समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद ने पंजाब में जो समस्याएं पैदा कीं, वही अब दूसरे राज्यों में भी फैल रही हैं

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तीन कृषि कानूनों के अमल पर अस्थायी रोक के बावजूद किसान संगठनों का अड़ियल रवैया कायम है।

Update: 2021-01-21 05:14 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तीन कृषि कानूनों के अमल पर अस्थायी रोक के बावजूद किसान संगठनों का अड़ियल रवैया कायम है। यही कारण है कि किसान संगठनों के साथ सरकार की दसवें दौर की वार्ता भी बेनतीजा रही। किसान संगठन तीन नए कृषि कानूनों को रद करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की गारंटी की मांग पर अड़े हैं। उनका सबसे ज्यादा जोर एमएसपी पर सरकारी खरीद की गारंटी पर है। इसमें दोराय नहीं कि कृषि उत्पादन बढ़ाने और किसानों को एक निश्चित आमदनी सुनिश्चित कराने में एमएसपी की अहम भूमिका रही है, लेकिन फिर एमएसपी वोट बैंक की राजनीति का जरिया बन गया। नेताओं में राजनीतिक हित लाभ के लिए ऊंचा एमएसपी घोषित करने की होड़ मच गई। यदि एमएसपी का सबसे ज्यादा फायदा पंजाब के किसानों को मिला तो उसके दुष्परिणाम भी उसे ही झेलने पड़े हैं। शायद इसी कारण किसान आंदोलन का केंद्र बिंदु भी पंजाब बन चुका है। एमएसपी की राजनीति को समझने के लिए पंजाब से बेहतर दूसरा उदाहरण नहीं हो सकता।

खाद्यान्न आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया गया

खाद्यान्न आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए किसानों को उन्नत बीजों के साथ रियायती दरों पर उर्वरकों, कीटनाशकों, रसायनों के इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित किया गया। इसके चलते पंजाब में परंपरागत फसलों को छोड़कर गेहूं-धान की खेती की जाने लगी। 1960-61 में पंजाब में गेहूं की खेती 14 लाख हेक्टेयर और धान की खेती 2.27 लाख हेक्टेयर में होती थी, जो 2019-20 में बढ़कर क्रमश: 35.08 लाख हेक्टेयर और 29.20 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गई।
रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से पैदावार में आई गिरावट

रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों आदि के अंधाधुंध इस्तेमाल से शुरू में तो पैदावार बढ़ी, लेकिन आगे चलकर इसमें गिरावट आनी शुरू हुई। उदाहरण के लिए पंजाब में 1972 से 1986 के बीच कृषि वृद्धि दर 5.7 फीसद रही जो 1987 से 2004 के बीच 3 फीसद और 2005 से 2014 के बीच घटकर महज 1.6 फीसद रह गई। एक ओर खेती की लागत बढ़ी तो दूसरी ओर उपज से होने वाली आमदनी घटी। परिणामस्वरूप किसान कर्ज के दुष्चक्र में फंसते चले गए। राजनीतिक दलों और सरकारों ने किसानों को कर्ज के दुष्चक्र से बाहर निकालने के लिए खेती को फायदे का सौदा बनाने के बजाय मुफ्त बिजली-पानी का पासा फेंका। इससे हानिकारक होने के बावजूद गेहूं-धान के फसल चक्र को बढ़ावा मिला।

पंजाब में भूजल तेजी से नीचे गिरा

पंजाब में मुफ्त बिजली के पांसे का नतीजा 14 लाख नलकूपों के रूप में सामने आया। आज पंजाब के प्रत्येक नलकूप धारक किसान को सालाना 45,000 रुपये सब्सिडी मिलती है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि पंजाब में भूजल तेजी से नीचे गिरा। भूजल की दृष्टि से आज पंजाब के 137 ब्लॉकों में से 110 ब्लॉक अति दोहित की श्रेणी में आ चुके हैं। इसके बावजूद पंजाब के किसान संगठन गेहूं-धान की सरकारी खरीद की गारंटी के लिए आंदोलन कर रहे हैं।

सरकारें गेहूं-धान की सरकारी खरीद के जरिये किसानों का वोट हासिल करना चाहती हैं

समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद ने पंजाब में जो समस्याएं पैदा की हैं, वही समस्याएं अब दूसरे राज्यों में भी फैल रही हैं, क्योंकि सरकारें गेहूं-धान की सुनिश्चित सरकारी खरीद के जरिये किसानों का वोट हासिल करना चाहती हैं। मध्य प्रदेश में गेहूं की सरकारी खरीद को मिले प्रोत्साहन का नतीजा है कि आज वह पंजाब को पीछे छोड़ते हुए पहले नंबर पर आ चुका है। 2019-20 में मध्य प्रदेश में गेहूं की रिकॉर्ड 1.27 करोड़ टन की सरकारी खरीद हुई। इसी तरह छत्तीसगढ़ सरकार ने 2020-21 के खरीफ सत्र के लिए 2500 रुपये प्रति क्विंटल के भाव से धान खरीदने का एलान किया है। गेहूं-धान को मिले सरकारी प्रोत्साहन का ही नतीजा है कि आज देश के गोदाम गेहूं-चावल से पटे पड़े हैं। 2020 के खरीफ सत्र से पहले देश में 280 लाख टन चावल का भंडार था, जो पूरी दुनिया को खिलाने के लिए पर्याप्त है।

एमएसपी के चलते किसानों ने गन्ने की खेती को दी प्राथमिकता

एमएसपी पर सरकारी खरीद के चक्रव्यूह के कारण ही किसानों ने गन्ने की खेती को प्राथमिकता दी। इसका नतीजा चीनी के बंपर उत्पादन के रूप में सामने आया। इस साल सरकार ने 600 करोड़ रुपये की सब्सिडी देकर 60 लाख टन चीनी का निर्यात किया, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी की कीमत 22 रुपये किलो है, जबकि भारत में समर्थन मूल्य पर गन्ने की खरीद से चीनी 34 रुपये किलो पड़ रही है। गेहूं, धान और गन्ने की खेती को मिली गलत प्राथमिकता का नतीजा यह हुआ कि दलहन, तिलहन और मोटे अनाजों की खेती पिछड़ती गई, जिससे उनकी पैदावार तेजी से घटी। आज जिस देश के गोदाम गेहूं-चावल से भरे पड़े हैं, वही देश हर साल एक लाख करोड़ रुपये का खाद्य तेल और दालें आयात करता है। इसी तरह सरकार हर साल आठ लाख करोड़ रुपये का पेट्रोलियम पदार्थ आयात करती है। इस भारी भरकम आयात से बचने के लिए सरकार गेहूं, धान और गन्ने से एथनॉल उत्पादन को बढ़ावा देने की नीति पर काम कर रही है। इससे एक ओर पेट्रोलियम आयात पर निर्भरता कम होगी तो दूसरी ओर गेहूं, चावल के भंडारण में होने वाले भारी भरकम खर्च से बचा जा सकेगा।

छोटे किसानों के पास अपनी उपज बेचने का नेटवर्क नहीं

सबसे बड़ी समस्या यह है कि छोटे किसानों के पास अपनी उपज बेचने का नेटवर्क नहीं है। इन किसानों की मंडी व्यवस्था तक पहुंच बनाने के लिए सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक मंडी यानी ईनाम नामक पोर्टल शुरू किया है। इसके अलावा उत्पादन क्षेत्रों को खपत केंद्रों से जोड़ने के लिए किसान रेल चल रही है, जिससे बिना बिचौलिये के किसानों की उपज सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंच रही है। केंद्र सरकार छोटे किसानों को किसान उत्पादन संगठन (एफपीओ) से भी जोड़ रही है, ताकि वे बाजार अर्थव्यवस्था से कदमताल कर सकें। इन एफपीओ को किसी कंपनी जैसी सुविधाएं मिल रही हैं। स्पष्ट है कि सरकार एक फसली खेती को बढ़ावा देने वाली एमएसपी से आगे बढ़कर बहुफसली खेती की ओर कदम बढ़ा रही है।


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