असल में किसी आपदा की तरह यह जो दूसरी लहर आई, उसने हमारी एलाइड सेवाओं की पोल खोल कर रख दी। अगर प्राथमिक उपचार में दक्ष पैरामेडिकल स्टाफ सब जगह उपलब्ध होता तो संभव है कई राज्यों में मौतों का आंकड़ा इतना अधिक नहीं होता। ब्लैक फंगस की चुनौती के मूल में स्टेरायड दवाओं को बेतरतीबी से मरीजों को दिया जाना है। यह काम सहायक चिकित्साकॢमयों की देखभाल में तभी मानक अनुरूप हो सकता था, जब उन्हेंं इस तरह का पूर्व प्रशिक्षण हासिल होता। देश में एलाइड स्वास्थ्यकॢमयों के मामले में अभी तक कोई ठोस सिस्टम नही है। निजी अस्पतालों में भी ऐसे पेशेवर कॢमयों का नितांत अभाव है, जो क्लिनिकल अभ्यास से जुड़े हुए हों। फीजियोथेरेपिस्ट, टेक्निशियन, लैब असिस्टेंट, कंपाउंडर, काउंसलर, डायलिसिस एवं एनस्थीसिया टेक्निशियन, एमआरआइ, एंडोस्कोपी असिस्टेंट, डायटीशियन, एनालाइजर सहित 56 विधाएं पैरामेडीकल स्टाफ के अंतर्गत आती हैं, जो मरीज को डॉक्टरी उपचार के दौरान और सर्जरी के बाद बेहद उपयोगी होती हैं। दुर्भाग्य से भारत में इन सेवाओं के लिए कोई मानक या सतत प्रशिक्षण का तंत्र ही नहीं है। यही कारण है कि करोड़ों के चिकित्सकीय उपकरण सरकारी अस्पतालों धूल खाते रहे और कोविड मरीजों की जान जाती रही।
मोदी सरकार ने कोविड की पहली लहर के तत्काल बाद नॄसग मिडवाइफरी एवं पैरामेडिकल स्टाफ के विनियमन के लिए कानून बनाने वाले बिल पिछले संसद सत्र में पारित किए हैं। सरकार को कोसने वालों को यह भी समझना चाहिए कि 70 साल से इस देश में एलाइड यानी सहायक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए कोई नियामकीय तंत्र विकसित नहीं हुआ। दरअसल आजादी के बाद से सरकारों की प्राथमिकता में जन स्वास्थ्य और इससे जुड़ी सहायक सेवाएं थी ही नहीं। एक दूसरा पक्ष उपलब्ध सेवाओं के अधिकतम सदुपयोग का भी है। बीएससी नॄसग करने वाली नर्सों को हमने कम महत्व के कार्यों में लगा रखा है। देश में नॄसग स्टाफ के अद्यतन प्रशिक्षण की कोई मानक व्यवस्था नहीं है। फिजियोलॉजी, एनाटॉमी औऱ फार्माकोलॉजी जैसे चिकित्सकीय विषयों को पढऩे वाली नर्सें सामान्य क्लिनिकल उपचार के कार्य आसानी से कर सकती हैं, लेकिन यह हमारे देश में नहीं होता। यही भारतीय नर्सें विदेश जाकर क्लिनिकल प्रैक्टिस के आधे कार्यों में पारंगत हो जाती हैं। ब्रिटेन के नेशनल हेल्थ सिस्टम में प्रति साल एक हजार भारतीय नर्सों के लिए अलग से भर्ती होती है। ये नर्सें डॉक्टरों का आधा काम करने में कुछ ही समय में प्रवीण हो जाती हैं। भारत में इसके उलट स्थिति है। यहां एकाध प्रमोशन पाकर नर्सें रिटायर हो जाती हैं। एक विसंगति यह भी है कि सैन्य प्रशासन में स्टाफ नर्स से भर्ती महिला कर्नल तक प्रमोशन पा जाती है और आर्मी हॉस्पिटल में क्लिनिकल प्रैक्टिस का अहम हिस्सा बन जाती है, वहीं सिविल प्रशासन में वह जड़ताग्रस्त कार्य संस्कृति की शिकार बनी रहती है। वेतनमान के मामले में भी विसंगति है। तमाम नर्सें दिहाड़ी पर काम कर रही हैं, जबकि हाल में मोदी सरकार ने इन्हेंं हेल्थ एवं वेलनेस सेंटर्स पर सीएचओ यानी सामुदायिक स्वास्थ्य अधिकारी के रूप में तैनात करने का निर्णय लिया है।
कैग की एक रिपोर्ट बताती है कि बिहार, झारखंड, मप्र, उप्र, सिक्किम, उत्तराखंड और बंगाल के स्वास्थ्य केंद्रों में करीब 50 फीसद पैरामेडिकल कर्मचारियों की कमी है। जाहिर है न केवल डॉक्टरों की उपलब्धता, बल्कि सहायक सेवाकाॢमकों के मोर्चे पर भी भारत में दीर्घकालिक और मानक रणनीति की आवश्यकता है। मोदी सरकार ने इस मोर्चे पर पहली बार बुनियादी पहल की है। कोरोना काल में सहायक सेवाओं के निर्णायक महत्व को ध्यान में रखते हुए स्वास्थ्य देखरेख आयोग विधेयक को स्वीकृति दी गई है। वस्तुत: 130 करोड़ की आबादी के आरोग्य का काम केवल भौतिक संसाधन जुटाने से संभव नहीं है। इसके लिए दक्ष मानव संसाधन अपरिहार्य हैं। भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली अभी तक डॉक्टरों की प्रवीणता को प्रतिपादित करती रही है, जबकि तथ्य यह है कि एलाइड सेवाओं के बिना कोई भी पैथी प्रमाणिकता से समाज का भला नही कर सकती। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले समय में हमारी स्वास्थ्य प्रणाली का ढांचा पूरे कौशल के साथ एक समावेशी धरातल पर काम करेगा।