राहतें और भी हैं
एक दिन सुबह-सुबह हमारे इलाके के बड़े पार्क में एक महान विभूति से मुलाकात हो गई। उनकी धवलकांतिमयी वेशभूषा और धीर-गंभीर व्यक्तित्व, उन्हें महापुरुष मान लेने के लिए पर्याप्त था।
राज कमल: एक दिन सुबह-सुबह हमारे इलाके के बड़े पार्क में एक महान विभूति से मुलाकात हो गई। उनकी धवलकांतिमयी वेशभूषा और धीर-गंभीर व्यक्तित्व, उन्हें महापुरुष मान लेने के लिए पर्याप्त था। संयोग से वे मेरे पास आकर बेंच पर बैठ गए। मैंने उन्हें देख कर भी अनदेखा किया। लेकिन महापुरुष मेरे क्षतिग्रस्त ललाट की लकीरों को बड़े गौर से कुछ देर निहारते रहे।
'आप लेखक हैं?'
किसी का लेखक होना क्या माथे पर लिखा होता है? सोचते हुए मैंने समर्थन में सिर हिला दिया।
'क्या पत्रिकाएं आपकी रचनाएं छापने में रुचि नहीं लेतीं?' मैंने फिर हां में अपनी मुंडी हिला दी।
'क्या प्रकाशक आपकी पुस्तकें छापने में आनाकानी या मनचाही शर्तों पर अनुबंध करते हैं? वे आपको रायल्टी भी नहीं देते? और… ' मैं उनके प्रश्नों से झल्ला गया और जोर देकर कहा, 'हां भई, हां! आप मुझे पका क्यों रहे हैं?' झुंझलाहट में मैंने शिष्टाचार भी भुला दिया।
उन्होंने बुरा नहीं माना। वे मुस्कराए और गुरु-गंभीर वाणी में बोले, 'नहीं, क्रोध नहीं! आपका ब्लड प्रेशर बढ़ जाएगा। घबराओ मत, हौसला रखो। जैसे हर मर्ज की दवा होती है, आपकी समस्या का भी समाधान है।
केवल मांग और आपूर्ति के सिद्धांत ने आपको बेचारा बना दिया है। बस, कंट्रोल की आवश्यकता है… बताता हूं। आजकल हर ऐरा-गैरा, छोटा-बड़ा लेखक रचनाओं की टोकरी उठाए प्रकाशकों के दरबार में फेरी लगा रहा है। सोशल मीडिया के सभी प्लेटफार्मों पर भी रचनाओं की असीमित गाड़ियां शंटिग कर रही हैं। यानी आपूर्ति, मांग से अधिक है। इसलिए उपभोक्ता यानी व्यापारी अपनी शर्तों पर उत्पाद चाहता है। लेकिन मांग बढ़ाने का एक उपाय है।
मैं चौकन्ना हो गया। पुलकित भाव से पूछा, 'वह क्या है महाप्रभु!'
'आप लिखना छोड़ दो।' उन्होंने तटस्थ भाव से कहा। मैंने उन्हें घूर कर देखा।
'जानता हूं, ऐसा करना कठिन कार्य है। लेखन का जो कीड़ा आपके भीतर घुसा है, वह आसानी से निकलेगा नहीं। शायद न भी निकले। ऐसा करो, कुछ समय के लिए उसे छेड़ो मत, सुप्तावस्था में रहने दो। अपना रास्ता बदल लो। अब आप लेखन कक्ष में न जाकर, रसोईघर का रुख करो और खाना पकाओ।'
वे मुस्कराए, 'आप शायद मुझे मन ही मन गाली दे रहे होंगे। खैर! कोई बात नहीं। उपाय को धैर्य से समझने की कोशिश करो- लेखन और भोजन, दोनों का लक्ष्य एक है। जब मंजिल एक है, तब रास्ता जो भी हो, क्या फर्क पड़ता है! संधान तो आनंद प्राप्ति का ही है। समझाता हूं- जैसे आप एक कहानी लिखते हैं, वह पाठकों के दिलो-दिमाग की खुराक है। जिससे उनका मन आनंदित और स्वस्थ होता है। आपने सुना होगा- किसी के दिल तक पहुंचने का एक रास्ता पेट से भी जाता है। आपका बनाया भोजन खाकर परिजनों का मन तृप्त होगा, आत्मा प्रसन्न होगी और शरीर स्वस्थ होगा। एक प्रचलित कथन यह भी है- स्वस्थ शरीर में ही सवस्थ मन का वास होता है।
इस प्रकार आपका सरोकार पूरा हो जाएगा। दूसरी ओर, लेखन का उत्पादन कम होने से बाजार में मांग बढ़ेगी और तब आपकी स्थिति व्यापारी से मोलभाव करने की होगी। इस उपाय के अतिरिक्त लाभ भी बहुत हैं- आपकी भार्या आपसे बहुत प्रसन्न रहेगी। पाणिग्रहण में दिए वचनों में से एक वचन निभा लेने का श्रेय आपको मिलेगा। पत्नी आपकी सभी मूर्खताओं को दरकिनार कर सदैव आपके वश में रहेगी।' अपनी दंतपंक्तियों की बिजली-सी चमकार के साथ महापुरुष खुल कर मुस्कराए।
उनका सुझाव भा गया। उन्हें सादर प्रणाम करके मैंने विदा ली। उनके उपाय पर अमल शुरू किया। खाना पकाना आता नहीं था, लेकिन यह भी किसी परम ज्ञानी संत ने कहा है, 'करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान'। इसी लीक पर चल कर रसोईघर से मेरा संबंध प्रेमिका जैसा हो गया। मजे की बात यह कि खाना बनाने में उतना ही आनंद आने लगा, जितना कि कहानी लिखने में। वैसा ही मजा चित्र बनाने में है।
रसानुभूति भी वैसी ही होती है, जैसी मनपसंद संगीत सुनने में। वही रागात्मक भाव संचरित होता है, जैसा अपनी सहचरी से बतियाते हुए महसूस करता हूं। कभी-कभी सोचता हूं, मेरी रचनात्मकता- लेखन और चित्रकला, कहीं पाक कला से बाधित तो नहीं हो रही? या मैं उससे बचने का बहाना रसोईघर में तलाश रहा हूं? मगर जब मैं गुजरे वक्त का हासिल देखता हूं तो आश्वस्त हो जाता हूं कि यह बिल्कुल सच नहीं है। क्योंकि पाक कला की सोहबत में रहते हुए मैं जीवनयापन के लिए चित्रकारी भी करता हूं।
बेशक! मेरे लेखन की गति धीमी जरूर है, पर कोई बात नहीं, मैं खुश हूं। मैंने उस महापुरुष का परामर्श आत्मसात करके राहतें तलाश ली। खैर, जो भी हो, पर मन की बात यह है कि जिस काम को करने में लुत्फ आए, बशर्ते उससे किसी का अहित न हो, उसे बेधड़क कर गुजरने में कोई हर्ज नहीं।