रूस-यूक्रेन के बीच छिड़ी जंग के दौरान यूक्रेन से लौटे छात्रों के भविष्य का सवाल
कर्नाटक का युवक नवीन शेखरप्पा मेडिकल की पढ़ाई करने यूक्रेन गए थे
डा. संजय वर्मा। कर्नाटक का युवक नवीन शेखरप्पा मेडिकल की पढ़ाई करने यूक्रेन गए थे। रूस-यूक्रेन के बीच छिड़ी जंग के दौरान एक दिन जब वह खाने का सामान खरीदने की लाइन में लगे थे, ठीक उसी समय रूसी सेना की गोलाबारी में उनकी मौत हो गई। शोक में गमगीन नवीन के परिवार के लिए हर सांत्वना बेहद छोटी है, लेकिन तमाम सवाल आज उन हजारों युवाओं के सामने हैं जिन्हें भारत सरकार न केवल संकटग्रस्ट यूक्रेन से हाल में लौटा लाई है। बल्कि उससे भी पहले दशकों तक दूसरी कई वजहों से इराक, सऊदी अरब, यमन, लीबिया आदि देशों से लौटते रहे युवाओं के हैं, सुरक्षित वतन वापसी के बाद जिनकी खोज-खबर लिए जाने का कोई इतिहास नहीं मिलता है। अभी की चिंताओं में शामिल यूक्रेन से लौटे मेडिकल छात्रों की शेष पढ़ाई को किसी तरह पूरी कराने का कोई सरकारी प्रबंध कितना कारगर होगा, यह भविष्य में पता चलेगा, परंतु इससे पहले तो वतन लौटे हजारों लोगों की खैर-खबर का प्राय: कोई लेखा-जोखा तक नहीं मिलता है।
फांस बेहतर जीवन की चाह की : हम कह सकते हैं कि स्वाधीनता के 75 वर्षों में हमारे देश ने कई बड़ी त्रासदियों का सामना किया है। लेकिन भारत दुनिया का अकेला देश नहीं है, जिसे विकास के क्रम में असंख्य सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कठिनाइयों का सामना किया है। पढ़ाई, रोजगार और बेहतर जीवन की चाह में अपनी जमीन से दूर एक अलग देश में अलहदा भाषा-संस्कृति के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश भी कई तकलीफदेह नतीजों के साथ खत्म हुई है। इस सिलसिले का एक पूरा इतिहास है जिसकी ताजा कड़ी युद्धग्रस्त यूक्रेन से लगभग 20 हजार भारतीय मेडिकल छात्रों को 10 मार्च 2022 को समाप्त घोषित किए गए आपरेशन गंगा के माध्यम से स्वदेश लौटा लाने की है। इन हजारों छात्रों ने भारत के मेडिकल शिक्षण संस्थानों में दाखिला नहीं मिलने की सूरत में ही यूक्रेन, रूस, आस्ट्रेलिया आदि देशों की राह पकड़ी थी। अब तक वे सारी वजहें साफ हो चुकी हैं जिन्हें रहते देश से हजारों युवाओं को तमाम विधाओं में उच्च शिक्षा की पढ़ाई के लिए विदेश का रुख करना पड़ता है।
बेहतर जिंदगी की चाह : पढ़ाई के अलावा बेहतर रहन-सहन वाली जिंदगी की चाह और खासकर रोजगार के लिए हजारों कुशल और अकुशल (स्किल्ड और नान स्किल्ड) लोग भी हर साल कोई न कोई जुगाड़ बिठाकर खाड़ी देशों के अलावा अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया समेत कई अन्य यूरोपीय देशों की राह पकड़ते रहे हैं। इन्हीं में से कुछ प्रतिशत कामयाब हुए लोगों की कहानी जब हमारे देश में लौटकर आती है, तो उनकी बेहतरीन जिंदगी किसी किंवदंती की तरह हमारा मन मोहने लगती है।
ऐसे में बहुत से दूसरे लोग भी अपने सपने साकार करने के लिए विदेश कूच का जतन करने लगते हैं। लेकिन पढ़ाई से लेकर रोजगार तक के लिए विदेश जाना एक बात है, वहां कोई समस्या पैदा होने पर उससे जूझना-निपटना दूसरी बात। ऐसे ज्यादातर मामलों में विदेश गए लोगों के लिए किसी भी तरह से वतन-वापसी करना ही सबसे अच्छा विकल्प होता है। खासकर उच्च शिक्षा के वास्ते पढ़ाई या ट्रेनिंग के लिए विदेश गए युवाओं के मामले में। ऐसा इसलिए है, क्योंकि कोई समस्या पैदा होने पर छात्रों के लिए वहां कोई आधारभूत ढांचा नहीं होता है जो उनके पांव विदेश में टिकाए रख सके।
पुनर्वास का अधूरा संकल्प : यूक्रेन से भारत वापस लाए गए 15 से 18 हजार मेडिकल छात्रों को हम इस मायने में खुश- किस्मत मान सकते हैं कि भारत सरकार उनकी अधूरी रह गई पढ़ाई को पूरी कराने के विकल्प खोज रही है। यानी उन्हें युद्ध के बीच से सुरक्षित निकालने और लौटा लाने की अहम जिम्मेदारी निबाहने के साथ ही सरकार ने अपने कर्तव्य की इति नहीं कर ली। बल्कि इससे आगे बढ़कर प्रयास है कि इन छात्रों की अधूरी पढ़ाई को संपन्न कराया जाए। इसके लिए सरकार की तरफ से फारेन मेडिकल ग्रेजुएट लाइसेंसिंग रेगुलेशन (एफएमजीई) एक्ट-2021 में बदलाव की बात कही जा रही है। इस कानून के तहत किसी भी विदेशी मेडिकल कालेज के छात्र को भारत में बतौर डाक्टर काम करने (मेडिकल प्रैक्टिसिंग) के लिए स्थायी पंजीकरण की आवश्यकता होती है। स्थायी पंजीकरण की अनिवार्य शर्त यह है कि छात्र ने विदेश में न्यूनतम 54 महीनों की शिक्षा और एक साल की इंटर्नशिप पूरी की हो। इसके बाद छात्र एफएमजीई परीक्षा को उत्तीर्ण कर भारत में प्रैक्टिसिंग के लिए स्थायी पंजीकरण प्राप्त कर सकता है। इसके अलावा यदि यूक्रेन के हालात सामान्य नहीं हुए तो वापस लाए गए छात्रों की बची पढ़ाई देश के ही किसी विश्वविद्यालय या किसी अन्य विदेशी संस्थान में दाखिला दिलाकर पूरी कराई जा सकती है।
बेशक यूक्रेन से लौटे मेडिकल छात्रों के अधर में लटके भविष्य को ऐसी नीतियों से काफी लाभ हो सकता है, लेकिन क्या यही कायदा विदेश में दूसरी पढ़ाई या रोजगार के संबंध में नहीं अपनाया जाना चाहिए। असल में, यूक्रेन का ताजा मसला इन समस्याओं की एक छोटी सी बानगी है। हालिया अतीत में ही कई ऐसे मामले हुए हैं, जहां विदेश में कोई संकट पैदा होने पर सारी सक्रियता भारतीयों को स्वदेश लाने तक सीमित रही है।
आपात स्थिति में विदेश में अपनी नौकरी, रोजगार, जमापूंजी यानी सब कुछ छोड़कर आनन-फानन स्वदेश लौटे सैकड़ों- हजारों भारतीयों के बारे में ज्यादातर यही जानकारी सार्वजनिक हुई है कि उन्हें भारत सरकार की बेमिसाल कोशिशों के बल पर सुरक्षित निकाल लाया गया। लेकिन भारत लौटने पर उनके पुनर्वास यानी उनकी जिंदगी को सिरे चढ़ाने के बारे में क्या हुआ, ये सूचनाएं तकरीबन नदारद हैं। शायद यही वजह है कि यूक्रेन में फटती मिसाइलों और बमों के बीच भी तमाम भारतीय ऐसे हैं, जो वहां अपना कारोबार या नौकरी छोड़कर वापस भारत नहीं लौटना चाहते। इसके पीछे उनकी यह समझ है कि जिस तंगहाली और बेरोजगारी के आलम में वे वतन छोड़कर पराए देश में जाकर बसे थे, वहां से लौटने पर उन्हें जीवन-यापन का कोई बेहतर तरीका नहीं मिलेगा।
इसके उलट रिवर्स माइग्रेशन की यह प्रवृत्ति कितनी तकलीफदेह हो सकती है, इसकी एक मिसाल कोरोना वायरस से पैदा महामारी कोविड के शुरुआती दौर में हमारे देश में लगाए गए लाकडाउन के दौरान मिली थी। तब जिन हजारों कामगारों और मजदूरों को अपने कामकाज के स्थानों और शहरों को छोड़कर अपने मूल निवास स्थानों की ओर कूच करना पड़ा था, उन्हें वहां पहुंचने पर कोई काम-धंधा नहीं मिला। ऐसी स्थिति में कोरोना के दौरान मिली पहली छूट में उनमें से ज्यादातर ने उन शहरों की तरफ लौटने में ही अपनी भलाई समझी, जहां से लाकडाउन के दौर में वे प्रस्थान कर चुके थे। हालांकि देश में पलटकर काम पर पहुंच जाना अपेक्षाकृत फिर भी आसान हो सकता है, लेकिन विदेश में एक बार पांव उखडऩे के बाद उसी जमीन पर लौटना लगभग असंभव ही होता है।
समुचित मानवीय दृष्टिकोण : साफ है कि विदेश में होने वाली किसी भी उठापटक के वक्त वहां पढ़ाई, नौकरी या मजदूरी करने गए भारतीयों को उनके हाल पर नहीं छोडऩे की सदाशयता के दायरे और आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। यह समझने की जरूरत है कि इन मामलों को केवल भारतीयों की सुरक्षित वतन वापसी तक सीमित रखने के बजाय इनके बारे में समुचित मानवीय दृष्टिकोण अपनाकर सुलझाने की दिशा में ले जाया जाए। यह कोई कठिन लक्ष्य नहीं है। बल्कि ऐसा आसानी से किया जा सकता है, बशर्ते हम हर भारतीय को एक मानवीय पूंजी मानें और इस पूंजी पर हर हाल में सहेजने का प्रयास करें।