कल्पनाओं के बीज

Update: 2025-01-09 11:12 GMT
Vijay Garg: मन मस्तिष्क के भीतर किसी भी विषय से संबंधित उत्पन्न होने वाले विचारों के समूह को ही कल्पना कहा जाता है। सच कहा जाए तो कल्पना ही वह आधार है, जिस पर वास्तविकता की विशालकाय इमारत तैयार होती है। वास्तविकता रूपी रेखा का आरंभिक बिंदु कल्पना होती है और बिना एक बिंदु से शुरुआत किए रेखा की रचना कर पाना असंभव कार्य है। मनुष्य का जीवन प्रकृति प्रदत्त क अमूल्य और अद्वितीय उपहार है। सकारात्मकता से परिपूर्ण जीवन में बहुत सारे उद्देश्य और लक्ष्य निहित रहते हैं ।
किसी उद्देश्य की सफल पूर्ति के लिए यह नितांत आवश्यक है कि उससे संबंधित एक अर्थपूर्ण योजना तैयार की जाए और उस योजना के आधार पर धीरे-धीरे क्रियान्वयन से पूर्णता की तरफ कदम बढ़ाया जाए। मगर लक्ष्य की योजना एक व्यवस्थित आकार ले सके, इसके लिए पहली और अनिवार्य शर्त यह है कि योजना को कल्पना के धरातल पर व्यवस्थित रूप में उकेरा जाए। एक बार अगर कल्पना ने सुंदर आकार ले लिया, तो फिर वास्तविकता को आकर्षक रूप लेने से कोई नहीं रोक सकता है। वास्तविकता एक विशालकाय वृक्ष का रूप ले सके, इसके लिए यह परम आवश्यक है कि कल्पना भली-भांति एक बीज का रूप लेकर मन मस्तिष्क में घर बनाए । यहां एक बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि जैसा बीज होगा, निश्चित रूप से वृक्ष भी वैसा ही तैयार होगा। यह सोच कर देखा जा सकता है कि अगर बीज कंटकों का बोया है, तो फिर कुसुमों की अपेक्षा करना कहां तक अर्थपूर्ण है। अगर कल्पना में रचनात्मकता का समावेश है, तो निश्चित रूप से वह व्यक्ति को सृजन और सकारात्मकता की ओर उन्मुख करेगी। ऐसी कल्पना से उपजी वास्तविकता भी निस्संदेह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के लिए कल्याणकारी होगी।
दूसरी तरफ अगर कल्पना में विध्वंस या नकारात्मकता की पृष्ठभूमि निर्मित हो गई है, तब ऐसी स्थिति में जन्म लेने वाली वास्तविकता किसी भी रूप में उपयोगी और अर्थपूर्ण नहीं हो सकती। एक उत्कृष्ट उदाहरण के तौर पर देखें तो विज्ञान और साहित्य, दोनों ही कल्पना की उपज हैं। विज्ञान का कोई भी सिद्धांत ऐसा नहीं है, जिसको अस्तित्व में लाने से पूर्व उसे कल्पना को वास्तविक रूप में आकार देकर, जमीन पर उतार कर कसौटी पर परखा और जांचा न गया हो। आज तकनीकी दिन प्रतिदिन नवीन और बड़े-बड़े आयामों को स्पर्श करती जा रही है। इस प्रगति के मूल में कहीं न कहीं एक छोटी- सी कल्पना ही समावेशित है। साहित्य का सृजन भी बिना कल्पना का सहारा लिए संभव नहीं है। यह एक शाश्वत सत्य है कि जिस स्तर की कल्पना होगी, उसी स्तर की वास्तविकता भी घटित होगी ।
कल्पना अगर आशा की किरणों से अभिसिंचित है, तो निश्चित रूप से वास्तविकता भी सकारात्मक परिणाम से परिपूर्ण होगी। इसके विपरीत अगर कल्पना के अंदर लेशमात्र भी नकारात्मकता और निराशा जैसे भाव भरे हुए हैं तो वास्तविकता का किसी भी दशा में आशा से कोई संबंध नहीं होगा। कल्पना की एक विशेषता यह भी है कि यह पूर्णरूपेण वास्तविकता में परिणत नहीं होती। कल्पना किस सीमा तक वास्तविकता का रूप लेगी, यह कई कारकों द्वारा निर्धारित होता है। इन कारकों में परिवेश की प्रकृति, परिश्रम का स्तर और भाग्य प्रमुख हैं। छोटे से लेकर बड़े तक किसी भी कार्य या लक्ष्य की सफल सिद्धि के लिए हमारा आरंभिक बिंदु कल्पना ही होना चाहिए।
अगर अपने उद्देश्य की संपूर्ण योजना को हमने विधिवत और सुंदर रूप में कल्पना के खाके में उतार लिया, तो इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि हमारे कार्य ने पूर्णता की दिशा में आधी दूरी तय कर शेष बची आधी दूरी को तय करके पूर्णता तक पहुंचना नितांत सहज हो जाता है। अंतर्मन में कल्पना का बीज बोते समय व्यक्ति को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि अंतर्मन की भूमि में किसी तरह का कोई तनाव न उत्पन्न होने पाए। तनाव एक ऐसा घातक तत्त्व है जो अंतस की उर्वरा शक्ति को धीरे-धीरे क्षीण करते हुए समाप्ति की ओर ले जाता है। मन जितना तनावमुक्त होगा, उसकी उर्वरा शक्ति उतनी ही उत्तम होगी। यह विचार करने की जरूरत है कि किसी बंजर भूमि में बीज बोने पर क्या घटित होगा। वह बीज उसी भूमि में दम तोड़ने को विवश हो जाएगा।
बीज को अंकुरित, पुष्पित और पल्लवित होने की अवस्था प्राप्त करने के लिए एक अनिवार्य शर्त यह है कि उसे एक उर्वरा भूमि के अंक में खेलने का सौभाग्य प्राप्त हो । कल्पना के बीज को भी वास्तविकता के वृक्ष के रूप में तैयार होने के लिए यह परम आवश्यक है कि हमारा अंतर्मन पूरी तरह से स्वतंत्र हो । किसी भी तरह का लेशमात्र तनाव या बंधन हमारे अंतर्मन को कल्पनारूपी बीज के प्रस्फुटन के लिए अनुकूल दशाएं प्रदान करने से रोक देता है। कल्पना का संसार बहुत विशद और असीम होता है। इसमें अनंत संभावनाएं विद्यमान रहती हैं, लेकिन इतना अवश्य है कि ये संभावनाएं द्विविमीय होती हैं । कहने का आशय यह है कि कल्पना के विशाल जगत में एक ओर प्रगति की संभावनाएं हैं तो दूसरी ओर अवनयन की । एक ओर सृजन की संभावनाएं हैं तो दूसरी ओर विनाश की। एक ओर उत्साह की संभावनाएं हैं तो दूसरी ओर हताशा की । एक ओर सत्य की संभावनाएं हैं तो दूसरी ओर असत्य की। इस असीम कल्पनाकोश में सबसे महत्त्वपूर्ण और ध्यान देने योग्य बिंदु यही है कि हम किस दिशा को चुनें। सही दिशा और सही विषय को चयनित करने के बाद ही हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि हमारी कल्पना के बीज से प्रस्फुटित होने वाली वास्तविकता अर्थपूर्ण, उद्देश्य से युक्त और मानवजाति के लिए कल्याणकारी होगी।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
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