विजय गर्ग: आजकल की भागदौड़ भरी दुनिया में मानसिक समस्याएं बड़ी तेजी से लोगों को अपना शिकार बनाती जा रही हैं। इसका प्रभाव इतना तीक्ष्ण होता है कि इससे न तो कोई देश बचा है, और न ही कोई राज्य कटु सत्य है कि इसके घातक प्रभाव से अछूता आज न तो कोई गांव है, न कोई शहर और न ही कोई गली-मोहल्ला इसका शिकार बच्चे, किशोर, बड़े-बजुर्ग, स्त्री और पुरुष सभी हो रहे हैं, लेकिन आंकड़ों की बात करें, तो विशेष रूप से, बच्चों और किशोरों में यह समस्या अब कुछ ज्यादा ही जटिल होती जा रही है। इसके कारण बच्चों की मासूमियत खत्म होती जा रही है। उनकी फूल-सी मुस्कुराहट कहीं खो रही है। वे बेहद गुस्सैल होते जा रहे हैं। वे बात-बात पर क्रोध करने लगे हैं। यहां तक कि अपने माता- पिता और अभिभावक पर हमले करने से भी वे नहीं चूकते। ऐसे में उनके माता-पिता को यह समझ में नहीं आता कि जो बच्चे कुछ महीने, साल पहले तक मासूमियत से भरे बिल्कुल सामान्य व्यवहार वाले थे, हर पल खेलते- कूदते, हंसते-मुस्कराते, गाते गुनगुनाते और आयु के अनुरूप शरारतें करते रहते थे, आखिर क्या कारण है कि 5 अचानक उनका व्यवहार इस प्रकार बदल गया कि वे उन्हें बिल्कुल सुनना और मानना ही नहीं चाहते।
विडंबना है कि खेलने-कूदने और खाने-पीने की आयु में देश के बच्चों और किशोरों में बेचैनी, अवसाद तथा मानसिक तनाव जैसी समस्याएं अब गंभीर होती जा रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) और संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) की 'मेंटल हेल्थ आफ चिल्ड्रन एंड यंग पीपल' नामक ताजा रपट के मुताबिक दुनिया दस से उन्नीस वर्ष का प्रायः प्रत्येक सातवां बच्चा किसी न किसी मानसिक समस्या से जूझ रहा है। इन समस्याओं में अवसाद, बेचैनी और व्यवहार से जुड़ी समस्याएं शामिल है। एक अनुमान के मुताबिक मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी लगभग एक तिहाई समस्याएं 14 साल की उम्र से पहले शुरू हो जाती जबकि इनमें से आधी समस्याएं 18 वर्ष से पहले सामने आने लगती हैं। तात्पर्य यह कि जब हमारे मासूम बाल्यावस्था से किशोरावस्था की ओर कदम बढ़ाना आरंभ करते हैं, सामान्यतया उसी दौरान मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी अलग-अलग समस्याएं उन्हें अपना शिकार बनाना शुरू कर देती हैं।
यूनिसेफ की एक रपट के अनुसार भारत में सात में से एक बच्चा अवसाद का शिकार है। आंकड़ों की बात करें, तो | देश के 14 फीसद बच्चों का मानसिक स्वास्थ्य खराब है। इसी प्रकार, 'इंडियन जर्नल आफ साइकिएट्री' में वर्ष 2019 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार भारत में पांच करोड़ से अधिक बच्चे मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं से जूझ रहे थे। इनमें से था ज्यादातर बच्चे तनाव, चिंता और अवसाद का सामना कर रहे थे।
यूनिसेफ के एक अनुमान के मुताबिक कोरोना महामारी के बाद ये आंकड़े पहले की तुलना में कई गुना तक बढ़ गए हैं। डब्लूएचओ के आंकड़े बताते हैं कि पूरी दुनिया में 30 करोड़ से भी अधिक लोग चिंता और तनाव से जूझ रहे हैं। कोई 28 करोड़ लोग अवसाद का सामना कर रहे हैं। विज्ञान पत्रिका 'द लॅसेट' में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार आस्ट्रेलिया में 75 फीसद किशोर तनाव- चिंता और बेतहाशा अवसाद से जूझ रहे हैं। वहीं, दस से 18 वर्ष की आयु के 64 फीसद वयस्कों को तीन से अधिक बार खराब मानसिक स्वास्थ्य का दंश झेलना पड़ा है। विशेषज्ञों के अनुसार किशोरावस्था के दौरान लड़के-लड़कियों में कई प्रकार के हार्मोन में और शारीरिक बदलाव होने के कारण उनकी सोच और व्यवहार में बदलाव आता है। इनके अतिरिक्त उसी दौरान लड़के-लड़कियों को बोर्ड परीक्षाओं और करिअर को लेकर विषय चुनने जैसे दबावों और ऊहापोह वाली परिस्थितियों से भी गुजरना पड़ता है।
ऐसे में, अगर उन्हें घर और विद्यालय में सहयोगी परिवेश नहीं मिले तो ये दबावों और ऊहापोह वाली परिस्थितियां प्रायः तनाव-चिंता और अवसाद का रूप ले लेती हैं। इसी प्रकार, जो बच्चे नियमित पढ़ाई-लिखाई नहीं करते, वे परीक्षाएं नजदीक आने पर अक्सर दबाव में आ जाते हैं।
वहीं, मनोचिकित्सकों का मानना है कि आजकल बच्चों में विफलताओं से निपटने की क्षमता कम होती जा रही है। कभी-कभी यह आनुवंशिक भी हो सकता है। इतना ही नहीं, हमारी प्रतिदिन की आदतों में शामिल हो चुके फास्ट फूड, शीतल पेय और सोशल मीडिया जैसे तत्त्व भी अवसाद का कारण बन रहे हैं। वर्ष 2024 में नेशनल लाइब्रेरी आफ मेडिसिन (एनएलएम) में प्रकाशित एक अध्ययन में यह बात सामने आई थी कि 'अल्ट्रा प्रोसेस्ड और फास्ट फूड' खाने से व्यक्ति तनाव और का जोखिम कई गुना बढ़ जाता है, जिसका सबसे अधिक खतरा वयस्कों होता 18. क्योंकि फास्ट और अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड के सबसे बड़े उपभोक्ता भी वही हैं। ऐसे ही, एनएलएम में 2022 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार चीनी से बने पदार्थ या 'ड्रिंक्स' का सेवन भी किशोरों के खराब मानसिक स्वास्थ्य की बड़ी वजह बन रहा है। जाहिर है कि 'एनर्जी ड्रिंक' या कोल्ड ड्रिंक के नाम पर मिल रहे इस प्रकार के पेय अवसाद का कारण बन सकते हैं। विज्ञान पत्रिका 'फ्रंटियर्स' में 2023 में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक जो किशोर प्रतिदिन सात घंटे से अधिक समय 'स्क्रीन' पर बिताते हैं, उन्हें अवसाद का शिकार बनने की आशंका अन्य की तुलना में दोगुने से भी अधिक होती है।
इस अध्ययन के मुताबिक, अगर कोई सोशल मीडिया पर प्रतिदिन एक घंटे बिताता है, तो उस व्यक्ति में अवसाद के लक्षण प्रतिवर्ष 40 फीसद तक बढ़ जाते हैं। बीएमसी मेडिसिन में 2010 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार जो लड़के-लड़कियां किसी तरह के खेल, शारीरिक व्यायाम भाग नहीं लेते, उनके अवसाद का शिकार बनने की आशंका अधिक होती है। उक्त अध्ययन में यह भी पता चला था कि प्रतिदिन घंटे शारीरिक व्यायाम से अवसाद एवं तनाव का जोखिम 95 फीसद तक कम हो जाता है। इसलिए यह कि बच्चों का खेल का समय बढ़ाने 1 और बहुत 'स्क्रीन टाइम' घटाने का हर संभव प्रयास किया जाए, लेकिन जो बच्चे पहले ही तनाव और अवसाद का शिकार बन चुके हैं, उन्हें ठीक करने के लिए तत्काल आवश्यक कदम उठाने की जरूरत है। बच्चों को व्यावहारिक बनाने, उन्हें जीवन की वास्तविकताओं से अवगत कराने और जीवन के उतार-चढ़ाव को साझा करने की भी आवश्यकता है, क्योंकि मस्तिष्क का विकास जीवन और अनुभव के साथ होता जाता है। इसके अलावा, प्रतिदिन कम से कम एक बार पूरे परिवार को एक साथ भोजन अवश्य करना चाहिए। इस दौरान मोबाइल, टीवी आदि इलेक्ट्रानिक उपकरणों से दूरी बनी रहे, क्योंकि इससे परिवार में सामंजस्य बढ़ता है। बच्चों से संबंधित शोध एवं अध्ययन करने वाला प्रसिद्ध शोध संस्थान 'मरडोक चिल्ड्रेन रिसर्च इंस्टीट्यूट' के तत्त्वावधान में किए गए इस अध्ययन में यह बताया गया है कि इन मामलों में चिकित्सीय देखभाल से अधिक जरूरत बच्चों को इन मानसिक बीमारियों से बचाने को लेकर रणनीति बनाने की है। वहीं, डब्लूएचओ एवं यूनिसेफ की 'मेंटल हेल्थ आफ चिल्ड्रेन एंड यंग पीपल' नामक रपट में बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए समुदाय आधारित माडल तैयार करने की बात कही गई है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्राचार्य शैक्षिक स्तंभकार गली कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब