द कश्मीर फाइल्स के प्रशंसक सभी की 'अग्निहोत्री' परीक्षा करा रहे हैं, फिल्म देशभक्ति की एक हास्यास्पद मिसाल बन गई है
हर एक समाज की अपनी पवित्र गायें होती हैं, लोगों का मानना होता है कि
संदीपन शर्मा।
हर एक समाज की अपनी पवित्र गायें (Cow) होती हैं, लोगों का मानना होता है कि ऐसी संस्थाओं और लोगों की आलोचना की ही नहीं जा सकती. कई मायनों में, एक समाज जिस तरह की पवित्र गायों का पालन-पोषण करता है और उनकी रक्षा करता है, वह उसकी प्रकृति और संस्कृति को भी परिभाषित करता है. कुछ समाज मानवाधिकारों (Human Rights) को पवित्र मानते हैं. वे उदार, प्रगतिशील और समतावादी होते हैं. कुछ के लिए, उनका देश, इसकी संस्थाएं और इसके नेता ऐसे होते हैं जिनकी न तो निंदा की जा सकती है और न ही अपमान. अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर इस तरह का समाज या तो लोकतांत्रिक हो सकता है या फिर निरंकुश.
लेकिन, कुछ समाज इस सूची में फिल्म जैसी मामूली चीज को भी किसी तरह जोड़ने का प्रयास कर सकते हैं. वे जर्मन धर्मशास्त्री मार्टिन नियामल्लर की व्याख्या पर सही उतरते हैं. वे सबसे पहले देश की आलोचना करने वालों को अपना निशाना बनाते हैं, फिर उसके नेताओं, उसकी सेना, और उसके पवित्र गायों का बचाव करते हैं और अंत में एक गड्ढ़े में जा गिर जाते हैं जब वे केवल एक फिल्म (Film) की आलोचना करने वालों पर बरस पड़ते हैं.
ये एक नया अग्नि-होत्री परीक्षा है
यदि आप कश्मीरी पंडितों के दर्द और पीड़ा पर आधारित फिल्म द कश्मीर फाइल्स को लेकर हो रहे बवाल को नज़दीकी से देख रहे हैं तो अब तक यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि पवित्र गायों की अपनी पसंद की वजह से कौन सा समाज आज हास्यास्पद बनने की कगार पर है. द कश्मीर फाइल्स की आलोचना करने के लिए यह सही जगह नहीं है. एक फिल्म का मतलब कई लोगों के लिए बहुत कुछ हो सकता है. जिन लोगों ने इसे पसंद किया है उनकी नज़र में 1990 के दशक में घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन की इस फिल्म की व्याख्या और प्रस्तुति बेहतर रही होगी. समस्या तब आती है जब हम इसे अकाट्य विश्वास की तरह मानने लग जाते हैं.
वास्तव में एक समय था जब भारतीय यह सोचकर सिनेमाघरों में जाते थे कि वे मंदिरों के विकल्प हैं और स्क्रीन के पात्र पूजनीय देवता हैं. जब "जय संतोषी माता" रिलीज़ हुई , तो भारतीय दर्शक सिनेमाघरों को अगरबत्ती और फूल-मालाओं से भर देते थे. वे वहां उपवास और प्रार्थना भी करने लगते थे. वह 70 के दशक का एक अबोध युग था, लेकिन उस दौर में भी भक्ति के लिए कम से कम कुछ तर्क हुआ करते थे. (कि यह एक "धार्मिक" फिल्म थी).
लेकिन, आप द कश्मीर फाइल्स के प्रशंसकों और समर्थकों के उत्साह की व्याख्या कैसे करते हैं जो इसे किसी पवित्र पाठ की तरह मानने लगे हैं. "जनता की आवाज-भगवान की आवाज" के इस आधुनिक अवतार को पवित्र सिंहासन पर रखने और उसे आलोचकों से बचाने की जरूरत है? आखिरकार यह किसी दूसरी फिल्म की तरह ही है जिसके अपने प्रशंसक होते हैं साथ ही कुछ नफरत करने वाले भी. अपने आलोचकों को प्रशंसकों में बदल देने या फिर उन्हें खामोश कराने का उन्माद या इसकी आलोचना को संगठित साजिश करार देना, दक्षिणपंथी धर्मांतरणकर्ताओं द्वारा छेड़ा जा रहा नया सांस्कृतिक युद्ध बेतुका है. और मज़ाक तो द कश्मीर फाइल्स के जिहादियों का हो रहा है जो अपने देवालयों में सिर्फ एक फिल्म को शामिल करने के लिए इस घटिया स्तर तक गिर गए हैं.
द कश्मीर फाइल्स देशभक्ति के लिए एक नई अग्नि-होत्री परीक्षा है
बहरहाल, बुधवार को अरविंद केजरीवाल के आवास पर विरोध और कथित तोड़फोड़ पर विचार करें. इसके आयोजकों ने यह कहकर इसे जायज ठहराया है कि वे इसलिए नाराज थे क्योंकि केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में फिल्म का मजाक उड़ाया था. शुक्र है कि रक्तपात नहीं हुआ लेकिन ये अब खतरनाक रूप से चार्ली-हेब्दो के मामले जैसा है. साथ ही, भाजपा की युवा शाखा को यह याद दिलाने की जरूरत है कि गोएबल्स के जर्मनी में फिल्म को अपमानित करना अंतिम अपराध होता था. भारत जैसे देश में आज भी हर भारतीय का यह वैध अधिकार है कि वह किसी भी फिल्म को अच्छा या बुरा कह सकता है.
फिल्म को टैक्स फ्री करने का उन्माद भी बेतुका है. सरकार किसी व्यावसायिक फिल्म को आखिर संरक्षण क्यों दे? सिनेमा का प्रोडक्शन और इसे देखना दोनों ही स्वतंत्र इच्छा के कार्य हैं और मूल रूप से व्यावसायिक लेनदेन के रूप में माना जाता है. राज्य को इससे तब तक बाहर रहना चाहिए जब तक कि वह स्वयं इसका लाभार्थी न हो. सिनेमा के पारखी लोग अच्छे और बुरे फिल्म में फर्क जानते हैं . अगर उन्हें कोई फिल्म देखनी है, तो वे इसे किसी भी कीमत पर देखेंगे. यदि आप इस पर विश्वास नहीं करते हैं, तो एसएस राजामौली की "आरआरआर" या अल्लू अर्जुन की "पुष्पा" के लिए थियेटर में भीड़ देखें. इसलिए, केजरीवाल द कश्मीर फाइल्स को कर-मुक्त बनाने की मांग को जिस हल्केपन से लेते हैं वह सही है और फिल्म भी इसी का हकदार है.
द कश्मीर फाइल्स के भक्तों की समस्या यह है कि वे भारत पर एक झूठा बाइनरी थोपने की कोशिश कर रहे हैं. उनके नजरिए में अगर आप कश्मीरी फाइल्स के साथ नहीं हैं, तो आप पंडितों के साथ नहीं हैं. उनकी घिनौनी सोच के तहत द कश्मीर फाइल्स देशभक्ति के लिए एक नई अग्नि-होत्री परीक्षा है. पंडितों के साथ फिल्म को जोड़ना अपमानजनक है. हर भारतीय पंडितों के दर्द और सदमा के प्रति सहानुभूति रखता है. और फिल्म के जो आलोचक हैं वे राजनीतिक दुष्प्रचार के लिए त्रासदी को हथियार बनाने के विचार से सहमत नहीं हैं. वे सोचते हैं कि तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर एक ऐसी कहानी तैयार करना जो किसी खास विचारधारा के अनुकूल हो वो महज एक प्रोपागांडा ही हो सकता है. व्हाट्सएप फॉरवर्ड का फिल्मी रूपांतरण जिसे कदापि एक गंभीर सिनेमा नहीं कहा जा सकता है.
यह पंडितों की सेवा नहीं है
इस फिल्म का इस्तेमाल देश में विषाक्त बाइनरी बनाने के लिए होता है तो इससे पंडितों का अहित ही होगा. 90 के दशक के बाद से कोई भी सरकार पंडितों की घर वापसी नहीं करा सकी है. यह फिल्म सरकार की विफलता के वास्तविक मुद्दे से ध्यान भटकाता है. द कश्मीर फाइल्स के समर्थक राजनेता लोग हैं जिन्हें इस समस्या के समाधान में कोई दिलचस्पी नहीं है. उनका एकमात्र लक्ष्य चुनावी लाभ के लिए इस मुद्दे का इस्तेमाल करना है. द कश्मीर फाइल्स की शुरुआत में लड़कों के एक समूह को श्रीनगर के पास बर्फ से ढके मैदान में क्रिकेट खेलते हुए दिखाया गया है.
पृष्ठभूमि में, भारत और पाकिस्तान के बीच एक क्रिकेट मैच की लाइव कमेंट्री हमें बताती है कि सचिन तेंदुलकर इमरान खान और वकार यूनिस जैसे खिलाड़ियों के खिलाफ बल्लेबाजी कर रहे हैं. जब लड़कों में से एक कश्मीरी पंडित सचिन तेंदुलकर की तरफदारी करने लगता है तो उसे दूसरे लोग पीटते हैं. उनका संदेश हैः अगर आपको कश्मीर में रहना है, तो आपको पाकिस्तान का समर्थन करना होगा. कुछ मिनट बाद एक आतंकवादी धार्मिक शब्दों में संदेश को फ्रेम करके दोहराता है. वह एक पंडित से कहता है, "अगर कश्मीर में रहना है तो अल्लाह हू अकबर कहना होगा ." ऐसे नारों की कोई सीमा नहीं होती है. वे भूगोल या आस्था को नहीं पहचानते. इनका एकमात्र धर्म आतंक है. वे महज कट्टरता की वजह से बंधे होते हैं. विडम्बना यह है कि ये घटना 90 के दशक की है. लगभग उसी समय जब कश्मीर में ये नारे सुनाई दिए तभी एक ऐसा ही नारा भारत के बड़े हिस्से में गूंज रहा था: अगर इस देश में रहना होगा, जय श्री राम कहना होगा.
बहरहाल एक छोटी त्रासदी यह है कि हमें इस बात का अहसास नहीं होता है कि जो जैसे जाता है वो वैसे ही आता है. यह हमारे सभी कर्म सिद्धांतों का सार है. और इससे भी बड़ी त्रासदी यह है कि आजकल किसी देश में रहने की पूर्व शर्त किसी देश या उसकी आस्था के प्रति निष्ठा नहीं रह गई है. आज के भारत में अब एक फिल्म यह तय करेगी कि आप उनके साथ हैं या उनके खिलाफ. हमारे दौर को परिभाषित करने वाला नारा है: अगर आपको इस देश में रहना है, तो आपको द कश्मीर फाइल्स को देवता मानना होगा. बहरहाल, गनीमत है कि घर वापस जाते समय हमें रास्ते में रोक कर द कश्मीर फाइल्स के टिकट की पर्ची दिखाने के लिए नहीं कहा जा रहा है ताकि हम एक अच्छे और देशभक्त नागरिक होने का सबूत दिखा सकें. कम से कम अभी ऐसे हालात नहीं आए हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)