Vijay Garg: किसी स्कूल के छोटे-छोटे बच्चे एक सुंदर झांकी के साथ जा रहे हों... उनमें सबसे आगे एक बच्ची 'भारत माता' बन कर तिरंगा हाथ में थामे चल रही हो.... उसके पीछे कुछ बच्चे महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस और 'अबला नहीं, सबला हैं हम' लिखी एक तख्ती थामे रानी लक्ष्मी बाई आदि महान विभूतियों के वेश में 'भारत माता' के जयकारे लगाते आगे बढ़ रहे हों... तो भावी पीढ़ी के इस आत्मविश्वास को देख कोई भी इंसान भावविभोर हो जा सकता है। मगर घर में टीवी पर चल रही खबरें देख कर कलेजा मुंह को आ सकता है, जिसमें यह बताया जाता है कि किसी पि ने गर्भवती पत्नी के पेट पर बैठ कर मुंह पर तकिया रख दिया और इस तरह उसकी हत्या कर दी । प्रहार इतना जोरदार था कि बच्चा गर्भनाल समेत बाहर आ गया और उसकी भी मौत हो गई । फिर इसी क्रम में अगली रोंगटे खड़ी कर देने वाली खबर आती है कि एक पूर्व सैनिक रहे पति ने अपनी पत्नी की हत्या कर दी, फिर छोटे-छोटे टुकड़े कर उन्हें कुकर में उबाल कर पास के झील में फेंक आया। सवाल है कि स्कूल के बच्चों और उनमें भी भरोसे से भरी बच्चियों की आंखों में खिली उम्मीदों के बारे में कैसे खयाल आएंगे। किसी के भी मन पर मन पर भय और आशंकाओं के बादल छा जाना और मन विचलित हो जाना स्वाभाविक है ।
निर्ममता, संवेदनहीनता और स्वार्थ की भेंट चढ़ती महिलाओं की कहानियां बदस्तूर आज भी जारी हैं। इन कहानियों ने कई बार क्रूरता की चरम सीमा देखी है और नित नए कलेवर में आपराधिक मानसिकता वाले पुरुषों के बल प्रयोग की साक्षी बन रही हैं। इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है कि किसी गर्भवती महिला के पेट पर चढ़ कर उसका पति ही गला घोंट रहा होगा तो वह स्त्री और उसके गर्भ का वह बच्चा किस स्तर पीड़ा में होंगे। सिर्फ शक के आधार पर कोई व्यक्ति ऐसा जघन्य कृत्य कर सकता है। खबरों के मुताबिक, दोनों की मुलाकात सोशल मीडिया पर हुई थी और प्रेम में आने के बाद दोनों ने विवाह किया था। तो एक आम सामाजिक धारणा और सोच के अनुसार ऐसा लग सकता है कि सोशल मीडिया पर चढ़े प्रेम के रंग में सच्चाई ही कितनी होगी और इसीलिए लड़की को यह दुख भोगना पड़ा। मगर उसी शहर में हुई दूसरी घटना के संदर्भ में देखें तो माता-पिता ने फौजी लड़का खोज कर अपनी बेटी की शादी की थी। फिर उसके लगभग दस वर्ष बाद पत्नी को मार-काट कर उबाल कर फेंक देने की घटना को किस नजरिये से देखा जाएगा ? क्या यह ऐसी पहली घटना होगी जिसमें पति का दिमाग इतना खराब हो गया कि उसने हत्या कर दी और साक्ष्य छिपाने के लिए खूब दिमाग भी लगाया ? या फिर वह स्त्री लंबे समय से घरेलू हिंसा का शिकार हो रही होगी और अपने बच्चे का मुंह देख, लोक लाज मर्यादा के भय से मौन रही होगी ?
विचित्र यह भी है कि ऐसे मामलों में लोक लाज का टोकरा भी पीड़िता के ही माथे सजाया जाता है, जिसे 'दोनों कुलों के 'लाज' को बचाए रखने के लिए मौन की घुट्टी परिवार और समाज द्वारा पिला दी जाती है। परिवार और समाज की नींद तब खुलती है, जब वह स्त्री दुनिया छोड़ चुकी होती है । उसके बाद भी वैसा कुछ उबाल देखने को नहीं मिलता जैसे किसी स्त्री द्वारा पुरुष की प्रताड़ना पर देश भर में आंदोलित मुखर प्रखर स्वरों जैसा हो । कुछ समय पहले एक व्यक्ति ने आत्महत्या करते हुए अपनी पत्नी और ससुराल पक्ष पर विस्तार से आरोप लगाया था, तब उसके लपेटे में पूरे स्त्री समाज को लिया गया। यही नहीं, इस घटना के हवाले से स्त्री को सशक्त करते देश के संविधान की कुछ धाराओं को भी कठघरे खड़ा करने की कोशिश हुई।
इसमें कोई दोराय नहीं कि हाल के दिनों में कुछ मामलों में पुरुष भी पीड़ित नजर आए हैं। दहेज के झूठे आरोप, तलाक के क्रम में मोटी रकम देने की वजह से मानसिक और भावनात्मक प्रताड़ना भी झेलते दिखे हैं। मगर अव्वल तो ऐसी घटनाओं की संख्या आज भी कम है, दूसरे ऐसी कई हिंसा की घटनाएं हैं, जिनकी पीड़ित स्त्री ही रही है। इतने प्रगतिशील समाज में तथाकथित रूप से 'चालाक स्त्रियों' के समाज में आज भी अकेले दहेज से रोज कम से कम बीस हत्या हो रही है। भारत के सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की ओर से जारी रपट में राष्ट्रीय अपराध नियंत्रण ब्यूरो के आंकड़ों का अध्ययन किया गया था। उसके मुताबिक, 2016 से 2021 के बीच देश में महिलाओं के विरुद्ध अपराध की 22.8 लाख घटनाएं दर्ज की गईं और इनमें से सात लाख घटनाएं घरेलू हिंसा से संबंधित थीं। यानी तीस फीसद मामले पति और उसके परिवार द्वारा हिंसा के थे। इसमें मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक प्रताड़ना के आंकड़े शामिल नहीं है। ये आलम सरकारी आंकड़ों का है। दूरदराज के गांवों में कई निर्मम घटनाएं होंगी, जो पुलिस तक पहुंचाई भी नहीं जातीं। गरीब इलाकों में या तो कुछ ले-देकर लड़की के पक्ष को चुप कर दिया जाता है या लड़की पक्ष घर-परिवार की दूसरी लड़कियों के विवाह में आशंकित अड़चनों के भय से मुकदमा दर्ज करा कर किसी कानूनी पचड़े से बचते नजर आते हैं।
स्वीकार्यता की देहरी पर इतना घुप्प अंधेरा हो गया है महिलाओं की निर्मम हत्या, घरेलू हिंसा, बलात्कार जैसी घटनाओं की कसक हमारे मन-मस्तिष्क तक अब पहुंचती भी नहीं । सच यही है कि इन घटनाओं की विभीषिका और निरंतरता के हम आदी हो चुके हैं जो किसी भी सभ्य समाज के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कोर चंद मलोट पंजाब