पहले जिस तरह की घटनाएं अपवाद मानी जाती थीं, वे ही अब एक नियम बन चुकी हैं

इस तरह एक छोटे-से शहर के एक साहसी जज ने पुलिस को उसकी सर्वप्रमुख संवैधानिक जिम्मेदारी याद दिलाई

Update: 2022-05-06 08:30 GMT
राजदीप सरदेसाई का कॉलम: 
'इतनी मुश्किलों से अर्जित हमारे लोकतंत्र को पुलिस-राज में बदलने की बात सोची भी नहीं जा सकती और अगर असम पुलिस ऐसा सोच रही है तो यह एक भारी भूल होगी...' यह बात बारपेटा सत्र न्यायाधीश अपरेश चक्रबर्ती ने गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवाणी को जमानत देते समय कही। उन्होंने फर्जी रिपोर्ट दर्ज करने और न्याय-प्रक्रिया को बाधित करने के लिए राज्य की पुलिस को नसीहत भी दी।
इस तरह एक छोटे-से शहर के एक साहसी जज ने पुलिस को उसकी सर्वप्रमुख संवैधानिक जिम्मेदारी याद दिलाई। इस न्यायिक आदेश के एक ही दिन बाद राजधानी के विज्ञान भवन में भारत के पॉवर-एलीट्स एकत्र हुए थे। यह मुख्य न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों की बैठक थी, जो छह वर्ष के बाद हो रही थी। इसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी.रामन ने वैधानिक प्रक्रियाओं और कार्यपालिका की क्षमताओं के बारे में चिंतित कर देने वाले प्रश्न उठाए।
लेकिन कानून के राज और आपराधिक न्याय प्रणाली के बारे में केंद्र और राज्य के राजनीतिक नेतृत्व की अरुचि का प्रश्न तो फिर भी अनछुआ ही रह गया। कार्यक्रम में अग्रपंक्ति में असम के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री हिमंत बिस्व सरमा बैठे थे। सवाल उठता है कि क्या मुख्यमंत्री की जानकारी के बिना मेवाणी जैसे विपक्ष के नेता को असम की पुलिस के द्वारा गुजरात से आधी रात को उठाकर सुदूर कोकराझार ले जाया जा सकता है? या क्या गुजरात की कानून-प्रवर्तन की एजेंसियां इससे अनभिज्ञ रह सकती हैं?
सत्ता के विरोध में एक ट्वीट करने भर पर विपक्ष के किसी नेता को सबक सिखाने के लिए पुलिस कार्रवाई करना- क्या राज्यसत्ता के दुरुपयोग का इससे बड़ा कोई और उदाहरण हो सकता है? जाहिर है, सरमा अकेले नहीं हैं। कार्यक्रम में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान भी बैठे थे। पंजाब में सत्ता ग्रहण करने के चंद ही दिनों बाद राज्य की पुलिस ने आम आदमी पार्टी के आलोचकों के विरुद्ध रिपोर्ट दर्ज कर ली।
इनमें केजरीवाल के पूर्व मित्र कुमार विश्वास भी शामिल हैं, जिन्हें गिरफ्तारी से बचाव के लिए न्यायिक संरक्षण की मांग करना पड़ी। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी वहीं मौजूद थीं, जिनकी पुलिस पर सत्ता-विरोधियों को निशाना बनाने के आरोप लगते रहे हैं। समीप ही यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ थे, जिनकी पुलिस ने आलोचना करने वाले पत्रकारों पर राजद्रोह तक के मामले दर्ज किए हैं।
कार्यक्रम में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे उपस्थित नहीं हो पाए थे, लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि उनकी सरकार कैसे अपने विरोधियों को डराने के लिए पुलिस-पॉवर का उपयोग करती रहती है। क्या केंद्र विपक्षी नेताओं के इस आरोप का जवाब दे सकता है कि राजनीतिक विरोधियों पर अंकुश रखने के लिए केंद्रीय एजेंसियों का उपयोग नहीं किया जाएगा? जिस तरह से प्रवर्तन निदेशालय पर केवल विपक्षी नेताओं को निशाना बनाए जाने का आरोप लगाया जाता है, वह तो केंद्र को आरोप के समक्ष बहुत मजबूत स्थिति में नहीं ला खड़ा करता है।
ऐसा नहीं है कि भारतीय राजनीति में यह परिपाटी नई है। नेता-पुलिस गठजोड़ एक लम्बे समय से सक्रिय रहा है। इंदिरा गांधी के शासनकाल में लगाए आपातकाल के बाद से हर सरकार ने पुलिस के सहयोग से कानून के राज की मर्यादा लांघी है। 2001 में करुणानिधि के साथ जो हुआ, वह याद कीजिए, जब द्रमुक के इस कद्दावर नेता को रात दो बजे जयललिता की पुलिस ने किसी अपराधी की तरह उठा लिया था।
मुम्बई में मुख्यमंत्री आवास के बाहर हनुमान चालीसा पढ़ने की बात कहने वाले राणा दम्पती- जो कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं- पर जैसे राजद्रोह का मुकदमा दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार किया गया, उसे ही कैसे न्यायोचित ठहराया जा सकता है? जम्मू और कश्मीर में अनुच्छेद 370 का उन्मूलन करते समय जिस तरह से स्थानीय नेताओं को बंधक बनाया गया था, उसे चुनौती देने वाली याचिकाओं पर भी अभी तक कार्रवाई नहीं हुई है।
ऐसा क्यों है कि एक टीवी एंकर को तुरंत जमानत मिल जाती है, वहीं एक अन्य पत्रकार 20 महीनों तक जेल में रहता है। दिल्ली और देश के दूसरे राज्यों में बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के जब बुलडोजर चलाए जाते हैं, तो इस पर हमारा आक्रोश क्यों नहीं भड़कता? खाकी पहनने वालों को यह याद दिलाया जाना चाहिए कि उनकी निष्ठा राजनेताओं नहीं, बल्कि संविधान के प्रति है।
क्या कोई मुख्यमंत्री ऐसा भी है, जो कह सकता हो कि उसने बदले की राजनीति से प्रेरित होकर ताकत का दुरुपयोग नहीं किया? आज कोई भी दल स्वयं को दूसरे से नैतिक रूप से श्रेष्ठ नहीं बता सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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