नृत्य के उत्सव में मग्न सृष्टि
इस संपूर्ण सृष्टि में ईश्वरीय यानी ब्रह्मांडीय नृत्य चल रहा है। इसका हरेक अणु और परमाणु नृत्य में लीन है। पृथ्वी अपनी धुरी पर नृत्य रत है। यह नृत्य का भाव आकाश के मेघ में है तो हवाओं के उल्लास में है।
मयंक मुरारी: इस संपूर्ण सृष्टि में ईश्वरीय यानी ब्रह्मांडीय नृत्य चल रहा है। इसका हरेक अणु और परमाणु नृत्य में लीन है। पृथ्वी अपनी धुरी पर नृत्य रत है। यह नृत्य का भाव आकाश के मेघ में है तो हवाओं के उल्लास में है। प्रकृति की लय और गति का नर्तन हमारी श्वास क्रिया, हृदय की धड़कन, कोशिकाओं में इलेक्ट्रान के चक्कर, ज्वार भाटा और ऋतुओं के परिवर्तन से होकर अनंत विस्तार में व्यक्त होता है। यह प्रकृति में नृत्य का उत्सव है, जिसमें फूल खिल रहे हैं, पक्षी गा रहे हैं और आकाश में सूर्य उगे हैं। यह नर्तन आंतरिक क्रिया है, जो स्वत: और स्फूर्त इस अस्तित्व में चल रहा है।
हरेक तत्त्व के केंद्र पर उस परम का आनंद प्रचुरता में प्रवाहित है, जिस कारण हरेक जड़-चेतन अपने देह की परिधि पर भावपूर्ण नर्तन करते हैं। भूमि पर मनुष्य गाते हैं, वनस्पतियां नृत्य करती हैं, तो शरीर के सभी कोशिकाओं के अंत:करण में भी उसी नृत्य की अभिव्यक्ति होती है, जिससे जीव विकास करता जाता है। इस नृत्य का द्वैतभाव विशेषता है। नर्तक शरीर है, नृत्य उसका कर्म। दूसरा, शरीर के लघुतम इकाई यानी कोशिकाओं में यह नृत्य परिपूर्ण होता है, जहां नर्तक भी नहीं बचता है, केवल नृत्य जारी रहता है। परमाणु के इस स्वरूप में बस नृत्य का अद्वैत ही रह जाता है।
अस्तित्व अनवरत नर्तन कर रहा है। यह उत्सव है। इस नृत्य के उत्सव से जीवन ऊर्जा निकलती है। देश और काल के आरंभ में जब देवता नहीं थे, तब सृष्टि सृजन के ठीक बाद ब्रह्म का सगुण रूप का उद्भव हुआ। जगत में जब कोई अपने अंदर ऊर्जा की बहुलता को अनुभव करता है, तो वह नृत्यरत हो जाता है। ऊर्जा का अतिरेक भाव ही हमेशा नृत्य कराता है और उसकी न्यूनता में व्यक्ति स्थिरता को प्राप्त होता है। ऊर्जा की प्रचुरता से इस सृष्टि का विस्तार हुआ और उसी शक्ति के कारण प्रकृति सदैव नर्तनरत है।
भगवान महादेव ने अपने अंदर उस ऊर्जा को देखा, इसलिए मनुष्य भी अपने अंत:करण में उस अनंत ऊर्जा की स्फुलिंग के दर्शन के लिए नृत्य करता है। शिव के लिए नर्तन ही ध्यान है और ध्यान ही उनके जीवन का उत्सव है। हम नृत्य के माध्यम से उस परम ऊर्जा के स्पंदन को छूने का प्रयास करते हैं। हमारे जीवन में नृत्य का कर्म उस अक्षत ऊर्जा के साथ खुद को एकात्म करने का प्रयास है। जब हम अपने प्राणों में भक्ति का रस भरते है, तो जीवन नाचने लगता है।
इस विराट में नृत्य की प्रमुख क्रिया का विस्तार और विसर्जन लगातार जारी है। एक क्रिया निखिल ब्रह्मांड में चल रही है। दूसरी नृत्य की क्रिया हमारे शरीर के सूक्ष्मतम केंद्र पर भी जारी है। यह जीवन का विस्तार है और यही विसर्जन भी। शरीर के भीतर उस करोड़-अरब सूक्ष्मतम केंद्रों पर जिस दिन यह नृत्य क्रिया रुक जाती है, उसी दिन यह विशाल शरीर भी रुक जाता है।
जिस पल इलेक्ट्रान उस केंद्र का चक्कर लगाना रोक देता है, उसी वक्त व्यक्ति भी रुक जाता है। ऊर्जा हरेक जीव में गतिशील है। जीवन से ऊपर पृथ्वी में चंद्रमा में अैर सूर्य में भी यही नर्तन है। यह हरेक केंद्र के चहुंओर नृत्य चल रहा है। चंद्रमा हमारी पृथ्वी का, तो पृथ्वी सहित नौ ग्रह अपने सूर्य का चक्कर लगाते हैं। सूर्य सहित आकाश के सारे तारे किसी अनंत विस्तार में स्थित अपने केंद्र की परिक्रमा करते हैं।
यह चक्कर और परिक्रमा का नृत्य निरंतर जारी है। केंद्र पर अवस्थित ऊर्जा के चहुंओर इलेक्ट्रान की गति है। यह ऊर्जा अपने स्वरूप में, शरीर में वही है, जो सूर्य और तारे में हैं। कहीं ऊर्जा अधिक है तो कहीं कम। शरीर में कम है, चंद्रमा में यहां से ज्यादा है। पृथ्वी पर उससे ज्यादा। सूर्य में अधिकतम ऊर्जा है।
इस ऊर्जा को ही मनोबल, गुरुत्व बल, आकर्षण, आत्मबल, ईश्वरीय शक्ति विविध नाम से पुकारा जाता है। हर तत्त्व की ऊर्जा अपनी ओर इलेक्ट्रान को आकर्षित करती है। इस आकर्षण के कारण ही व्यष्टि से लेकर समष्टि तक हरेक तत्त्व निरंतर नर्तन कर रहे है और उसके साथ हम भी सतत गतिशील हैं। कोई भी एक क्षण के लिए भी कहीं विराम नहीं करता है। अतएव यह सीख मिलती है कि हमको भी जीवन में हमेशा गतिशील रहना चाहिए। यह गति और यह जो नृत्य हमारे जीवन में है, वहीं सृष्टि में है। जो सृष्टि में हो रहा है, वही हमारे अंदर भी गतिमान है। इसलिए भारतीय जीवन की धारणा में जीवन के बाद मृत्यु नहीं है। जीवन का नवीनीकरण है। निरंतर नर्तन की यात्रा है।