पितृपक्ष में पौधारोपण का लें संकल्प, हरे-भरे और हरियाली युक्त ग्रह का करें निर्माण

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है।

Update: 2021-09-27 04:04 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क| नील  राजपूत । भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। यह सदियों से मां गंगा की गोद, हिमालय की छत्रछाया और भारत के जनमन में विकसित होती चली आ रही है। भारत की सभ्यता और संस्कृति में विविधता में एकता की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत शामिल है। भारतीय संस्कृति समस्त मानवता का कल्याण चाहती है। इसमें जीवन जीने की कला, ज्ञान-विज्ञान, चिकित्सा, राजनीति और भी बहुत कुछ समाहित हैं। भारतीय संस्कृति में भारत की आत्मा बसती है। सनातन और वैदिक काल से चली आ रही हमारी संस्कृति में हमारे समस्त संस्कार समाहित हैं। यह अत्यंत उदात्त, समन्वयवादी, समरसता से युक्त, शाश्वत एवं जीवंत रही है, जिसमें जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा आध्यात्मिकता का अद्भुत मेल है। 'उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम' और 'सर्वे भवंतु सुखिन:' के दिव्य सूत्रों में हमारी गहरी आस्था रही है।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है, परंतु मानवता के सिद्धांत हमेशा से हमारे लिए सर्वोपरि रहे हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति सच्चे अर्थ में मानवता की संस्कृति है। उन्नत संस्कृति एवं सभ्यता के विकास के लिए नितांत आवश्यक है कि समाज के संस्कार पक्ष को समुन्नत, सशक्त एवं सबल बनाए रखा जाए। प्रकृति, पर्यावरण और मानवता के सर्वत्र विकसित स्वरूप से ही उन्नत समाज का निर्माण होता है, जिसमें न केवल अतीत की परंपराओं, संस्कारों, रीति-रिवाजों, भाषा, बोली और रिश्ते-नातों को समुचित स्थान दिया जाता है, अपितु नई पीढ़ी को पारंपरिक मान्यताओं से भी जोड़ा जाता है, ताकि परंपराओं के साथ-साथ पर्यावरण को भी संरक्षित किया जा सके।

पितृपक्ष-श्रद्ध और तर्पण भारतीय संस्कृति का अहम हिस्सा हैं। सनातन संस्कृति में पितृपक्ष का बड़ा ही महत्व है। पितृपक्ष में पितरों का श्रद्ध (तर्पण) किया जाता है। धार्मिक मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान पितरों के नाम से पूजन, अर्चन, दान से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।

पितृपक्ष की शुरुआत भाद्रपद मास में शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि से होती है। यह आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि तक रहता है। शास्त्रों के अनुसार पितरों का स्थान पूजनीय है। श्रद्ध कर्म के पश्चात जरूरतमंदों की सहायता करने से भी पितरों को पुण्य प्राप्त होता है। साथ ही इससे स्वयं को भी संतुष्टि मिलती है।

पितृपक्ष की परंपरा को समझा जाए तो यह वास्तव में स्वास्थ्य, पर्यावरण संरक्षण, सह अस्तित्व एवं समस्त प्राणी जगत के प्रति मानव का मातृत्व भाव प्रकट करने की परंपरा रही है। श्रद्ध पक्ष में पितरों को भोजन देना वास्तव में प्राणी जगत के प्रति मानव का सहअस्तित्व एवं मातृत्व की भावना है। तीन माह तक चलने वाली लंबी वर्षा ऋतु के पश्चात पर्यावरण में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन देखने को मिलते हैं। वर्षा के दौरान अनेक जीव-जंतु और पशु-पक्षी बेघर हो जाते हैं। जमीन पर पानी की वजह से उनके भोजन की व्यवस्था में भी कठिनाइयां आती हैं। इसलिए सहअस्तित्व एवं सर्वे भवंतु सुखिन: की भावना से हमारे ऋषियों-मुनियों ने पितृपक्ष में पितरों को भोजन अर्पित करने की दिव्य परंपरा की शुरुआत की थी। हमारे ऋषि-मुनि जानते थे कि पुरखे शरीर से भोजन नहीं कर सकते, परंतु उनके प्रति भोजन अर्पण का भाव ही पर्याप्त है। इस तरह पितरों को भोजन अर्पण की परंपरा को रीति-रिवाजों और संस्कारों के साथ जोड़ा गया, ताकि पितरों को अर्पित भोजन पशु-पक्षियों एवं घर पर रहने वाले अन्य छोटे जीव-जंतुओं को प्राप्त हो सके। यह आने वाली पीढ़ियों को सहअस्तित्व, समभाव तथा समस्त प्राणी जगत के लिए सर्वे भवंतु सुखिन: का संदेश देता है।

अब हमें पितृ तर्पण के साथ पेड़ अर्पण के सूत्र को भी अंगीकार करना होगा, क्योंकि विकास के नाम पर धरती पर प्रदूषण बढ़ रहा है। पेड़ काटे जा रहे हैं और नदियां प्रदूषित हो रही हैं। हम अपनी हरी-भरी और हरियाली युक्त पृथ्वी के स्थान पर एक ऐसे ग्रह के निर्माण की ओर अग्रसर हैं, जहां पर प्रतिदिन जंगल काटे जा रहे हैं और चारों ओर प्रदूषण बढ़ रहा है। ऐसे में एक प्रश्न उठता है कि क्या हम पितृदोष से बचने के लिए पितरों को खीर ही अर्पण करते रहें और पृथ्वी से घटती आक्सीजन एवं कम होते जल के प्रति उदासीन बने रहें? पृथ्वी से कम होता जल और आक्सीजन वर्तमान और भविष्य दोनों पीढ़ियों के लिए अत्यंत भयावह है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि जब तक पर्यावरण सुरक्षित है, तब तक ही मानव का अस्तित्व संभव है। अत: पर्यावरण की रक्षा के लिए वनों, पहाड़ों और इस धरती का प्रदूषण रहित होना नितांत आवश्यक है।

प्रदूषण को कम करने के लिए पौधारोपण अत्यंत आवश्यक है। पेड़ों की शीतल छाया मां के आंचल के समान होती है। पेड़ों को सुरक्षित कर हम मानव सभ्यता को सुरक्षित कर सकते हैं। वर्तमान और भावी पीढ़ी को सुरक्षित एवं स्वस्थ्य रखने के लिए प्रत्येक मनुष्य को पौधारोपण की संस्कृति को जीवन में धारण करना ही पड़ेगा। पितृपक्ष के श्रेष्ठ अवसर पर हम कुछ ऐसा करें, जो पितरों और भावी पीढ़ी दोनों के लिए श्रेयस्कर हो। पितरों की याद में पौधारोपण या पौधा दान अवश्य करें। पौधारोपण से तात्पर्य किसी के लिए आश्रय का दान, किसी के लिए प्राणवायु आक्सीजन का दान और किसी के लिए मां के आंचल की तरह छाया का दान होगा। इससे पितरों को शांति और मोक्ष प्राप्त होगा। इसलिए आइए पितृ तर्पण और पेड़ अर्पण की दिव्य परंपरा को अंगीकार करें।

हमारी सभी परंपराओं का उद्देश्य अपनी धरती माता और पर्यावरण का संरक्षण करना है। भारतीय संस्कृति के मूल में स्थित पर्यावरण संरक्षण को अपने में समाहित करना होगा। इसके लिए प्रकृति और हमारे विकास के बीच सामंजस्य स्थापित करना होगा।

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