28 मार्च को पश्चिम बंगाल विधानसभा में मारपीट की जो घटना हुई, वह 1969 में हुई हिंसा के सामने कुछ भी नहीं

28 मार्च को पश्चिम बंगाल विधानसभा में मारपीट की जो घटना हुई

Update: 2022-03-29 07:47 GMT
सुरेंद्र किशोर।
29 जुलाई, 1969 को चौबीस परगना (24 Parganas) जिले के एक थाने में घुस कर राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने एक सिपाही (Constable) को मार डाला था. अपने एक सहकर्मी की निर्मम हत्या के बाद आम सिपाही गुस्से में आपे से बाहर हो गये थे. वर्दीधारी सिपाहियों ने 31 जुलाई, 1969 को पश्चिम बंगाल (West Bengal) विधानसभा कक्ष में घुस कर जिस तरह का तांडव मचाया, वैसा न तो पहले हुआ था और न बाद में. उन दिनों पश्चिम बंगाल में राजनीतिक कारणों से व्यापक हिंसा-प्रतिहिंसा का दौर जारी था.
28 मार्च 2022 को पश्चिम बंगाल विधानसभा में मारपीट की जो घटना हुई, वह 1969 में हुई हिंसा के समक्ष कुछ भी नहीं. 1969 में पश्चिम बंगाल में अजय मुखर्जी के नेतृत्व में मिली जुली गैर कांग्रेसी सरकार थी. ज्योति बसु उप मुख्यमंत्री थे. गृह विभाग उप मुख्यमंत्री के पास ही था. सरकार के मंत्री विश्वनाथ मुखर्जी और कई विधायक उस दिन सदन के भीतर उन पुलिसकर्मियों के गुस्से के शिकार हुए. उस दिन एक तरफ नई दिल्ली में अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के आगमन पर स्वागत समारोह हो रहे थे, दूसरी ओर कलकत्ता (अब कोलकाता) में लोकतांत्रिक इतिहास का सर्वाधिक घिनौना दृश्य उपस्थित हो रहा था.
सिपाहियों ने उस दिन किसी को नहीं छोड़ा
करीब साढ़े चार बजे का समय था. विधानसभा की बैठक चल रही थी. पुलिसकर्मियों की उग्र भीड़ ने प्रेस गैलरी से होते हुए सभा कक्ष में प्रवेश किया. बौखलाहट से भरे सिपाहियों के हाथों में जो कुछ भी आया, उसे वे तोड़ते-फोड़ते गए. कुर्सियां, मेज, फूलदान, तस्वीरें उनके पांव तले रौंदी जा रही थीं. चारों तरफ आतंक का साम्राज्य छा गया. विधायक और मंत्री अपनी सुरक्षा के लिए स्थान ढू़ंढने में लग गए. स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए सभा अध्यक्ष विनय बनर्जी ने सदन की बैठक स्थगित कर दी.
जब सदन में पुलिसकर्मी मारधाड़ की रौ में थे, तब एक तरफ खड़े आहत विधायक अपने आप को असहाय पा रहे थे. गाली -गलौज करते कुछ पुलिसकर्मी ज्येति बसु के कमरे में घुस गए. वे लोग इंकलाब जिंदाबाद, ज्योंति बसु मुर्दाबाद के नारे लगाने लगे. पुलिस कर्मियों ने 40 माइक्रोफोन, कई टेबल, कार्य सूची के पत्र और फाइलें फाड़ दीं. इस घटना के बाद जब सदन की बैठक फिर से शुरू हुई तो सदन का बदला स्वरूप देख कर सदस्यों को शर्म का एहसास हो रहा था.
ज्योति बसु ने पुलिसकर्मियों की इस कार्रवाई को शर्मनाक बताया और यह भी कहा कि ऐसा करने वाले अपराधियों को कभी बख्शा नहीं जाएगा. उनके खिलाफ सख्त कदम उठाए जाएंगे. पर इस उत्तेजक घटना के बावजूद मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी ने तटस्थता का रवैया अपनाया. वह चुप्पी साधे रहे. अपने कमरे में बने रहे. हालांकि पुलिसकर्मियों ने मुख्यमंत्री के कमरे की किवाड़ पर भी दस्तक दी थी. दरअसल पुलिसकर्मियों का गुस्सा ज्योति बसु पर अधिक था. शायद उन्हें लगता था कि जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने थाने में एक पुलिसकर्मी को मारा उनको ज्योति बसु का समर्थन हासिल था.
पुलिसकर्मियों का गुस्सा स्वाभाविक था
उधर अजय मुखर्जी और ज्योति बसु के बीच राजनीतिक तनाव जारी था. गांधीवादी अजय मुखर्जी बंगला कांग्रेस के नेता थे. दूसरी ओर, माकपा तो गांधी वादी है नहीं. नतीजतन अजय मुखर्जी का ज्योति बसु से अधिक दिनों तक नहीं निभा. खैर एक बार फिर उस घटना पर आएं. पुलिसकर्मियों के उस उग्र रवैये और भारी गुस्से का कुछ वाजिब कारण भी था. 29 जुलाई को बासंती पुलिस थाने के अंदर कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने जब पुलिसकर्मी शंकर दास शर्मा को मारा तो पुलिसकर्मियों का गुस्सा स्वाभाविक ही था.
संभवतः वह अपने ढंग की पहली घटना थी. गुस्सा तब और बढ़ गया जब पुलिसकर्मियों ने एस.पी. से मृतक की लाश मांगी और एस.पी. ने कहा कि लाश पांच बजे मिलेगी. इस पर पुलिसकर्मियों ने एस.पी. के कमरे पर भी धावा बोल दिया. कुर्सियां तोड़ी और कागज फाड़े. घबराए एस.पी. ने पीछे के कमरे में शरण ले ली. बाद में लाश उन्हें मिल गयी और लाश के साथ पुलिसर्मी विधानसभा भवन की ओर चल पड़े थे. उस उग्र भीड़ को रोक पाना विधानसभा भवन की पहरेदारी कर रहे सुरक्षाकर्मियों के लिए संभव नहीं हो सका था.
बाद में पुलिसकर्मियों ने ज्योति बसु से मिलकर उत्तेजना में हुए उस घटना पर अफसोस जाहिर करना चाहा, पर ज्योति बसु ने साफ मना कर दिया. पश्चिम बंगाल सरकार ने 11 पुलिसकर्मियों को बर्खास्त कर दिया. साथ ही 24 परगना के एस.पी. गंगाधर मुखर्जी का तबादला कर दिया. इस घटना पर ज्योति बसु ने विधानसभा में कहा कि इस घटना को इतिहास में काले धब्बे के रूप में याद किया जाएगा. उसके बाद ही बिहार में कर्पूरी ठाकुर सरकार ने 1970 में पुलिकर्मियों को संघ गठित करने की अनुमति प्रदान की. पुलिस मंत्री रामानंद तिवारी थे जो खुद कभी सिपाही रह चुके थे. बिहार में संघ बनाने की अनुमति देने के पीछे एक तर्क यह भी था कि संघ के जरिए पुलिसकर्मी अपनी समस्याओं को सरकार के सामने बेहतर ढंग से रख सकेंगे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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