रूस पर प्रतिबंधों का असर खत्म? अमेरिकी मुहिम को लेकर यूरोप ठंडा, चीन नाराज और भारत अपने रुख पर कायम
भारत जैसे कई देशों ने रूस से रियायती दर पर तेल खरीदने का फैसला किया है
के वी रमेश।
रूस (Russia) से ऊर्जा (तेल और गैस) के आयात पर प्रतिबंध लगाने को लेकर यूरोपीय संघ ( European Union) के देश एकमत नहीं हैं. पिछले तीन सप्ताह के दौरान यूरोपीय संघ ने रूस पर चार बार प्रतिबंध लगाए. बाल्टिक राज्यों और पोलैंड ने भले ही सख्त कदम उठाने का आह्वान किया है, लेकिन यूरोपीय देश एकजुट नजर नहीं आ रहे हैं. पेट्रोलियम आयात पर निर्भर जर्मनी जैसे देश ऊर्जा संबंधी प्रतिबंधों को लेकर डरे हुए हैं. उनका मानना है कि ऊर्जा संबंधी प्रतिबंध लगाए जाने से बेरोजगारी (Unemployment) बेतहाशा बढ़ेगी और ईंधन की कमी भी हो जाएगी. वहीं, हंगरी ने भी तेल आयात पर प्रतिबंध लगाने का विरोध किया है.
गौरतलब है कि यूरोपीय संघ कुल तेल खपत का 27 फीसदी हिस्सा रूस से आयात करता है. वहीं, यूरोपीय संघ की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी प्राकृतिक गैस का 55 फीसदी, कोयले का 52 फीसदी और खनिज तेल का 34 फीसदी हिस्सा रूस से आयात करता है. पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए कड़े प्रतिबंधों से अब रूस में सत्तारूढ़ रईस और आम जनता दोनों परेशान होने लगे हैं, लेकिन पश्चिमी यूरोपीय देशों और कई कॉरपोरेट दिग्गजों के खिलाफ आत्म-संरक्षण की वजह से मॉस्को को लाइफलाइन मिली हुई है.
अमेरिका में भी प्रतिबंधों से नाराजगी
भारत जैसे कई देशों ने रूस से रियायती दर पर तेल खरीदने का फैसला किया है. वहीं पश्चिमी यूरोप ने रूस से तेल और गैस के आयात पर पूरी तरह कटौती नहीं की है और चीन ने भी प्रतिबंधों का विरोध किया है.
बहरहाल, इन प्रतिबंधों को अमेरिका में भी खास पसंद नहीं किया जा रहा है. इसके अलावा कई लोगों ने अमेरिका पर दोहरे मानक अपनाने का आरोप लगाया है. उनका कहना है कि अमेरिका के फैसलों की वजह से कई देशों ने रूस के साथ कारोबार बंद कर दिया है. साथ ही, वित्तीय संबंध भी तोड़ दिए हैं, जबकि अमेरिकी तटों पर तेल के कंसाइनमेंट आने की इजाजत दी गई है.
द गार्डियन की रिपोर्ट के मुताबिक, 'व्हाइट हाउस ने प्रतिबंधों के ऐलान के बाद तेल आयात के लिए 45 दिनों की छूट की अनुमति दी है. इसका मतलब यह है कि रूस से फॉसिल्स फ्यूल लाने वाले जहाज 22 अप्रैल से अमेरिकी बंदरगाहों पर लंगर नहीं डाल पाएंगे.'
इससे भी अहम बात यह है कि प्रतिबंधों को पश्चिमी कॉरपोरेट्स के बीच मिली-जुली प्रतिक्रिया मिली है, जिनमें से कई मॉस्को के साथ लगातार काम कर रहे हैं. कॉरपोरेट घरानों की ताकत ऐसी है कि अमेरिकी सरकार की धमकियों का भी उन पर कोई असर होता नजर नहीं आ रहा है.
हंगरी भी रूस पर प्रतिबंधों के खिलाफ
हंगरी के विदेश मंत्री पीटर सिज्जार्टों ने मंगलवार को कहा कि उनका देश रूस विरोधी प्रतिबंधों का समर्थन नहीं करेगा, क्योंकि रूस की गैस और तेल की सप्लाई पर प्रतिबंध लगाकर हम अपने ही हितों का नुकसान करेंगे. उन्होंने यह भी कहा कि हंगरी नाटो के सैनिकों को यूक्रेन भेजने या यूक्रेन में नो-फ्लाई जोन बनाने के किसी भी प्रस्ताव के खिलाफ था. इस तरह के कदम से बड़े पैमाने पर युद्ध का खतरा बढ़ जाएगा.
हालांकि, हंगरी की सरकार ने यूक्रेन पर मॉस्को के हमले की निंदा की और कुछ प्रतिबंधों का समर्थन भी किया. उसने खुद इस संघर्ष से बाहर रहने के फैसले का लगातार बचाव किया. साथ ही, यूक्रेन को हथियार भेजने वाले अन्य देशों में शामिल होने से भी इनकार कर दिया.
हंगरी का यह विद्रोह अमेरिका और उसके सहयोगियों यूरोपीय संघ-नाटो को तकलीफ देगा. दरअसल, वे उम्मीद कर रहे हैं कि कठोर आर्थिक प्रतिबंधों से वे रूस को घुटनों पर ले लाएंगे और उसे यूक्रेन में युद्ध रोकने के लिए मजबूर कर देंगे.
जर्मनी सहित कई देश उठा रहे फायदा
पश्चिमी देशों द्वारा लागू किए गए प्रतिबंधों का कोई तोड़ नजर नहीं आता, लेकिन जर्मनी समेत कई देश इसका फायदा उठा रहे हैं. ये ऐसे देश हैं, जिन्होंने कम से कम एक साल के लिए रूस से गैस आयात करने की छूट ले रखी है. उन्हें उम्मीद है कि इस अवधि के दौरान वे कोई न कोई विकल्प जरूर ढूंढ लेंगे.
अमेरिका ने अपनी कंपनियों को रूस से तेल आयात करने के लिए 45 दिन की छूट देकर प्रतिबंधों का असर खुद कम कर दिया. जर्मनी और अमेरिकी कंपनियों को दी गई इस छूट ने भारत को अपना पक्ष रखने का मौका दे दिया और उसने मांग की कि उसे भी रूस से रियायती दरों पर तेल खरीदने की इजाजत दी जाए. अमेरिका को बेहद बुझे मन से यह मांग माननी पड़ी, लेकिन राष्ट्रपति बाइडेन ने इस पर कटाक्ष भी किया.
कई पश्चिमी देशों ने प्रतिबंध का उल्ळंघन किया
लेकिन बेहद दिलचस्प बात यह है कि कई पश्चिमी और गैर-पश्चिमी कंपनियों ने प्रतिबंधों का उल्लंघन किया और रूस के साथ कारोबार जारी रखा है. दरअसल, इन कंपनियों के कारोबारी हित रूस से जुड़े हुए हैं.
अमेरिका में येल स्कूल ऑफ मैनेजमेंट ने पांच श्रेणियों में कंपनियों की एक लिस्ट तैयार की है, जिसे लगातार अपडेट किया जा रहा है. इनमें वे कंपनियां भी शामिल हैं, जो रूस से बाहर निकल चुकी हैं. वे कंपनियां भी हैं, जिन्होंने पुतिन के देश में अपना कारोबार ही बंद कर दिया. कुछ ऐसी कंपनियां भी हैं, जिन्होंने इस बीच साठगांठ बढ़ाया है, और ऐसी कंपनियां भी शामिल हैं, जिन्होंने प्रतिबंधों को मानने और रूस छोड़ने से इनकार कर दिया.
दिलचस्प बात यह है कि इनमें से ज्यादातर कंपनियां भारत में मौजूद हैं. इन कंपनियों को पांच श्रेणियों में बांटा गया है.
पहली श्रेणी में 169 कंपनियां हैं, जिन्होंने रूस में कारोबार बंद कर दिया है या काम-काज पूरी तरह बंद कर दिया है. इनमें कुछ दिग्गज अंतरराष्ट्रीय कंपनियां एसेंचर, एयरबीएनबी, एएमडी, एशिया इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक शामिल हैं. इनके अलावा ऑथेंटिक ब्रांड ग्रुप जैसे रीबॉक, ऑटोडेस्क, एविड, बेकर मैकेंजी, ब्लैकरॉक, बोस, बीपी, ब्रिटिश अमेरिकन टोबैको, कौरसेरा, डेमलर, डिलॉयट, ईबे, यूरोविजन, एक्सॉन, फीफा, फॉर्मूला 1, ग्रामरली, बॉक्सिंग, साइक्लिंग, आइस हॉकी, स्केटिंग, टेनिस और वेटलिफ्टिंग के इंटरनेशनल फेडरेशन, केपीएमजी, मैकिन्से, मूडीज, नैस्डैक, नेटफ्लिक्स, ओमनीकॉम, वनवेब, पीडब्ल्यूसी, एसएंडपी, रोलेक्स, शेल, स्पॉटिफाई, स्टेनली ब्लैक एंड डेकर, ट्रिपएडवाइजर, ऊबर और वीवर्क आदि शामिल हैं.
दूसरी श्रेणी में कुल 190 कंपनियां हैं, जिन्होंने रूस में अपने ऑपरेशन बंद कर दिए हैं, लेकिन वापसी के रास्ते खुले रखे हैं. इन कंपनियों में 3M, एडिडास, एडोबी, अकामाई, अल्फाबेट, एमेजॉन, अमेरिकन एक्सप्रेस, एमवे, एप्पल, एस्टन मार्टिन, एटलस कोप्को, बेंटले, बोइंग, ब्रिजस्टोन टायर, बरबेरी, बर्गर किंग, कैनन, सिटी, सिस्को, कोका कोला, कॉजेंट, दसॉ एविएशन, डेल, डच बैंक, डीएचएल, डियाजियो, डिस्कवर, डिज्नी, एरिक्सन, फेडेक्स, फरारी, फोर्ड, हर्बालाइफ, होंडा, हनीवेल, एचपी, ह्यूंदै, आईबीएम, आईका, इंटेल, इवेको, जेसीबी, कोमात्सु, एलजी इलेक्ट्रॉनिक्स, लेवी स्ट्रॉस, लॉरियल, मेरस्क, मार्क्स एंड स्पेंसर, मैकडॉनल्ड्स, मर्सिडीज बेंज, माइक्रोसॉफ्ट, मदरकेयर, नाइकी, निसान, नोकिया, एनवीडिया, ओरैकल, पैनासॉनिक, पेपल, प्यूमा, पैनासॉनिक, रेथियॉन, रिको, रोल्स रॉयस, सैमसंग, स्कोडा, सोनी, टिमकेन, टोयोटा, ट्विटर, फॉक्सवैगन, वोल्वो और जेरॉक्स शामिल हैं.
तीसरी सूची में 30 कंपनियां हैं, जिनमें एलियांज, बीएनपी परिबास, कार्ल्सबर्ग, क्वाइनबेस, डाउ, जीई, गोल्डमैन सैक्स, एचएसबीसी, जेपी मॉर्गन, केलॉग, मिशेलिन टायर, पेप्सी और व्हर्लपूल शामिल हैं.
चौथी लिस्ट में कुल 54 कंपनियां हैं, जिन्होंने इनवेस्टमेंट और डिवेलपमेंट पर रोक लगाई है. इन कंपनियों में एबॉट लैब्स, एकर, बेकर हसेस, बीएएसएफ, बेयर, कारगिल, कोलगेट-पामोलिव, कोटी, ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन, हैलिबर्टन, हयात, जॉनसन एंड जॉनसन, मैरियट, मर्क, नेस्ले, ओटिस, फाइजर, फिलिप मॉरिस, प्रॉक्टर एंड गैंबल, सनोफी, स्नायर इलेक्ट्रिक, सीमेंस और यूनिलीवर शामिल हैं.
पांचवीं लिस्ट में वे 38 कंपनियां हैं, जिन्होंने रूस में कारोबार बंद करने से इनकार कर दिया. यह सूची काफी रोचक है. इन कंपनियों में एसर, एस्ट्राजेनेका, आसुस, क्रेडिट सुइस, डिकैथलॉन, एमिरेट्स एयरलाइंस, एफएम ग्लोबल, ग्लेनकोर, लेनोवो, मेट्रो, रेनॉ और सोसाइटी जनरल शामिल हैं.
अमेरिकी राजनीति और नीतियों पर वॉल स्ट्रीट के नियंत्रण को ध्यान में रखते हुए यूरोपीय कंपनियां भी अपने राजनेताओं पर पकड़ बनाए रखती हैं. इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि अमेरिका-यूरोपीय संघ-नाटो के प्रतिबंध काफी प्रभावी नहीं रहे हैं और उनमें कॉरपोरेट्स के हितों के हिसाब से ढील दिए जाने का अनुमान है.
इसके बावजूद येल की सूची में भारत को दिलचस्पी हो सकती है. अगर यूक्रेन में संघर्ष जारी रहता है और रूस पर प्रतिबंध और सख्त किए जाते हैं तो पश्चिमी कॉरपोरेट्स, जो फिलहाल आड़ में बैठे हैं, अपने संचालन, विशेष रूप से आईटी, फिनटेक और आरएंडडी को कहीं और संभवत: भारत में स्थानांतरित करने को लेकर फैसले ले सकते हैं. लेकिन अगर पुतिन क्रेमलिन में ठहरते हैं तो ये कॉरपोरेट्स रूस में ही रुकने का फैसला भी ले सकते हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)