इतिहास को तथ्‍यों के साथ वस्‍तुनिष्‍ठ रूप में प्रस्तुत करने की प्रक्रिया

प्रश्न है कि इस इतिहास को किस रूप में और कैसे प्रस्तुत किया जाए

Update: 2022-03-28 15:53 GMT
प्रो. हिमांशु चतुर्वेदी। इतिहास किसी भी देश के विद्यार्थी के लिए, चाहे वह माध्यमिक तक इस विषय को पढ़ता हो अथवा उसमें स्नातक तक ज्ञान अर्जित करना चाहता हो, एक ऐसा विषय है जो उसके मस्तिष्क पटल पर एक गहरी छाप छोड़ता है। यह ऐसा विषय है जिसमें सामयिक शोधकार्यों के अनुसार तथ्यों और उसके प्रति नजरिये में परिवर्तन होता रहता है। यह भी सही है कि वैश्विक परिवेश के अनुसार पाठ्यक्रमों में बदलाव एक सतत प्रक्रिया है।
प्रश्न है कि इस इतिहास को किस रूप में और कैसे प्रस्तुत किया जाए। यदि भारतीय इतिहास का घटनाक्रम अपनी यात्रा में समावेशी है तो तथाकथित प्रगतिवाद का कोई भी मानक इसे अनन्यवेशी स्थापित नहीं कर सकता। परंतु भारतीय इतिहास में अनन्यवेशी तत्वों ने क्या प्रभाव डाले, यह तब तक समझ के परे होगा जब तक किसी राष्ट्र के इतिहास में यह स्पष्ट नहीं किया जाए कि एक लंबे कालखंड की राजनीतिक कोलाहल के उपरांत भी देश ने 'स्वÓ की 'निरंतरता और मूल्योंÓ को जीवित रखा, और कैसे रखा शायद यह तब तक स्पष्ट नहीं होगा जब तक देश की पीढिय़ों को 'भारत बोधÓ के मूल्य को समझने का सुअवसर उसके पाठ्यक्रम से प्राप्त नहीं हो।यदि कोई प्रगतिवाद इसको इतिहास का अंश नहीं मानता तो यह उस श्रेणी में आने वाले इतिहासकारों का अपना सोच है।
यदि हम औपनिवेशिक दृष्टिकोण और उसके अनुयायी समूह के इतिहास लेखन के मानकों पर भारतीय इतिहास लेखन और पाठ्यक्रम निर्धारण करेंगे तो यह भारतीय इतिहास और उसके पाठ्यक्रम निर्धारण में पक्षपात स्वत: उत्पन्न कर देगा। इसे सही करना इस पाठ्यक्रम निर्माण की बड़ी चुनौती दिखती है। इसी दृष्टिकोण से एलओसीएफ यानी 'लर्निंग आउटकम आधारित करिकुलम फ्रेमवर्कÓ स्नातक इतिहास के पाठ्यक्रम के तहत ऐसे ऐतिहासिक तत्वों का समावेश किया गया है जो मात्र भारतीय इतिहास के मूल आधार, एशिया महाद्वीप के उत्थान पतन और पुनरुत्थान, विश्व संस्कृतियां, काल खंडों में भारतीय सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक इतिहास लेखन की परंपराओं को संतुलित रूप से प्रस्तुत करता है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा निर्मित पाठ्यक्रम की विशेषता है कि यह समग्र रूप से भारतीय इतिहास को युवा पीढ़ी के समक्ष लाना चाहता है। तात्पर्य यह है कि भारत जैसे समृद्ध सांस्कृतिक राष्ट्र को दिल्ली केंद्रित इतिहास के रूप में ही नहीं समझा जा सकता है। देश के इतिहास की विकास यात्रा या चुनौतियों से भरी यात्रा को मात्र दिल्ली केंद्रित इतिहास सुस्पष्ट कर ही नहीं सकता। यदि देश की सांस्कृतिक इकाइयों के विकास को क्रमबद्ध रूप से समझना है तो इससे आगे जाना होगा और प्रत्येक उस क्षेत्रीय इकाई की प्रस्तुति करनी होगी जो इस देश के इतिहास को प्रभावित करने का कार्य करती है।
तात्पर्य यह है कि भारतीय इतिहास को एक क्षेत्र विशेष से परिभाषित नहीं किया जा सकता। मध्यकाल में यह पाठ्यक्रम इसी दिल्ली केंद्रित अथवा विशेष राजा या घटना केंद्रित इतिहास की प्रचलित प्रथा से प्रस्थान है। निश्चित ही भारत को समझने का यही बेहतर उपाय है। यह पाठ्यक्रम ऐतिहासिक घटनाओं के महत्व की वरीयता तय करता हुआ न्यायाधीश की भूमिका में नहीं है, न ही यह सम्राट केंद्रित है और न ही यह किसी विषय विशेष पर आधारित है।
इतिहास के पाठ्यक्रम की परिकल्पना करते समय इतिहास बोध से संबद्ध समस्याएं एवं मुद्दे मूलभूत प्रश्न हो जाते हैं। इतिहास में ज्ञान के सरोकार मूलत: ज्ञान मीमांसा अथवा ज्ञान का सिद्धांत दर्शन की वह शाखा है जो ज्ञान की प्रकृति, प्रयोजन और इससे संबंधित पूर्वधारणाएं एवं आधार बिंदु तथा ज्ञान को लेकर होने वाले दावों के सामान्य विश्वसनीयता की चिंता करती है। ऐतिहासिक ज्ञान एवं उसका न्यायोचित प्रस्तुतीकरण पाठ्यक्रम निर्माण से जुड़ी एक बड़ी चुनौती है। एक राष्ट्र के इतिहास के संदर्भ वाले मुद्दे किस तरह से वैज्ञानिक अन्वेषण एवं पूर्वाग्रह के सवालों से उलझते हैं, यह इस विधा के छात्र के लिए वाद विवाद का प्रमुख प्रश्न है। यह तभी संभव है जब युवा मस्तिष्क को समझने, अनुसंधान व विवेचन करने और राष्ट्र के वृहत्तर संदर्भों को ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया जाए। यह पाठ्यक्रम इसी प्रक्रिया को स्थापित करने का उद्देश्य रखता है, क्योंकि स्नातक स्तर के विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम का प्रारूप तैयार करते समय इतिहास के राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य को रेखांकित करने का सतर्क प्रयास करना आवश्यक है। विशेष तौर पर एशिया के पुनरुत्थान को लेकर, जिसे सभ्यताओं का उद्गम स्थल माना जाता है, विद्यार्थियों को भारत की मूलभूत संकल्पना एवं उसकी निरंतरता से परिचित कराना इस पाठ्यक्रम के महत्वपूर्ण मानक हैं।
इतिहास में भौगोलिक राजनीतिक सीमाओं का निर्माण एक अनवरत प्रक्रिया रही है। राज्य की प्रकृति निश्चित रूप से संस्कृतियों को प्रभावित करती है, और यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इतिहास में इसके सबल साक्ष्य मौजूद हैं। परंतु विश्व इतिहास इस बात का साक्षी है कि राज्य की प्रतिकूल प्रकृति के चलते अपरिवर्तनीय अवस्थाएं उत्पन्न हुई हैं जिससे अपूरणीय क्षति हुई।
स्नातक स्तर के छात्रों से अपेक्षा की जाती है कि वह राष्ट्र और राज्य की संकल्पनाओं के बीच के भेद को समझें। वह यह भी समझें कि किस तरह राष्ट्र अपने स्वरूप एवं अंतरवस्तु के साथ पूरी तरह सजीव है, जबकि राज्य के साथ ऐसा नहीं है। यह महत्वपूर्ण तथ्य निश्चित रूप से रेखांकित किया जाना चाहिए कि बिना अतीत के एक राष्ट्र नहीं हो सकता। इस अतीत की निरंतरता एवं राष्ट्र का निर्माण समकालीन शोधार्थियों के लिए एक महत्वपूर्ण बिंदु है। इसे ध्यान में रखते हुए स्नातक स्तर पर 'भारत बोधÓ शीर्षक से एक अनिवार्य प्रश्न पत्र तैयार किया गया है जो निश्चित तौर पर सभ्यता की निरंतरता एवं भारतीय इतिहास को पश्चिमी दृष्टि से समझने की अपेक्षा अपनी दृष्टि से समझने को प्रोत्साहित करेगा।
( पूर्व विभागाध्यक्ष, इतिहास, दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर )
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