कोरोना की दूसरी लहर पारिवारिक आत्मीयता को निगल रही
अभी पिछले ही साल देशव्यापी लॉकडाउन के बाद खूब चर्चा हुई थी कि इस कोरोना ने परिवारों की संयुक्तता को जोड़ने का काम किया है। पुरानी और नई पीढ़ी के बीच संवाद की कड़ी मजबूत हुई है। मसलन आपसी रिश्तों की नई इबारत लिखी गई है। हमारी रसोई तक आयुर्वेद की प्रयोगशाला बन गई है। कुल मिलाकर हम अपने पारिवारिक ओर सामाजिक संबंधों की कड़ी को मजबूत बनाने में कामयाब होते दिख रहे थे, लेकिन 2021 की इस दूसरी लहर ने हमारे इस भरोसे को तोड़ दिया। भरा-पूरा परिवार है, परंतु कोरोना संक्रमण से जुड़ी मृत्यु लावारिस होने का लिबास ओढ़ रही है। यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि अब यह बीमारी पारिवारिक आत्मीयता को भी निगल रही है। कई ऐसे उदाहरण सामने आए हैं कि जहां मौत को कंधा देने के लिए चार लोग भी मयस्सर नहीं हुए।
एक वायरस का संक्रमण समूचे परिवार पर भारी पड़ रहा
सच यह है कि समूची वैश्विक धरती को अपना कुटुंब मानने वाले देश में एक वायरस का संक्रमण समूचे परिवार पर भारी पड़ रहा है। हमारे परिवार की संयुक्तता को यह महामारी इतनी तेजी से अकेला कर देगी, इस तथ्य को लेकर समाज-मनोविज्ञानी तक अचंभित हैं। सही बात तो यह है कि निजता के इस दौर में मानव से एक नितांत अकेला व्यक्ति होने की परंपरा का हम खुद ही अनुकरण कर रहे हैं। विगत दो दशकों में हमने एकल होकर अपनी निजता और आजाद होने पर ज्यादा ध्यान दिया। हमने सोचा था कि मासिक पगार के बड़े-बड़े पैकेज, पांच सितारा भवन और बड़ी-बड़ी चमकदार गाड़ियां होने से कोई बीमारी हमें नहीं सताएगी।
अमीर-गरीब और युवा-बुजुर्ग कोविड महामारी की चपेट में आ रहे हैं
इसी को देखते हुए हमने अपनी निजी शर्तों पर एकल जिंदगी जीना शुरू कर दिया। उसका परिणाम यह हुआ कि व्यक्ति परिवार के वृहद संकुल से निकलकर हाशिये पर आ गया। वह भूल गया कि समाज हमारी जरूरत भी है। वह भूलता चला गया कि कभी ऐसी बीमारी आने पर उसे अपने स्वजनों की भी सख्त जरूरत पड़ेगी। कोविड महामारी मुंह देखकर नहीं आ रही है। बड़े-छोटे, अमीर-गरीब और युवा-बुजुर्ग, सभी समान रूप से इसकी चपेट में आ रहे हैं। तमाम लोगों के स्वजन इस बीमारी में उनसे छिटक गए और वे दुख से उबरते हुए खुद के बचाव का रास्ता तलाश कर रहे हैं।
महामारी से लड़ने में संसाधनों की कमी के पीछे संवेदनहीनता और मुनाफे की प्रवृत्ति जिम्मेदार
कड़वी सच्चाई यह है कि कोविड महामारी के रूप में देश में इस समय एक जैविक युद्ध सा चल रहा है। इस महामारी से लड़ने में देश में संसाधनों की इतनी कमी भी नहीं है, जितनी दिखाने की कोशिश जारी है। कहीं न कहीं इस पूरे परिदृश्य में हमारी संवेदनहीनता और मुनाफे की प्रवृत्ति भी किसी हद तक जिम्मेदार है। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार पूरे प्राणपण से ढांचागत संसाधन जुटाने में लगी है, लेकिन आक्सीजन की कालाबाजारी, इंजेक्शन और कोरोना से जुड़ी दवाइयों एवं यंत्रों का असीमित संग्रहण, यहां तक कि कफन तक की चोरी के लिए क्या समाज में ऐसे लोगों का बहिष्कार नहीं किया जाना चाहिए? लगता है देश में फैली इस महामारी के समय इन मुनाफाखोरों की आत्मा मर चुकी है। निश्चित ही महात्मा गांधी की तर्ज पर सरकार के पास लोगों की जरूरत के लिए सभी कुछ है, परंतु लोगों की लालच का इंतजाम करना किसी भी सरकार के लिए बहुत मुश्किल है। ध्यान रहे सरकार भी इसी समाज का हिस्सा है। यह आपकी चुनी हुई सरकार है। देश और सरकार की एक-दूसरे से पारस्परिक अपेक्षाएं हैं। हमने पहले भी जनता के सहयोग से कई बार ऐसे संक्रमण से संघर्ष किए हैं। इस बार का संघर्ष थोड़ा बड़ा है, लेकिन इतना बड़ा भी नहीं है कि उसे आमजन के सहयोग से जीता न जा सके।
हम कोरोना महामारी से लड़ेंगे और जीतेंगे भी
अमेरिकी समाजशास्त्री अमिताई एजियोनी के अनुसार समुदायों में आज भी नैतिक रूप से साझी भलाई को बढ़ाने की ताकत है। इस मत के अनुसार इस समय राष्ट्रीय समुदाय को सारे वाद से विरत रहने की जरूरत है। इसके लिए हम सभी को जिजीविषा और साहस के साथ अपनी पूरी सामुदायिक ताकत लेकर सरकार के साथ उठ खड़े होने की महती आवश्यकता है। यह भाव सभी में उभरना चाहिए कि हम इस मुश्किल महामारी से लड़ेंगे और जीतेंगे भी। यही भाव हमें संकट से उबरने की ताकत देगा। वास्तव में ऐसी भावना से ही हम इस संक्रमण की जैविक ताकत को अपने देश की सामुदायिक ताकत से हराने में कामयाब होंगे।