"एकल परिवार की चाहत में बिखरते संयुक्त परिवार गुमनाम बचपन उपेक्षाओं के शिकार बुजुर्ग"
आज अधिकतर भारतीय परिवार एकल परिवार के स्वरूप बन चुके है जिनमें माता पिता और उन्के अविवाहित पुत्र पुत्रियाँ ही साथ रहते हैं। भारत में परिवार का आशय संयुक्त परिवार ही माना जाता था भारत में परिवार का आशय संयुक्त परिवार से है जिनमें दो या दो से अधिक रक्त सम्बन्धी परिवार एक साथ रहते हैं। घर से बाहर दूसरे शहरों या राज्यों में नौकरी व्यवसाय लगने के कारण एकल परिवार को तेजी से प्रोत्साहन मिले हैं। अपने भरे पुरे परिवार को छोड़कर शहर में अपनी पत्नी तथा बच्चों के साथ रहने पर वो परिस्थति वंश एकल परिवार का रूप ले लेते हैं। जिनकी मुख्य वजह गाँवों में रोजगार के अवसरों की कमी है आजीविका के लिए अपने घर को छोड़कर लोगों को बाहर निकलना पड़ रहा हैं।
21 वीं सदी के शुरूआती दौर में ही हमारे देश से संयुक्त परिवार प्रणाली का हास होना शुरू हो गया बड़े परिवार तेजी से टूटकर एकांकी परिवार का रूप लेने लगे एकल परिवार को आदर्श परिवार मानने तथा जॉइंट फॅमिली के टूटने के अनेक कारण हैं जैसे कि तेजी से टूटते संयुक्त परिवार और एकल परिवार को बढ़ावा मिलने का दूसरा बड़ा कारण आज के यूथ की संकीर्ण सोच भी जिम्मेदार हैं। शादी के बाद पति पत्नी को घर के अन्य लोगों से प्रोब्लम होनी आरम्भ हो जाती हैं। माता पिता या बडो की बात उन्हें अपने जीवन में स्वतंत्रता की सीमाएं लगने लग जाती हैं। उन्हें लगता है वे बड़े घर में रहकर मनचाहे कपड़े, मनचाहा काम और खुलकर रोमांच नहीं कर पाते है। इस तरह के संकीर्ण विचारों से प्रेरित होकर वे माता पिता से अलग हो जाती हैं और एक नयें एकल परिवार का जन्म विचारों की अपरिपक्वता से जन्म ले लेता हैं।
आम तौर पर बड़े आकार के परिवार होने के कारण घर में लड़ाई झगड़ा आम बात हैं। बड़ा परिवार होने के कारण बच्चों में बड़ो में छोटी मोटी बात पर कहासुनी हो जाती है जिन्हें अपने अपने बच्चों के माँ बाप पक्ष लेने से बात का बतंगड बन जाते हैं कई बार इस तरह की आपसी कलह एकल परिवार के जन्म की पृष्टभूमि तैयार कर देते हैं।
√एकल परिवार के चलते खो गया बचपन :– आज समाज में बच्चों की क्या स्थिति है?
आज समाज में बच्चे पीड़ित हैं, शोषित हैं, असुरक्षित हैं और माता पिता के दबाव पढ़ाई और अच्छे अंक लाने का दबाव प्रतियोगिता का दबाव आदि से पीड़ित हैं। अनेकों बच्चे तो समय से पहले ही युवा होने लगे हैं। मासूमियत की बजाए फूहड़पन बच्चों में समाहित होने लगा है इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन हैं? इसके लिए सीधे तौर पर हमारी नीतियां, हमारे कानून, अपेक्षाएं, पालन-पोषण और हमारे सपने हैं। बच्चे अपने जीवन को अपने ढंग से जीना चाहते हैं लेकिन हम अपने सपनों को उन पर लाद रहे हैं। आज बंधन किसी को भी स्वीकार नहीं है फिर बच्चों को कैसे हो सकता है। बच्चों का बचपन क्यों खोने लगा है? दरअसल, संयुक्त परिवारों का स्थान एकल परिवार ने ले लिया है। बच्चों का बचपन खोने में एकल परिवार ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। दादा-दादी, ताई-ताऊ और चाचा-चाची इन सबसे बच्चों को काफी ज्ञान मिलता है। लेकिन एकल परिवार में ये सब नहीं मिल पाते। समाजशास्त्री और मनोचिकित्सक दोनों ही क्षेत्रों से जुड़े विशेषज्ञ मानते हैं कि बच्चे की परवरिश संयुक्त परिवार यानी जॉइंट फैमिली में ही बेहतर हो पाती है।
आज के वक्त में पति-पत्नी दोनों वर्किंग होते हैं और बच्चे को मेड के भरोसे छोड़ दिया जाता है। ऐसे में बच्चा परिवार का साथ और अपनापन मिस करता है। कामकाजी दंपतियों के लिए नवजात बच्चों की परवरिश बेहद मुश्किल भरी होती है। अक्सर ऐसे लोग बच्चों की देखभाल के लिए मेड रख लेते हैं, लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक, बच्चों को अपनों का प्यार भरा स्पर्श मिलना बेहद जरूरी है। यही कारण है कि समाजशास्त्री बच्चों की देखभाल के लिहाज से संयुक्त परिवार को सबसे बेहतर मानते हैं। एकल परिवार में रह रहे कामकाजी दंपती भी मानते हैं कि बच्चा होने के बाद उसकी देखभाल के लिए उन्हें शुरुआती कई साल संघर्ष करना पड़ा। बच्चों को नानी या दादी के पास छोड़ना पड़ा या मेड रखनी पड़ी। इसके उलट संयुक्त परिवार में रह रहे कामकाजी दंपतियों को ऐसी परेशानी पेश नहीं आई। जब पति-पत्नी दोनो जॉब में हों, तो बच्चे की देखभाल जिस तरह संयुक्त परिवार के सदस्य कर सकते हैं, उस तरह मेड नहीं कर सकती।
आज बच्चे इलेक्ट्रोनिक खिलौने, मोबाइल, लैपटॉप तक ही सीमित रह गए हैं। बच्चों के विकास में सबसे बड़ी बाधा है माता-पिता का बढ़ता दबाव ही जिम्मेदार है। बच्चे अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर पा रहे हैं। माता पिता अपनी बाते ही बच्चों पर थोप रहे हैं। बच्चों पर लक्ष्य का दबाव बना दिया जाता है।
माता-पिता को अपने बच्चों को समय देना चाहिए। माता-पिता को अपने बच्चों को पढ़ाई के साथ मनोरंजन के लिए भी समय दिया जाना चाहिए। बच्चों की पीठ पर अपने लक्ष्य को नहीं थोपना चाहिए इससे बच्चों को अपने आप सोचने का मौका मिलेगा। बचपन को बचाना है। बच्चों को संस्कारवान बनाना है। बच्चों के लिए माता-पिता को समय निकलना है। बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखे, बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास होने दें। बच्चों के साथ दोस्ताना व्यवहार रखने चाहिए।
एकल परिवार एक पारिवारिक इकाई है जिसमें दो माता-पिता और उनके बच्चे शामिल होते हैं। एकल परिवार को कभी-कभी तात्कालिक परिवार या प्राथमिक परिवार कहा जाता है। एकल परिवार के कई फायदे भी हैं। एक तरफ जहाँ संयुक्त परिवार में आर्थिक बोझ में बढ़ जाता हैं कमाने वाले बहुत कम होते हैं जबकि खर्च करने वालों व खाने वालों की संख्या अधिक होती हैं। एकल परिवार के जन्म से हरेक व्यक्ति को किसी न किसी आर्थिक कार्य में संग्लन होने से जीवन जीने के साधनों और सुख सुविधाओं में वृद्धि हुई हैं। एकल परिवार के कुछ लाभ हैं वित्तीय स्थिरता, बच्चों के लिए मजबूत सहायता प्रणाली, तथा बच्चों के पालन-पोषण में निरंतरता प्रदान करना। एक नुकसान यह है कि यदि माता-पिता दोनों काम करते हैं तो बच्चों की देखभाल का खर्च बहुत अधिक होता है।
दूसरी तरफ एकल परिवार के कुछ नुकसान भी हैं। छोटे और एकांकी परिवारों के बनने से परिवार में बच्चों की देखभाल उन्हें दादा दादी आदि का प्यार नहीं मिल पाता हैं। माता पिता के काम पर चले जाने के बाद बच्चे अकेलेपन में जीवन बिताते हैं। एकल परिवारों से छोटी छोटी घटनाओं पर व्यतीत रहना, कोई सलाह देने वाला न होना, आपसी कलह पर कोई समझाइश न होने के कारण पति पत्नी के रिश्तों में दरार पड़ जाती हैं।
एकल परिवारों के बढ़ते चलन से बुज़ुर्गों की उपेक्षा हो रही है। एकल परिवार में रहने वाले बुज़ुर्गों को भावनात्मक और आर्थिक सहायता नहीं मिल पाती इससे वे असुरक्षित महसूस करते हैं।
√एकल परिवारों में बुज़ुर्गों की उपेक्षा के कारण:–
एकल परिवारों में पति-पत्नी दोनों काम करते हैं, इसलिए उनके पास बुज़ुर्गों की देखभाल करने का समय नहीं रहता आर्थिक कारणों से भी बुज़ुर्गों की उपेक्षा होती है। बुज़ुर्गों को कोई रखना नहीं चाहता। बुज़ुर्गों को अपने ही परिजनों से उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। बुज़ुर्गों को अपनापन और उचित मान-सम्मान नहीं मिलता।
√बुज़ुर्गों की अहमियत :– बुज़ुर्ग परिवार की नींव होते हैं। उनके पास जीवन के कई क्षेत्रों का अनुभव होता है। वे परिवार के लिए मार्गदर्शक और सलाहकार होते हैं। वे परिवार को मज़बूत बनाते हैं।
भारतीय संस्कृति में बुजुर्गों को अनुभवों की खान माना जाता रहा है लेकिन चिंताजनक स्थिति यह है कि बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार और उनकी उपेक्षा के मामले निरन्तर बढ़ रहे हैं। भारत में संयुक्त परिवारों के बजाय आधुनिक युग में एकल परिवारों के बढ़ते चलन के कारण भी बुजुर्गों की उपेक्षा के मामलों में वृद्धि हो रही है। हालांकि बुजुर्गों की उपेक्षा के मामले हालांकि केवल भारत तक ही सीमत नहीं हैं बल्कि विदेशों में तो बुजुर्गों की हालत और भी बुरी है लेकिन भारत के संदर्भ में यह स्थिति ज्यादा चिंताजनक इसीलिए है क्योंकि भारतीय समाज में सदैव सयुंक्त परिवार को अहमियत दी जाती रही है, जहां बुजुर्गों का स्थान सर्वोपरि रहा है। हमारे यहां दादा-दादी, माता-पिता, ताऊ-ताई, चाचा-चाची तथा कई बच्चों के साथ भरा-पूरा परिवार होता था, परिवार में बड़ों को सम्मान और छोटों को प्यार दिया जाता था लेकिन आज के बदलते दौर में छोटे और एकल परिवार की चाहत में संयुक्त परिवार की धारणा खत्म होती जा रही है, जिसके कारण लोग जहां अपने बुजुर्गों से दूर हो रहे हैं, वहीं बच्चे भी दादा-दादी, नाना-नानी के प्यार से वंचित हो रहे हैं। अकेले रहने के कारण जहां अब बुजुर्गों के प्रति अपराध बढ़ने लगे हैं, वहीं छोटे परिवारों में बच्चों को परिवार के बुजुर्गों का सानिध्य नहीं मिलने के कारण उनकी कार्यशैली पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ऐसे में दुनियाभर में वृद्धों एवं प्रौढ़ों के साथ होने वाले अन्याय, उपेक्षा और दुर्व्यवहार पर लगाम लगाने और वृद्धजनों के प्रति उदारता तथा उनकी देखभाल की जिम्मेदारी के अलावा उनकी समस्याओं के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने की सख्त जरूरत महसूस होने लगी है।
कोरोना के बाद वृद्धों की आय, स्वास्थ्य, सुरक्षा, जीवनशैली में आए व्यापक बदलाव को समझने के लिए ‘हेल्प एज इंडिया’ द्वारा एक राष्ट्रव्यापी सर्वे किया गया था, जिसमें सामने आया था कि भारत में बुजुर्ग काफी हद तक उपेक्षित और हताश हैं। सर्वे के अनुसार देश में करीब 71 फीसद बुजुर्ग किसी प्रकार का काम नहीं कर रहे और 61 फीसद बुजुर्गों का मानना था कि उनके लिए पर्याप्त और सुलभ रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं हैं। एक सर्वे के मुताबिक मुताबिक करीब 44 फीसद बुजुर्गों का मानना था कि उनके साथ सार्वजनिक स्थानों पर दुर्व्यवहार किया जाता है जबकि करीब 53 फीसद बुजुर्गों का कहना था कि समाज उनके साथ भेदभाव करता है। एक अन्य सर्वे में सामने आया था कि अपने ही परिजनों के दुर्व्यवहार के कारण 75 फीसद से भी ज्यादा बुजुर्ग परिवार में रहने के बावजूद अकेलेपन के शिकार हैं। इस सर्वे के मुताबिक 80 फीसद से भी ज्यादा बुजुर्ग अपने परिवार के साथ रहते तो अवश्य हैं किन्तु उनमें से ज्यादातर अपने ही बहू-बेटे से स्वयं को पीड़ित महसूस करते हैं। सर्वे में बताया गया कि करीब 60 फीसद बुजुर्ग महसूस करते हैं कि समाज में उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है और 57 फीसद ने अनादर, 37 फीसद ने मौखिक दुर्व्यवहार, 33 फीसद ने उपेक्षा, 24 फीसद ने आर्थिक शोषण तथा 13 फीसद ने शारीरिक शोषण झेलने की बात स्वीकार की।
बुजुर्गों में स्वास्थ्य चिंताएं, अनिद्रा, डर, हताशा, चिड़चिड़ापन, तनाव, बुरे सपने आना, मधुमेह, रक्तचाप आदि बुजुर्गों की विभिन्न समस्याओं को लेकर समाज को संजीदा होने और विपरीत परिस्थितियों में उनका संबल बनकर उन्हें बेहतर जीवन जीने के लिए सकारात्मक माहौल उपलब्ध कराने की दरकार है। वृद्धावस्था में बुजुर्ग शारीरिक रूप से शिथिल भी हो जाएं तो परिजनों का कर्त्तव्य है कि पूरे सम्मान के साथ उनका ध्यान रखा जाए। दरअसल जैसे-जैसे व्यक्ति की उम्र बढ़ती है, शरीर का रोग प्रतिरोधी तंत्र कमजोर होने लगता है और व्यक्ति को कई प्रकार की बीमारियां चपेट में ले लेती हैं। वृद्धावस्था में विभिन्न बीमारियों के अलावा आमतौर पर घुटनों तथा जोड़ों में दर्द तथा रीढ़ की हड्डी के मुड़ने जैसी समस्याओं सहित शारीरिक स्थिति में बदलाव आना सामान्य बात है। बुजुर्गों को इस तरह की समस्याओं से राहत के लिए उन्हें उचित पोषण मिलना बेहद जरूरी है। आज की आधुनिक दुनिया में बुजुर्गों के साथ ऐसे बर्ताव के बढ़ते मामलों के पीछे सोशल स्टेट्स भी प्रमुख वजह माना जाता है।
दरअसल समाज में स्वयं की हैसियत बड़ी दिखाने की चाहत में कुछ लोगों को अपने ही परिवार के बुजुर्ग मार्ग की बड़ी रूकावट लगने लगते हैं। ऐसी ही रुढ़िवादी सोच के कारण उच्च वर्ग से लेकर मध्यम वर्ग तक में अब वृद्धजनों के प्रति स्नेह की भावना कम हो रही है। हमारे बुजुर्ग ही हमारे घर की नींव और समाज की अमूल्य विरासत होते हैं, जिनके अनुभव पूरे परिवार, समाज और देश के काम आते हैं। जिस घर में बुजुर्गों का सम्मान होता है, वह घर स्वर्ग से भी सुंदर माना जाता है। इसके बावजूद बहुत से परिवारों में बुजुर्गों को निरन्तर अपने ही परिजनों की उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। ऐसे परिजनों को इस बात का आभास कराया जाना बेहद जरूरी है कि आज के युवा भी आने वाले समय में वृद्ध होंगे। कुल मिलाकर, जीवन में हम आज जो भी हैं, अपने घर के बुजुर्गों की बदौलत ही हैं, जिनके व्यापक अनुभवों और शिक्षाओं से हम जीवन में सभी प्रकार की कठिनाईयों को पार करने में सक्षम होते हैं। सही मायनों में हमारे बुजुर्ग ही हमें जीवन जीने का सही मार्ग सिखाते हैं। ऐसे में यदि बुजुर्गों को अपनापन और उचित मान-सम्मान दिया जाए, उनकी पसंद-नापसंद का ख्याल रखा जाए तो वे घर के लिए बेहद महत्वपूर्ण सिद्ध होते हैं।
आलेख©® डॉ राकेश वशिष्ठ, वरिष्ठ पत्रकार एवं संपादकीय लेखक