असहनीय दु:ख पीढ़ियों तक मवाद बनकर बहता है; जब भी कोई छूता है, घाव हरे हो जाते हैं
सही है, इतिहास भी बताता है कि कश्मीर के महाराजा हरिसिंह के स्वभाव में अनिर्णय और असमंजस का भारी दोष था
नवनीत गुर्जर का कॉलम:
सही है, इतिहास भी बताता है कि कश्मीर के महाराजा हरिसिंह के स्वभाव में अनिर्णय और असमंजस का भारी दोष था। शेख़ अब्दुल्ला ने इसका भरपूर फ़ायदा उठाया। पहले कौमी आंदोलन और बाद में महाराजा कश्मीर छोड़ो आंदोलन के ज़रिए। गोपाल स्वामी अय्यंगार और मेहरचंद महाजन जैसे कुशल प्रशासक भी शेख़ के आंदोलन के वेग को रोक न पाए। कश्मीरी पंडितों ने कौमी फ़साद का दंश झेला है जो एक सच है। कहा जा सकता है कि इस सच से भी बड़ा है उनका दु:ख। दरअसल, आतंकवादी जो कश्मीरी पंडितों के पड़ोसी, छात्र और दोस्त थे, उन्हीं ने अपने पड़ोसियों, टीचर्स और दोस्तों का सब कुछ कत्ल कर दिया। पड़ोस में रहकर उन आतंकियों ने इतना तो समझ ही लिया था कि यहां अपना राज स्थापित करने के लिए पंडितों के सारतत्व, उनकी आत्मा को कुचलना होगा। सारतत्व यानी पंडितों के देवी और देवता, जिनकी वे पूजा करते थे। मंदिर और मूर्तियां, जिनमें वे देवी-देवता प्रतिष्ठित थे। धर्मग्रंथ, जिन्हें वे पवित्र मानते थे और उनकी बहू-बेटियां, जिनकी इज़्ज़त की जान देकर भी वे रक्षा करना चाहते थे। यही वो वजह है जिसके कारण आज 'द कश्मीर फ़ाइल्स' की सर्वाधिक चर्चा हो रही है। और अब तो दौर ही ऐसा है कि देश का हर हिंदू उन कश्मीरी पंडितों के दर्द को अपना दर्द समझ रहा है। दरअसल, सत्ता या सरकार में बैठे लोग जब आम आदमी का दर्द नहीं समझते, तो वो इसका इलाज किसी दु:खभरी फ़िल्म या दास्तान या कहानी में ढूंढते हैं। वही आज हो रहा है। बात केवल कश्मीरी पंडितों की नहीं है, विभाजन के वक्त भी लोगों ने यही सबकुछ देखा था और भोगा था। ख़ासकर पंजाबी, सिंधी और पूरे समाज ने विभाजन के दंश को झेला था। उनकी बहू-बेटियों को वे उठा ले गए थे। उनके खेत-खलिहान मुंह बाए अपने मालिकों की राह तकते रहे। उनके भरे-भराए घर पीछे छूट गए। वे खेत जो कभी मकई के भुट्टों और गेहूं की बालियों से महकते थे, खून से लथपथ पड़े थे। उनकी गाएं अपने खूंटों से बंधी रंभाती रहीं।… पर कोई नहीं आया। उनका दर्द बांटने। उनके हालात जानने। क्या कोई सरकार, क्या सरकार में बैठा कोई व्यक्ति इतना निष्ठुर हो सकता है? लोगों ने जो मंज़र देखा, वह कभी न ख़त्म होने वाली कहानी की तरह था। फ़साद फड़फड़ा रहा था। लोग रातोरात भागते और गांवों, शहरों की सीमा पर मारे जाते। वे बीसियों कोस चलते रहने के बाद मरे हुए मिलते। पहाड़ जैसा दु:ख और उसे बांटने के लिए कोई नहीं! आंसू तो निकलेंगे ही। पीढ़ियों बाद ही सही। दु:ख तो दु:ख है। उसकी भला कौन-सी दवा होती है? 'पिंजर' की पगली को ही पढ़ लीजिए! पगली इतनी भयानक थी कि उसके गली में आते ही स्त्रियां दौड़कर अपने बच्चे छिपा लेती थीं। बालों की उलझी हुई, धूल सनी लटों से जान पड़ता था जैसे जब से जन्मी, वो नहाई नहीं थी। सूखे हुए, जले हुए शरीर से उसकी आयु का अनुमान लगाना मुश्किल था। बस, हाड़-मांस का एक जीता-जागता पुतला था। जुनून देखिए कि उस पुतले से भी किसी ने दुश्मनी निकाली। पगली को गर्भवती बना दिया गया। मांस का एक लोथड़ा भर था, जिसे अपनी भी सुध नहीं थी… केवल हड्डियों का ढांचा… गिद्धों ने उसे भी नोंच-नोंचकर खा लिया… सोच-सोचकर स्त्रियां थक जातीं। एक दिन गांव बाहर पगली एक बच्चे को जन्म देकर मर गई। पूरो उस बच्चे को अपना बच्चा मानकर पालने लगी। जूनून की हद देखिए कि जिस समाज ने उस पागल ढांचे को पशुता की भी हद करते हुए गर्भवती बना दिया था, वही धर्म का ठेकेदार बनकर सामने आया और दूसरी क़ौम की महिला पूरो से वह बच्चा छीन ले गई। जिस पूरो ने जीरा फांक-फांककर अपनी नसों में दूध उतारा था, वही पूरो बच्चे के लिए बिलखती रही, पर किसी ने एक नहीं सुनी। दु:ख यह होता है और इसीलिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी रेंगता रहता है।
तीस बरस में कश्मीरी पंडितों के दु:ख पर कई फ़िल्में बनी हैं। लेकिन कभी इतनी चर्चा, इतनी बहस नहीं हुई। अब हो रही है तो इसमें कोई हर्ज भी नहीं है। होनी ही चाहिए ताकि आंखों को निचोड़ने का हौसला आ जाए। ताकि सारा दर्द बह निकले।