जिंदगी का गणित

Update: 2025-02-09 12:57 GMT
Vijay Garg: लंबे समय से देश में इस बात को लेकर गंभीर विमर्श होता रहा है कि स्कूल-कालेजों में शिक्षा का स्वरूप जीवन के व्यावहारिक ज्ञान पर आधारित होना चाहिए। अकसर देखने में आता है कि हम शैक्षिक पाठ्यक्रम के विभिन्न विषयों में जिन गूढ़ सिद्धांतों को रटते रहते हैं उसका हमारे जीवन व रोजगार से कोई व्यावहारिक सरोकार नहीं दिखता। यही वजह है कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इस बात पर विशेष बल दिया गया कि शिक्षा पद्धति रटने वाली होने के बजाय संवादात्मक शिक्षण पर आधरित हो। जो वास्तविक ज्ञान सीखने पर बल दे। जिससे पढ़ाई पूरी करने के बाद छात्र स्कूल-कालेजों में अर्जित ज्ञान को वास्तविक जीवन स्थितियों में उपयोग कर सकें। जिससे छात्र अपने जीवन में आत्मविश्वास के साथ दुनिया का सामना करने के लिये तैयार हो सकें। नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो द्वारा तैयार किए गए और हाल ही में चर्चा में आए एक अध्ययन का निष्कर्ष बताता है कि छात्रों को दैनिक जीवन में काम आने वाले व्यावहारिक गणित के ज्ञान में पारंगत होना चाहिए। जैसा गुण बाजार में काम करने वाले भारतीय बच्चों में देखने में आता है।
अकसर महसूस किया जाता है कि कक्षाओं में पढ़ाया जाने वाला गणित जीवन व्यवहार में काम नहीं आता। दूसरे शब्दों में कहें तो सीखने की सहज और औपचारिक शैलियों के बीच एक बड़ा अंतर पाया जाता है। जो इस बात पर बल देता है कि पाठ्यक्रम में सुधार करके इस खाई को पाटने का अविलंब प्रयास किया जाए। यह निर्विवाद सत्य है कि दुनिया भर में कम आय वर्ग वाली पृष्ठभूमि वाले स्कूली बच्चों के लिये गणित जैसे विषय में महारत हासिल करना एक चुनौती होती है। बल्कि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो उनमें गणित को लेकर एक फोबिया जैसा होता है। कमोबेश भारतीय बच्चे भी इसका अपवाद नहीं हैं। यही क्रम पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है। लेकिन इस विसंगति की तह तक जाने के लिये कोई गंभीर पहल नहीं हो पायी।
वहीं दूसरी ओर देश में लाखों बच्चे ऐसे हैं जो गरीबी और विषम पारिवारिक परिस्थितियों के कारण स्कूलों का मुंह नहीं देख पाए। जिसके चलते पारिवारिक मजबूरियों के कारण उन्हें छोटे-मोटे काम करने के लिये बाध्य होना पड़ता है। मसलन फेरी लगाना या सड़कों के किनारे छोटा-मोटा सामान बेचने का कार्य उन्हें करना पड़ता है। अध्ययन बताता है कि वे बिना किसी सहायता के पलभर में जटिल गणितीय गणनाएं कर सकते हैं। दरअसल, स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले अमूर्त गणित को समझना छात्रों के लिये खासा कठिन होता है। वहीं दूसरी ओर विरोधाभास यह है कि इन छात्रों के स्कूल जाने वाले, जो साथी गणित में उत्कृष्ट होते हैं, वे व्यावहारिक जीवन में बुनियादी गणनाओं को करने में अकसर विफल ही साबित होते हैं। वहीं दूसरी ओर देश में शिक्षा की वार्षिक स्थिति वाली रिपोर्ट यानी एएसईआर-2024 से पता चलता है कि सरकारी और निजी स्कूलों में छह से चौदह वर्ष की आयु के बच्चों में अंकगणित के स्तर में सुधार हुआ है। निस्संदेह, इसे एक अच्छा संकेत माना जाना चाहिए। लेकिन वास्तव में जरूरत इस बात की है कि छात्रों को पाठ्य पुस्तकों से आगे बढ़ने और जीवन की गणनाओं में उनके व्यावहारिक कौशल को निखारने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। निश्चित रूप से ऐसा कोई भी प्रयास नई शिक्षा नीति के सफल क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने में मददगार हो सकता है, जो व्यावहारिक शिक्षा दिए जाने की जरूरत पर बल देती है।
वास्तव में ऐसा कोई भी प्रयास छात्रों को किताबी कीड़ा या परीक्षा योद्धा बनाने के बजाय स्ट्रीट-स्मार्ट बनाकर उनकी रोजगार पाने की क्षमता और योग्यता में सुधार करने में मददगार साबित हो सकता है। जैसा कि शिद्दत से महसूस किया जा रहा है कि भारत के सामाजिक और आर्थिक विकास को तेज गति देने के लिये एक कुशल कार्यबल की नितांत आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब हमारी शिक्षा पद्धति समय के साथ कदमताल करेगी। देश को आत्मनिर्भर और विकसित बनाने के लिये रोजगारपरक शिक्षा अनिवार्य शर्त है। जिसका आधार व्यावसायिक व गुणात्मक शिक्षा ही हो सकती है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्राचार्य शैक्षिक स्तंभकार गली कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
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