विश्व के किसी भी लोकतंत्र में ऐसा कानून नहीं जो जनप्रतिनिधियों को अपने दल का बंधक बना दे
ओपिनियन
डा. एके वर्मा। हाल में उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने दलबदल निरोधक कानून में संशोधन का आह्वान किया। 1985 में संविधान में दसवीं अनुसूची जोड़ दलबदल निरोधक कानून बनाया तो गया, लेकिन उससे अभीष्ट की अपेक्षित पूर्ति न हुई। परिणामस्वरूप सरकारें गिरती-बनती रहती हैं। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के 22 विधायकों के दलबदल से कमलनाथ की 15 माह पुरानी सरकार सत्ता से बाहर हो गई थी। 2019 में गोवा में कांग्रेस और सिक्किम में सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट के 15 में से 10 विधायकों ने अपनी-अपनी पार्टी का भाजपा में विलय कर लिया था।
राजस्थान में बसपा के सभी छह विधायक कांग्रेस में चले गए। यह क्रम चलता रहता है। जब दलबदल की समस्या जस की तस कायम है तो फिर दलबदल निरोधक कानून का क्या औचित्य? उलटे इससे जनप्रतिनिधियों की विधायी सदनों में अपने दल के विरुद्ध आवाज उठाने की स्वतंत्रता चली गई। विपक्षी दलों से समर्थन लेने का अवसर खत्म हो गया। विपक्षी सदस्यों द्वारा सरकार के अच्छे कानूनों को समर्थन देने की गुंजाइश समाप्त हो गई। लोकतंत्र एक यांत्रिक व्यवस्था में जकड़ गया।
विश्व के किसी भी लोकतंत्र में ऐसा कानून नहीं जो जनप्रतिनिधियों को अपने दल का बंधक बना दे। इंग्लैंड में पार्टी व्हिप के विरोध पर दल की सदस्यता चली जाती है, लेकिन संसद की सदस्यता नहीं जाती। आस्ट्रेलिया में भी पार्टी व्हिप का उल्लंघन करने पर सदस्यता समाप्त नहीं होती। हालांकि ऐसी स्थिति में सांसद से त्यागपत्र की अपेक्षा की जाती है। दलबदल एक राजनीतिक समस्या है और उसके विधिक समाधान की अपेक्षा करना विवेकसम्मत नहीं। राजनीतिक समस्या का राजनीतिक समाधान ही हो सकता है। इसके लिए राजनीतिक दलों को अपनी राजनीतिक संस्कृति को सुधारना होगा।
दल अपने सदस्यों को विचारधारा का सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक प्रशिक्षण दें। उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बारे में सजग किया जाए। योग्य एवं प्रतिबद्ध लोगों को राजनीति से जोड़ने पर भी जोर देना होगा। सैद्धांतिक आधार पर दलबदल में कोई समस्या नहीं। इंग्लैंड में प्रधानमंत्री बोरिस जानसन की कंजरवेटिव पार्टी के 38 सदस्यों ने 'ब्रेक्सिट' पर सरकार के विरुद्ध मतदान किया था। अमेरिका में भी डोनाल्ड ट्रंप पर महाभियोग को लेकर रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दोनों दलों के कुछ सदस्यों ने अपने-अपने दल की लीक से हटकर मतदान किया था।
दरअसल 1967 में 'कांग्रेस सिस्टम' टूटने की शुरुआत से राज्यों में गंभीर राजनीतिक अस्थिरता आई थी, लेकिन आज लोकतंत्र की जड़ें गहरी हैं। दलबदल से उत्पन्न अस्थिरता के निदान के लिए हम जर्मनी का 'रचनात्मक अविश्वास प्रस्ताव' माडल अपना सकते हैं, जिसके अनुसार संसद 'फेडरल चांसलर' को अविश्वास प्रस्ताव द्वारा तभी हटा सकती है, जब वह बहुमत रखने वाले किसी दूसरे चांसलर को भी चुने। इससे वहां एक सरकार गिरती है तो तुरंत ही दूसरी कार्यभार संभाल लेती है। यही व्यवस्था स्पेन, हंगरी, इजरायल, पोलैंड और बेल्जियम आदि देशों में है।
अक्सर राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टियां अपनी सरकार के स्थायित्व के लिए विधायकों को किसी 'रिसोर्ट' या 'आलीशान होटल' में बंधक बनाकर रखती हैं। राजस्थान में 2020 में, कर्नाटक में 2019 में और तमिलनाडु में 2017 में ऐसे ही नजारे देखने को मिले। क्या इसे कोई भी संवैधानिक या विधिक व्यवस्था रोक सकती है? वर्तमान कानून में दलबदल की अवधारणा को लेकर भी विवाद है। दलबदल कानून में स्वेच्छा से पार्टी छोड़ने या 'दलीय व्हिप' का उल्लंघन करने को दलबदल माना गया। जबकि दल विभाजन (एक-तिहाई सदस्यों द्वारा) या पार्टी विलय (दो-तिहाई सदस्यों द्वारा) को दलबदल नहीं माना गया। हालांकि 2003 में 91वें संविधान संशोधन द्वारा 'दल विभाजन' को भी दलबदल मान लिया गया, जिससे छोटे दलों में दल विभाजन के माध्यम से दलबदल पर रोक लग सके।
दलबदल कानून की प्रक्रिया पर भी विवाद है। मसलन किसी दल के सदस्य द्वारा दलबदल किए जाने पर पीठासीन अधिकारी उसका स्वत: संज्ञान नहीं ले सकता। वह तभी उस पर कोई दंडात्मक कार्यवाही कर सकता है, जब उसका दल इस संबंध में कोई अर्जी लगाए। पीठासीन अधिकारी द्वारा निर्णय को लेकर किसी समयसीमा का भी प्रविधान नहीं। बंगाल विधानसभा के अध्यक्ष बिमान बनर्जी को कलकत्ता हाई कोर्ट द्वारा आदेश दिया गया कि वह एक निश्चित तिथि तक मुकुल राय के दलबदल पर निर्णय दें, जो 2021 विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा छोड़ तृणमूल में शामिल हो गए थे। 2020 में सर्वोच्च न्यायालय ने मणिपुर के एक मंत्री को अपदस्थ कर दिया, क्योंकि विधानसभा के अध्यक्ष ने तीन वर्षो के बाद भी उनके दलबदल पर कोई निर्णय नहीं दिया।
दलबदल निरोधक कानून के कारण विधायिका और न्यायपालिका का संतुलन भी बिगड़ गया। 'किहोतो होलोहन बनाम जाचिल्हू' मामले (1992) में सर्वोच्च न्यायालय ने दलबदल निरोधक कानून के 'पैरा सात' को असंवैधानिक घोषित कर दिया, जिससे दलबदल पर संसद और विधानसभाओं के पीठासीन अधिकारियों के आदेश न्यायिक पुनर्निरीक्षण के दायरे में आ गए। इससे बेहतर यही रहता कि चुनाव आयोग की 'आदर्श आचार संहिता' में ही प्रविधान होता कि प्रत्येक प्रत्याशी शपथपत्र दे कि निर्वाचित होने के बाद वह अपने दल के प्रति निष्ठावान रहेगा और दलबदल नहीं करेगा। नैतिक निष्ठाएं संभवत: विधिक निष्ठाओं से ज्यादा प्रभावी होतीं।
दिनेश गोस्वामी समिति ने केवल 'अविश्वास प्रस्ताव' पर ही दलबदल निरोधक कानून लागू करने की संस्तुति की थी। उसके अनुसार पीठासीन अधिकारियों से दलबदल याचिकाओं पर निर्णय का अधिकार खत्म कर देना चाहिए, क्योंकि वे दलगत आधार पर निर्णय करते हैं। चुनाव आयोग इस पर अपना नियंत्रण चाहता है। कुछ लोग इसका अधिकार संघ में राष्ट्रपति और राज्यों में राज्यपाल को देना चाहते हैं। वहीं सर्वोच्च न्यायालय चाहता है कि संसद किसी न्यायमूर्ति की अध्यक्षता में एक स्वतंत्र टिब्यूनल बनाए, जो त्वरित और निष्पक्ष निर्णय दे सके।
(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)