कार्ति चिदंबरम जिस गिग इकॉनमी पर हमला करना चाह रहे हैं, उसने महामारी के दौरान नौकरी गंवाने वालों को सहारा दिया

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़े बताते हैं कि केवल मार्च और अप्रैल 2020 के बीच, 113.6 मिलियन लोगों ने अपनी नौकरी गंवा दी

Update: 2022-03-27 06:45 GMT
पल्लवी रेब्बाप्रागदा।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के आंकड़े बताते हैं कि केवल मार्च और अप्रैल 2020 के बीच, 113.6 मिलियन लोगों ने अपनी नौकरी गंवा दी. कई उद्योगों में मंदी के दौर में, गिग इकॉनमी (Gig Economy) युवाओं के लिए राहत का स्रोत बन गई. बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप और माइकल एंड सूजेन डेल फाउंडेशन की एक संयुक्त रिपोर्ट में कहा गया है कि गिग इकॉनमी अकेले भारत की गैर-कृषि अर्थव्यवस्था में 90 मिलियन नौकरियां दे सकती है. यह 250 बिलियन डॉलर के ऊपर जा सकता है और भारत के सकल घरेलू उत्पाद (India GDP) में 1.25 प्रतिशत की वृद्धि का योगदान कर सकता है.
कार्ति चिदंबरम द्वारा दावा किया गया कि गिग वर्कर्स किसी भी सामाजिक सुरक्षा के अंतर्गत नहीं आते हैं. यह पूरी तरह से सत्य नहीं है. प्रत्येक प्लेटफॉर्म/गिग ने स्वेच्छा से अपने साझीदारों को बीमा (दुर्घटना और चिकित्सा) प्रदान किया है. अधिकांशत:, ये बीमा कवर PMSBY (प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना) और PMJJBY (प्रधानमंत्री जीवन ज्‍योति बीमा योजना) जैसी सरकारी योजनाओं द्वारा प्रदान किए गए बीमा कवर से कहीं अधिक होते हैं.
गिग वर्कर्स को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने पर काम चल रहा है
गिग इकॉनमी में लचीलेपन की वजह से प्रतिभागियों को यह अवसर मिलता है कि वह जैसे चाहें, जब चाहें काम कर सकते हैं, इन बीमा प्रावधानों में कुछ उचित पात्रता मानदंड हैं, ताकि कवर किए गए लोग संगठन के साथ स्थायी रूप से भागीदारी कर सकें. इसके अतिरिक्त, गिग वर्कर्स को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए वर्तमान में पॉलिसी का ड्राफ्ट तैयार करने प्रक्रिया चल रही है, 2020 में सोशल सिक्‍योरिटी कोड लागू किया जा चुका है. चिदंबरम ने यह भी कहा कि गिग संगठन अपने डिलीवरी पार्टनर्स/राइडर्स/ ड्राइवर-पार्टनर के लिए 'कर्मचारी' शब्द का इस्तेमाल करने से इनकार करते हैं.
हालांकि, इन कंपनियों को सोशल सिक्‍योरिटी कोड 2020 के तहत सूचीबद्ध किया गया है, जो कि गिग वर्कर को 'एक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है जो काम करता है या कार्य व्यवस्था में भाग लेता है और उन गतिविधियों से कमाता, जो कि पारंपरिक नियोक्ता-कर्मचारी संबंधों के दायरे से बाहर हैं.' चूंकि यह कोई पारंपरिक नियोक्ता-कर्मचारी संबंध नहीं है, यह देखते हुए कि इस अर्थव्यवस्था में कोई परिभाषित या अनिवार्य काम के घंटे नहीं हैं, ऐसे में नामपद्धति पर बहस बेमानी हो जाती है.
चिदम्बरम की नाराज़गी वामपंथियों की रणनीति पर आधारित लगती है, जो कि हाल के समय में कांग्रेस की एकमात्र रणनीति बन गई है. उनकी चिंता ज्‍यादातर उन्‍हीं मुद्दों से संबंधित है, जो ऐप बेस्‍ट ट्रांसपोर्ट वर्कर्स (आईएफएटी) बार-बार उठा चुके हैं. इस समूह ने कोर्ट में जोमैटो, बंडल टेक्‍नोलॉजी (स्‍वीगी), एएनआई टेक्‍नोलॉजी (ओला), ऊबर इंउिया सिस्‍टम्‍स के नाम से याचिका दायर की है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट से दखल देने की मांग की गई है कि वह सरकार को निर्देश दे कि वह ऐप बेस्‍ट वर्कर्स को वर्कर्स के तौर पर मान्‍यता दे या वैकल्पिक तौर पर 'असंगठित कर्मचारी' या 'वेज वर्कर्स' के तौर पर विभिन्‍न श्रम या सोशल सिक्‍योरिटी कानूनों के तहत मान्‍यता दे.
कांग्रेस बेमतलब के काम कर रही है
कांग्रेस, ज्यादातर राज्यों में बुरी तरह चुनावी हार के बाद, ऐसे काम कर रही है जैसे जेएनयू की स्‍टूडेंट यूनियन गर्मी की छुट्टियों में करती है. 'कम्युनिस्ट्स इन कांग्रेस: ​​कुमारमंगलम की थीसिस' (1973 में डीके पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित) शीर्षक वाली किताब में लेखक सतिंद्र सिंह ने लिखा कि कैसे कम्युनिस्टों ने कांग्रेस पार्टी के ऊपरी क्षेत्रों में घुसपैठ करने के लिए एक 'थीसिस' तैयार की, जिसके बाद चंद्रजीत यादव जैसे नेताओं ने डीपी धर, केआर गणेश, रजनी पटेल, केवी रघुनाथ रेड्डी, आरके खादिलकर को आसानी से पार्टी में शामिल कर लिया गया.
कट्टरपंथी भूमि सुधारों से लेकर शाही भत्‍ता के उन्मूलन तक, राजनीति के उस युग में लिए गए निर्णय कट्टरपंथी वामपंथी विचारधाराओं के अनुरूप थे. लेकिन नेहरू के उदारवादी समाजवाद और इंदिरा के राष्ट्रीयकरण के क्रूर चरण की प्रासंगिकता उस समय कुछ हद तक हो सकती थी. आज, युवाओं का एक बड़ा हिस्‍सा शिद्दत के साथ आजीविका की तलाश में खुले तौर पर एग्रीगेटर्स की ओर रुख कर रहा है और एकुजेशन, इंडस्‍ट्री को लिंक करने और उच्‍च दक्षता वाले रोजगार सुनिश्चित करने में पिछली सरकारों की विफलता के चलते आज हम यहां खड़े हैं, बिजनेस को अनुकूल होना चाहिए.
कांग्रेस ने मोटर वाहन अधिनियम 1988 में संशोधन का विरोध किया था
आज संसद में, हमारे यातायात और परिवहन प्रशासन की विफलता की कड़ी आलोचना नहीं हो रही है. जब केंद्र सरकार ने 2019 में मोटर वाहन अधिनियम 1988 में संशोधन किया, जिसे सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने संसद के निचले सदन में पढ़ा था, तो सीपीआई (एम) और कांग्रेस जैसे विपक्षी दलों ने संशोधन का विरोध किया था.
विवाद का मुख्य बिंदु भारी जुर्माना लगाना था, जिसके खिलाफ कुछ राज्य सरकार ने मोटर वाहन विभाग (एमवीडी) और पुलिस जैसी एजेंसियों को थोड़ा धीमा चलने का निर्देश दिया. अधिनियम के तहत शराब या नशीली दवाओं के प्रभाव में ड्राइविंग के लिए अधिकतम जुर्माना 2,000 रुपये से बढ़ाकर 10,000 रुपये कर दिया गया. वाहन निर्माता मोटर वाहन मानकों का पालन करने में विफल रहे, 100 करोड़ का जुर्माना, एक वर्ष तक की कैद या दोनों की पैनल्‍टी का प्रावधान किया गया. यदि कोई ठेकेदार रोड डिजाइन मानकों का पालन करने में विफल रहता है, तो जुर्माना एक लाख रुपये तक का होगा.
मोटर व्‍हीकल अधिनियम के अनुसार, 10 साल के उपयोग के बाद मोटर चालित वाहनों का निरीक्षण किया जाना चाहिए, लेकिन क्षेत्रीय परिवहन कार्यालय (आरटीओ) शायद ही कभी इस नियम को लागू करता है. आरटीओ ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने और ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने की सुविधा में बिचौलियों के प्रवेश के लिए भी जिम्मेदार है जो भारतीय सड़कों पर ड्राइविंग क्षमता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है.
क्या हमारा सार्वजनिक परिवहन मजबूत कनेक्टिविटी प्रदान करता है?
इंडियन रोड कांग्रेस की ओर से तय किए गए दिशा-निर्देश, यह नोडल एजेंसी है, जो कि सड़क निर्माण के लिए डिजाइन गाइडलाइन और टेक्निकल स्‍टैंडर्ड को निर्धारित करती है, का पालन नहीं किया जाता है और न ही नगरपालिकाओं या लोक निर्माण विभागों द्वारा अनिवार्य रूप से इन्‍हें लागू किया जाता है, इसलिए वे सिविक वर्क कर रहे ठेकेदारों पर इन मानकों को लागू करने में विफल रहते हैं. नतीजतन, अधिकांश शहरी सड़कें न तो अच्छी तरह से डिजाइन की गई हैं और न ही अंतरराष्ट्रीय मानकों का पालन करती हैं, जो न तो संतुलित स्‍वरूप में हैं और न ही अच्‍छे से उन पर चल सकते हैं.
जिन सड़कों पर निर्माण कार्य चल रहा है, वहां पर रोशनी के संकेत, मरम्मत के लिए सड़क के एक तरफ को अवरुद्ध करना और यातायात को गलत साइड पर चलने देने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ना, पैदल चलने वालों के लिए रिक्त स्थान, ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो शहरी केंद्रों में सड़कों पर पाए जा सकते हैं. टियर -2 और टियर -3 सिटी में, शहरी गंदगी, खराब रोशनी वाली पतली सड़कों पर पार्किंग स्थलों की कमी, जगह-जगह टूटे डिवाइडर, बस स्टॉप से ​​पहले यात्रियों को बेतरतीब ढंग से गिराने वाली बसें जमीनी हकीकत है.
फिर समस्या आती है सड़कें किसके अधिकार क्षेत्र में आती हैं, उदाहरण के लिए राष्ट्रीय राजधानी में लगभग एक दर्जन एजेंसियां एजेंसी हैं, जिनके स्वामित्व में सड़कें आती हैं, ऐसे में एक-दूसरे के पाले में गेंद फेंकना बेहद आसान हो जाता है. क्या भारत में दो किलोमीटर की दूरी के भीतर 10 मिनट में कहीं सुरक्षित पहुंचा जा सकता है, अगर यह संभव नहीं है तो क्‍या दो किलोमीटर के भीतर में पहुंच सकते हैं? क्या हमारा सड़कों का नेटवर्क ऐसी सुगम आवाजाही की अनुमति देता है? क्या हमारा सार्वजनिक परिवहन अंतिम छोर तक मजबूत कनेक्टिविटी प्रदान करता है? दुर्लभ मेट्रो फीडर बसों और हाथ से खींचे जाने वाले रिक्शा वाले देश में, इसका जवाब एक दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है.
(लेखिका दिल्ली विधानसभा की पॉलिसी फेलो हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं.)
Tags:    

Similar News

-->