बरसात ने दिल तोड़ दिया
मुंबई की बरसात ग्रामोफोन का आविष्कार करने वाले टामस अल्वा एडिसन की याद दिलाती है, जिनकी आश्चर्यजनक ‘बोलने वाली मशीन’ पर अमेरिका की आम जनता से लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति तक मुग्ध थे
अरुणेंद्र नाथ वर्मा: मुंबई की बरसात ग्रामोफोन का आविष्कार करने वाले टामस अल्वा एडिसन की याद दिलाती है, जिनकी आश्चर्यजनक 'बोलने वाली मशीन' पर अमेरिका की आम जनता से लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति तक मुग्ध थे। एडिसन के सम्मान में वाइट हाउस में एक भव्य भोज आयोजित किया गया। भोज में एडिसन के साथ बैठी महिला बहुत बातूनी थीं, जबकि एडिसन थे एक चुप्पे स्वभाव के वैज्ञानिक और अन्वेषक।
भोज के दौरान वह महिला दुनिया-जहान की बातें करती रहीं- एडिसन चुपचाप सुनते रहे। काफी देर के एकालाप के बाद अचानक अपनी बातें रोक कर वह एडिसन से पूछ बैठीं- 'आपकी बोलने वाली मशीन के बहुत चर्चे हैं। मुझे भी कुछ बताइए न उसके बारे में।' एडिसन ने मौके को हाथ से जाने नहीं दिया। बोले, 'नहीं मैडम, बोलने वाली मशीन तो मुझसे बहुत पहले भगवान बना चुका था। मैंने तो केवल ऐसी मशीन बनाई है, जिसे चुप किया जा सकता है।' एडिसन आज जीवित होते तो शायद ऐसे यंत्र का अविष्कार करने का प्रयास करते, जिसका बटन दबाने से मुंबई की बारिश कम से कम कुछ देर के लिए रोकी जा सकती। चालू करने के बाद कुदरत उसे भी तो बंद करना भूल जाती है।
चुनाव अभियान में लगे किसी नेता की तरह लगातार बड़बड़ाने वाली मुंबई की बरसात शुरू होती है, तो सांस लेने के लिए भी नहीं रुकती। रात-दिन चलने वाले मुंबई के रास्ते भले थम जाएं, लेकिन वह नहीं मानती। अंधेरी सुनसान सड़क पर देर रात किसी अकेले पथिक का बटुआ छीनने पर आमादा 'मवालियों' की तरह चारों तरफ से बह कर आने वाला बरसाती पानी रेल की पटरियों को घेर लेता है। गंदले पानी से घिरी लोकल ट्रेन हताश होकर खड़ी हो जाती है, तो पानी के बीच से कहीं-कहीं झांकती रेल की पटरी उसकी मदद नहीं कर पाने पर शरमाई-सी लगती है।
मुंबई में कौन-सा समय 'ऑफिस टाइम' नहीं होता, कहना कठिन है। फिर भी, तथाकथित 'ऑफिस टाइम' में बरसात का रौद्र रूप देख कर खचाखच भरी लोकल में ठुंसे हुए लोग चिंता में पड़ जाते हैं कि किसी तरह दफ्तर पहुंच भी गए तो घर वापस कैसे जाएंगे। पानी की विशाल चादर के बीच टापू बनी हुई 'लोकल' से सड़कों पर फंसी हुई बसों, टैक्सियों आदि के रुके हुए हुजूम दिखते हैं, तो उन्हें कुछ संतोष होता है। अपने साथ दूसरों की दुर्दशा देखकर किसे सुख नहीं मिलता?
मुंबई की नई गगनचुंबी इमारतों का कलेवर तो नवधनाढ्यों के मिजाज की तरह रंगीन ही बना रहता है, लेकिन पुरानी इमारतों की दीवारों पर जमी काई जमीन की हरियाली को आकाश तक फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। जब जमीन पर ही रास्ते नहीं दिख रहे तो आकाश के तृणसंकुल हो जाने से किसी का बिगड़ेगा भी क्या। स्थानीय अखबारों के पृष्ठों पर रोज ही कहीं न कहीं किसी पुरानी चाल के धराशायी हो जाने की खबर छपती रहती है। दोपहर बाद ताजा-ताजा छप कर आए इन स्थानीय अखबारों के पृष्ठों पर बालीवुड में नए सितारों के उभरने और भूले-बिसरे बड़े सितारों के ध्वस्त होने की खबरें जितनी बड़ी तस्वीरों के साथ छपती हैं, उतने ही बड़े आकार की होती हैं इस अंतहीन बारिश के हमले से ध्वस्त हो गई पुरानी चालों को दिखाने वाली तस्वीरें।
साथ की तस्वीरें इन चार-छह मंजिला इमारतों के मलबे के नीचे दबे हुए लोगों को खोज कर बाहर निकालने में जुटी हुई फायर ब्रिगेड की लाल गाड़ियों की होती हैं। इन ढहती-भहराती पुरानी चालों के नाम अलग-अलग होते हैं, लेकिन तस्वीरों के साथ छपने वाली खबर रोज एक जैसी ही होती है- कि उनमें रहने वालों को साल, दो साल पहले ही आगाह कर दिया गया था कि वे इमारतें कभी भी गिर सकती हैं और उन्हें खाली कराने का नोटिस दे दिया गया था। फिर यह भी बताया जाता है कि उन दड़बों में रहने वाले कबूतरों ने बजाय खुद उड़ जाने के, उस नोटिस को ही हवा में उड़ा दिया था। यानी नोटिस पाने वाले और नोटिस देने वाले दोनों अपने-अपने हिस्से का काम काफी पहले निपटा चुके थे।
इसके आगे का काम स्थानीय नेता लोगों का होता है। वे लगातार होती बारिश की परवाह किए बिना सड़कों पर आकर मुआवजे की मांग के लिए मोर्चा खड़ा करने में जुट जाते हैं। दो एक घंटे की नारेबाजी के बाद थकान मिटाने के लिए ये सड़क के किनारे किसी चाय की दुकान पर 'कटिंग चाय' की चुस्की लगाने के लिए आ जाते हैं, उधर मूसलाधार हमले करते-करते थक चुकी मुंबई की बारिश थोड़ी देर के लिए हल्की बूंदाबांदी में बदल जाती है। लेकिन न तो रात-दिन भागती मुंबई को देर तक रुकना सुहाता है, न कई दिनों तक लगातार चलने वाली यहां की बारिश को। थोड़ा-सा सुस्ता कर आसमानी बारिश और जमीनी नेता दोनों अपने-अपने काम में लग जाते हैं।