श्रीलंका : राजवंश का दंश

श्रीलंका में हालात बेहद तनावपूर्ण हो चुके हैं। कोई नहीं जानता आगे क्या होगा? देश आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से पूरी तरह अस्थिर हो चुका है। लोग सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं।

Update: 2022-04-06 03:49 GMT

आदित्य चोपड़ा: श्रीलंका में हालात बेहद तनावपूर्ण हो चुके हैं। कोई नहीं जानता आगे क्या होगा? देश आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से पूरी तरह अस्थिर हो चुका है। लोग सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं। प्रदर्शनकारी आक्रामक हो रहे हैं। आपातकाल और कर्फ्यू बेअसर हो रहा है। प्रदर्शनकारियों का एक ही नारा है 'गोटाबाया घर जाओ'। अब दुनिया भर में रहने वाले श्रीलंकाई नागरिक भी इस मुहिम से जुड़ चुके हैं और दुनियाभर में गोटाबाया के इस्तीफे की मांग तेज हो चुकी है। श्रीलंका सरकार अपने ही लोगों पर जुल्म ढाह रही है। राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने विपक्ष को सरकार में शामिल होने का अनुरोध किया था जिसे विपक्ष ने ठुकरा दिया है। विपक्ष का कहना है कि राजपक्षे परिवार ही श्रीलंका की सत्ता पर राज कर रहा था और वे निरंकुश शासक बन बैठे थे और इस परिवार ने मिलकर देश की व्यवस्था को तबाह कर दिया है। अब राजपक्षे परिवार को सत्ता छोड़नी होगी। अब राजपक्षे की पार्टी के अपने लोग भी सरकार से मुक्ति चाहने लगे हैं। वैसे जिस-जिस देश में राजवंश या परिवारवाद का बोलबाला रहा है उनका ट्रैक रिकार्ड अच्छा नहीं रहा तभी तो समय के साथ राजवंश का शासन अब कई देशों में सांकेतिक ही रह गया है। शाही परिवारों के शासन के लोगों ने बहुत कड़वे अनुभव चखे हैं। श्रीलंका सरकार में पांच राजपक्षे रहे। राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे, प्रधानमंत्री महिन्द्रा राजपक्षे, सिंचाई मंत्री चमल राजपक्षे और प्रधानमंत्री के बेटे नमल राजपक्षे। वे संशयवादियों को पारिवारिक बेदगीवाद की याद दिलाते हैं, जो आमतौर पर श्रीलंका में अतीत में भंडारनायके शासन वंश के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला शब्द है। देश के लगभग 2.30 करोड़ लोगों के लिए इसका मतलब एक शक्तिशाली परिवार द्वारा संचालित किया जाना है, जिसने भारतीय मूल के तमिलों का नरसंहार कर उनके अधिकारों को कुचल कर उनके प्रति घृणा का माहौल पैदा कर सिंहल-बौद्ध राष्ट्रवादियों के अपने मूल समर्थन आधार से राजनीतिक वैधता हासिल की। श्रीलंका में परिवारवाद के शासन के केन्द्र में मौजूदा प्रधानमंत्री और दो बार के पूर्व राष्ट्रपति महिन्द्रा राजपक्षे हैं जिन्होंने चीन की मदद से लिट्टे का सफाया कर खुद को 'युद्ध विजेता' के तौर पर पेश किया और मैत्रीपाला सिरिसेना काे पराजित कर सत्ता पर कब्जा किया। कौन नहीं जानता कि लिट्टे का सफाया करने में राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे का बड़ा हाथ रहा। उन पर युद्ध के दौरान अपराध करने और मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोप लगते रहे हैं। राजपक्षे वंश के सदस्यों ने म्यूजिक चेयर की तरह खेल खेला और गोटाबाया राष्ट्रपति बन गए और महिन्द्रा राजपक्षे प्रधानमंत्री बन गए। परिवार अपने अधिकार बढ़ाता चला गया और परिवार के पांचवें सदस्य को सरकार में शामिल करने के लिए संविधान में संशोधन कर डाला। प्रत्येक ने अपनी-अपनी अलग ताकत कायम कर ली। ऐसा राजवंश न तो सुसंगत होता है और न ही दुर्जेय। दबाव हमेशा प्रशासन के भीतर से ही उपजता है। जनता के आक्रोश को देखते हुए श्रीलंका मंत्रिमंडल ने सामूहिक रूप से इस्तीफा दे दिया है लेकिन बड़े संदर्भ में देखें तो देश का आर्थिक संकट, गिरता राजस्व, तेजी से खाली हुआ विदेशी मुद्रा भंडार और कोरोना महामारी की तीसरी लहर का सामना करने में ​विफलता के बीच लोगों का राजपक्षे परिवार में मोह भंग हो चुका है। इस स्थिति में भाइयों का सामूहिक राजनीतिक नेतृत्व क्षमता का खोखलापन सामने आ चुका है।अब सवाल यह है कि सोने की लंका दाने-दाने को मोहताज क्यों हुई। श्रीलंका को भारत के एक वर्ष बाद 1948 में ब्रिटिश शासन से आजादी मिली थी। यानी भारत और श्रीलंका लगभग एक साथ ही आजाद हुए थे। श्रीलंका कभी भी भारत की तरह राजनीतिज्ञ स्थिरता हासिल नहीं कर पाया। वर्ष 1983 से 2007 तक वहां 26 वर्ष लम्बा गृहयुद्ध चला। लिबरेेन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम यानी लिट्टे श्रीलंका के तमिलों के लिए एक अलग देश की मांग कर रहा था। श्रीलंका ने भयंकर गलतियां कर दीं। उसने अपनी अर्थव्यवस्था को दूसरे देशों से लिए गए कर्ज पर ​निर्भर बना दिया। वर्ष 2016 में श्रीलंका पर 46 बिलियन डालर यानी 3 लाख 45 हजार करोड़ का कर्ज था जो अब दोगुने से भी ज्यादा हो गया है। जितना उस पर कर्ज है, जाे उसकी सालाना जीडीपी के बराबर है। वह ऋण लेकर घी पीता गया। उसे याद ही नहीं रहा कि ऋण ब्याज समेत लौटाना भी पड़ता है। चीन ने श्रीलंका की इसी कमजोरी का फायदा उठाया और उसे कर्ज के जाल में फंसा दिया । ​श्रीलंका ने कर्ज का इस्तेमाल सही ढंग से नहीं किया। अगर वह यह धन औद्योगिक क्षेत्र पर खर्च करता तो आय का नया स्रोत पैदा होता। उसने कभी आत्मनिर्भर बनने की को​ शिश नहीं की। नमक, कपड़ा, कागज और कपड़ा सीने के लिए छोटी सुई तक के​ लिए वह दूसरे देशों पर निर्भर हो गया। अब उसके पास पैसे ही नहीं बचे। श्रीलंका की बदहाली की बड़ी वजह मुफ्तखोरी की राजनीति भी है। चुनावी वादे को पूरा करने के लिए राजपक्षे परिवार ने वस्तुओं और सेवाओं पर लगाए जाने वाले वैट को घटाकर आधा कर दिया,​जिसमे श्रीलंका को बहुत नुक्सान हुआ। भारतीय नौकरशाहों ने भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से बैठक के दौरान राज्य सरकारों द्वारा की जा रही मुफ्तखोरी की राजनीति के प्रति आगाह किया है। श्रीलंका और पाकिस्तान की अस्थिरता भारत के​ लिए चिंता का विषय है। श्रीलंका की ​स्थिति के​​ लिए राजपक्षे परिवार की आर्थिक नीतियां जिम्मेदार हैं। अब इस सरकार का जाना ही उचित है। 

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