रिश्तों का ताना-बाना
बदलाव का दौर है। पुरुष या महिलाओं को अपने अंदर झांकते हुए खुद को दुरुस्त करने की कदम-कदम पर जरूरत है, ताकि ठीक से तालमेल बना रहे और पारिवारिक ढांचा न बिखरे।
बदलाव का दौर है। पुरुष या महिलाओं को अपने अंदर झांकते हुए खुद को दुरुस्त करने की कदम-कदम पर जरूरत है, ताकि ठीक से तालमेल बना रहे और पारिवारिक ढांचा न बिखरे। ऐसे में काफी चीजें ऐसी हैं, जो महिलाओं की गलत सोच और व्यवहार के कारण दुष्प्रभावित हो रही हैं। किसी भी परिवार या व्यक्ति की खुशी घर के वातावरण से ज्यादा जुड़ी होती है। परिवार की इकाई महिला के इर्द-गिर्द ज्यादा घूमती है।
अगर महिला ने अपने आप में सुधार का बीड़ा जिम्मेदारी से नहीं उठाया तो समाज और परिवार में प्रतिकूल असर के पूरे-पूरे आसार हैं और कुछ दिनों में ऐसे परिवार के अस्तित्व को ग्रहण लगा दिखाई देगा। जहां महिलाएं सुघड़ और समझदार होंगी, वे ही परिवार को ठीक से बचा पाने में कामयाब होंगी अन्यथा यह इकाई आज बिखराव की राह पर तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में उसके पैदा होने से लेकर बुढ़ापे तक परिवार की भूमिका के केंद्र का महत्त्वपूर्ण अंग होने के कारण बहुत-सी चीजें उसके कारण, उससे प्रभावित होकर घटित होती हैं और जिसका परिणाम परिवार की खुशहाली या बदहाली पर पड़ना लाजिमी है।
एक महिला बहुत-सी भूमिका एक साथ निभाती है- दादी, मां, बेटी, बहन, बुआ, बहू, सास, भाभी आदि के रूप में। जब तक वह बेटी यानी अविवाहित होती है तो मायके में उसकी खास जिम्मेदारी नहीं होती और लाड़-प्यार में पलती है। बहुत-से माता-पिता उसको यह सिखाने में नाकाम होते हैं कि शादी के बाद उसकी भूमिका किस रूप में सफल और वजनदार होनी चाहिए और उसके लिए उसको कितनी सूझबूझ दी जाए। जन्मजात रूप से यह समझा जाता है कि उसकी पढ़ाई-लिखाई करवा दो और जब जवान हो जाए तो उसकी शादी का अनुकूल प्रबंध कर दिया जाए। कम ही माता-पिता होते हैं, जो उसकी शादी के बाद की भूमिका के लिए सही और वाजिब सीख देते हैं
शादी होती है तो ससुराल की दहलीज पर कदम रखते ही लड़की की भूमिका जिम्मेदारी से जुड़ी मिलती है। उसकी हर गतिविधि और सोच पर ससुराल पक्ष की बारीक नजर होती है। अगर लड़की समझदार और मायके की समझाइश से अच्छा सीखी है तो कामयाब बहू बनने की राह पर चल पड़ती है, वहीं दूसरी तरफ अगर बिना तैयारी या परिपक्व सोच-विचार के सिर्फ शादी की रस्म के नाम पर ससुराल में चली जाती है और वहां की जरूरत के हिसाब से तालमेल नहीं बैठाती है, तो उसके गृहस्थ में आग लगना तय है।
कुछ लड़कियां ससुराल में प्रवेश करते ही पति पर अपना अधिकार मान कर औरों के प्रति बेरूखी दिखाती हैं। निस्संदेह सबके साथ अनुकूल व्यवहार से ही रिश्तों को जीवंत और वजनदार बनाया जा सकता है। ऐसी लड़कियां सोची-समझी रणनीति के तहत परिवार के दूसरे सदस्यों के खिलाफ गलत तरीके से पति के कान भरना शुरू कर देती हैं। ऐसे में रिश्तों में दरार आना स्वाभाविक है। इसका असर रिश्तों के ताने-बाने पर पड़ता है।
यह महिला के ऊपर निर्भर है कि वह ससुराल में समझदारी से परिवार को मजबूती से जोड़ती है या अपनी नासमझी की राह पर चल कर ससुराल को प्रयोगशाला बना कर खाई में धकेल देती है, जहां बस केवल संबंधों में तल्खी, विरोध, मनमुटाव, बिखराव या तलाक की गुंजाइश होती है, जिसमें दोनों पक्ष जिंदगी भर दुर्भाग्य, पश्चात्ताप या कसक लिए जीते दीखते हैं। इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता कि काफी महिलाएं जरूरत से ज्यादा तारीफ की भूखी होती हैं, छोटी सोच रखती हैं और अपने सौंदर्य को भी हथियार मान लेती हैं।
ऐसे में भ्रमवश अपने को जरूरत से ज्यादा उपयोगी, गुणी और त्याग की मूर्ति मान कर अहंकारवश अपने अंदर जमी धूल को साफ करने की कोशिश नहीं करतीं। परिवार की मजबूती महिलाओं की उदारता, सब्र, परिपक्व सोच, सूझ-बूझ आदि पर टिकी होती है। रिश्तों की डोर में अगर इन गुणों से गृहस्थी गुंथी होंगी तो मजबूत धागे से जुड़े संबंधों की ताकत कदम-कदम पर दिखाई देगी।