक़ पगडंडियों पर पता नहीं कौन सज्जन कब जैसे किसी के ईमान, जुबान की राह में केले खाकर छिलके फेंक दे और हंसता हुआ दुम दबाकर कोने में उसके फिसलने का बेसब्री से इंतजार करता रहे। और बंदा जब सीना तान अपने ईमान और जुबान पर लगाम लगाए बाहर निकले तो धड़ाम से फिसल जाए। अपने यहां कोई चरित्र से फिसलता है तो कोई जुबान से। कोई ईमान से फिसलता है तो कोई सत्काम से। बहुत कम ऐसे होते हैं जो मजबूरी में मेहनत मशक्कत के बाद फिसलते हैं। धन्य हैं वे जो बड़े आराम आराम से कदम कदम पर फिसलते हैं। ऐसे बड़े जीव भाग्यशाली होते हैं। इनका अवतरण फिसलने के लिए ही हुआ होता है। फिसले हुओं को समाज हाथों हाथ उठाता है। उनकी आरती उतारता है। ईमान और जुबान से फिसलने के बाद जब एक दूसरे के फिसलने की ताक में बैठे हुओं को पता चलता है कि भाई साहब! फलां फिसल लिया, तो देखते ही देखते शुरू उबाल हंगामा। बात बात पर उबाल, हंगामे, बंद के सिवा और हमें चाहिए भी क्या! रोटी कपड़ा मकान की जरूरत आज है भी किसे? दूसरी ओर फिसलने से उबाल उठने के बाद शान से मांग ली बकवास सी माफी।
साहब! गलती से ईमान से, जुबान से फिसल गया था। ईमान, जुबान से फिसलने का मेरा इरादा कतई न था और आ गए वालों की मुख्यधारा में। वैसे इन दिनों फिसलकर और ऊंचे उठने का प्रचलन जोरों पर हैं। बिन उबाल, हड़ताल, हंगामे, बंद के आज जीवन और राजनीति बिन सिंदूर के लगती है। राजनीति में मरा सांप मारा नहीं जाता। उसे घायल कर छोड़ दिया जाता है। हवा में उस पर तड़ातड़ लाठियां बरसाई जाती हैं। राजनीति में सांप मर जाए तो ल_ाधीशों का फ्यूचर क्या हो? बयानों के मोर्चों पर दिन रात तैनात रहने वालों का क्या हो? इन दिनों सबसे ज्यादा जो कोई ईमान और जुबान से आजकल फिसलने लगे हैं तो वे वेजी हैं। वे बात बात पर ही कहीं जहां फिसलने की रत्ती भर भी गुंजाइश न हो वहां भी जुबान, ईमान से फिसल जाते हैं। इनके ईमान और जुबान का फिसलना जैसे अब उनके वश में भी नहीं। ईमान, जुबान से फिसलना ज्यों इनकी राजनीतिक मजबूरी हो। मजबूरी जीव को कहां कहां नहीं फिसलवाती भाई साहब! वैसे ईमान और जुबान किसी के बस में कब रहे हैं भला? कई बार तो ईमान, जुबान की फिसलन को देखकर लगता है कि ज्यों जीव को भगवान ने ईमान और जुबान दिए ही फिसलने के लिए हों।
अशोक गौतम
ashokgautam001@Ugmail.com