जयकिशन की 50वीं पुण्यतिथि पर विशेष, शंकर-जयकिशन: धुनों की 'बरसात' करने वाली जादुई जोड़ी

भारत में सिनेमा की लोकप्रियता का सबसे बड़ा आधार उसका गीत-संगीत रहा है

Update: 2021-09-12 08:29 GMT

अजीत कुमार। मुंबई. भारत में सिनेमा की लोकप्रियता का सबसे बड़ा आधार उसका गीत-संगीत रहा है. हिन्दी सिनेमा की कल्पना बगैर उसके गीत और संगीत के करना संभव नहीं. जब हमारी फिल्में बोलती नहीं थी तब भी थियेटर में फिल्म को संगीतमय बनाने के लिए फिल्म की स्टोरी/कथानक के मुताबिक अलग से संगीत/म्यूजिक की व्यवस्था की जाती थी जो फिल्म के साथ-साथ चलती थी. लेकिन हमारे यहां हमेशा श्रेष्ठ बनाम कमतर, गंभीर बनाम लोकप्रिय का द्वैत कुछ ज्यादा ही रहा है. और सिनेमा को तो इस देश में एक अलग विधा के तौर पर कभी देखा ही नहीं गया. इसलिए इस बात की अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि सिने संगीत को एक अलग विधा के तौर पर जांचा या परखा जाए.

सिने संगीत के ज्यादातर जानकार सिने संगीत को या तो शुद्धता की कसौटी पर परखते रहे या उसमें जबरन शास्त्रीयता की खोज करते रहे. ये जानकार उन कुछ संगीतकारों को शुद्धतावादी या अपनी परंपरा चाहे वह शास्त्रीय संगीत हो या लोक संगीत, के ज्यादातर नजदीक बताते रहे. जबकि कुछ को वह कमतर बताते रहे, वह भी सिर्फ इसलिए कि उनके संगीत में उन्हें शास्त्रीयता और लोकसंगीत का शुद्ध रूप देखने को नहीं मिला. मजेदार बात यह है कि सिनेमा के संगीत का विकास शास्त्रीयता के विरूद्ध नहीं कहे तो इसके समांतर या विकल्प के तौर पर ही हुआ. अशरफ अजीज ने अपनी किताब 'लाइट ऑफ द यूनिवर्स ' में भी इस बात का जिक्र किया है. फिल्म बैजू बावरा के कथानक को आधार बनाकर अशरफ अजीज ने यह कहने की कोशिश की है कि हिन्दी फिल्मों के संगीत को शास्त्रीय संगीत की परंपरा के विस्तार के बजाय इसके विकल्प के तौर पर देखना ज्यादा उचित होगा. जबकि जानकारों ने महान फिल्म संगीतकार नौशाद को शास्त्रीय और लोक संगीत की परंपरा के सबसे नजदीकतर माना.
ये सारी बातें इसलिए क्योंकि आज हम बात करेंगे महान फिल्म संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन (Shankar–Jaikishan) की. हालांकि फिलहाल बात तो सिर्फ इस जोड़ी के जयकिशन (4 नवंबर 1929-12 सितंबर 1971) पर करना चाहता था क्योंकि 12 सितंबर को उनकी 50वीं पुण्यतिथि है. इस संगीतकार जोड़ी में से किसी एक पर अलग से बात करना बेमानी होगा. क्योंकि जब तक दोनों साथ रहे, सारे काम का श्रेय भी उन्हें इकठ्ठा मिला. दोनों को अलग-अलग करके देखने की जितनी जानकारियां उपलब्ध हैं, उनकी पुख्ता तौर पर पुष्टि करना शायद ही संभव हो. इसलिए जयकिशन के बहाने आज हम इस जोड़ी को याद करेंगे.
हमने शुरुआत में संगीतकारों के प्रति जानकारों के रवैये और सोच की बात महज इसलिए की क्योंकि शंकर-जयकिशन की जोड़ी इसकी सबसे बड़ी शिकार रही. कुछ जानकारों ने तो इस जोड़ी को महज बैंड मास्टर तक कहा.
खैर अब बात करते हैं शंकर जयकिशन के संगीत की. शंकर-जयकिशन का आगमन जिस समय हुआ, उस समय फिल्म संगीत अपने पारंपरिक स्वरूप से निकलने की कोशिश कर रहा था. पारंपरिक स्वरूप से मतलब यहां सीमित वाद्य यंत्रों के साथ एक सरल धुन की रचना से है अगर पर्दे पर अभिनेता-अभिनेत्री गायिकी की बारीकियों को नहीं समझते. और अगर पर्दे पर अभिनेता और अभिनेत्री को संगीत की बारीकियों की समझ है तो शास्त्रीयता के रंग में एक सरल धुन की रचना. लेकिन इन संगीत रचनाओं में आर्केस्ट्राइजेशन, हार्मोनी और विविधता का अभाव था. लेकिन खेमचंद प्रकाश, अनिल विश्वास, गुलाम हैदर और नौशाद अली जैसे महान संगीतकार आर्केस्ट्राइजेशन और हार्मोनी के साथ साथ और भी प्रयोगों के सहारे फिल्म संगीत की अलग शिल्प और शैली रचने में लगे हुए थे. जिससे फिल्म संगीत की लोकप्रियता में भी काफी इजाफा हो रहा था. लेकिन सही मायनों में सिने विधा के समांतर फिल्म संगीत को अलग पहचान महान संगीतकार शंकर-जयकिशन ने ही दी. उनके संगीत की लोकप्रियता के किस्से तो आपको हर जगह मिल जाएंगे. लोकप्रियता के आंकड़े भी इस बात की गवाही देंगे. लेकिन फिर भी उनके योगदान को उस तरह से आज याद नहीं किया जाता जिसके वे वाकई हकदार हैं. लोकप्रियता के खतरे उन्हें भी उठाने पडे. क्योंकि लोकप्रियता का एक आसान मतलब निकाला जाता है गंभीरता का अभाव या कहें अगंभीर.
शंकर-जयकिशन ने सिने संगीत का जो रूप तैयार किया वह बिल्कुल सिनेमा के दायरे में था. और हमारी सिनेमा के विकास की यात्रा की थोड़ी सी भी समझ रखने वालों को यह पता होगा कि तकनीक से लेकर कथानक तक जो भी हमारी फिल्मों में आया, विकसित हुआ उसका कोई अपना मौलिक रंग नहीं था. सिनेमा की तकनीक तो बाहर की थी ही, कथानक से लेकर संगीत और संवाद पर पारसी थियेटर का रंग था. कथानक और तकनीक को लेकर जो प्रवृत्तियां बाहर विकसित हो रही थी, हमारे यहां भी उन प्रवृत्तियों को रजत पट पर जैसे भी हो (सफल या असफल रूप में) उतारने की कोशिश की जाती रही. तो फिर सिने संगीत को लेकर यह दुराग्रह क्यों कि उस पर बाहर की धुनों का असर न हो, ज्यादा आर्केस्ट्राइजेशन नहीं हो …… वगैरह.
शंकर-जयकिशन की जोड़ी ने सबसे पहले फिल्म बरसात में दिया था संगीत
शंकर-जयकिशन की पहली फिल्म बरसात की बात करते हैं. आपको एक विभाजक रेखा खींचनी होगी कि बरसात से पहले का संगीत और बरसात के बाद का संगीत. अगर ऐसा नहीं होता तो महबूब खान साहब नौशाद अली से यह नहीं कहते कि आपके गीतों को तो बरसात ने धो डाला. मालूम हो कि जिस साल यानी 1949 में बरसात रिलीज हुई ठीक उसी वर्ष महबूब खान की फिल्म अंदाज भी रिलीज हुई थी, जिसकी संगीत रचना नौशाद की थी. जबकि नौशाद की लोकप्रियता उस समय के संगीतकारों में सबसे ज्यादा थी. बैनर महबूब प्रोडक्शंस भी काफी बड़ा था. लेकिन जो अहसास और रंग बरसात के गीतों में थे उनकी कोई मिसाल नहीं थी. इस असर या रंग को आप संगीत के प्रचलित मुहावरों और मानकों पर कस नहीं सकते. जब भी कोई नई प्रवृत्ति सामने आती है, कोई कालजयी कृति रची जाती है, उसे घिसेपिटे मानको पर परखना उचित नहीं होता.
राजकपूर के लिए बरसात अग्निपरीक्षा से कम नहीं थी. हालांकि इससे पहले भी वे आग के लिए निर्माता निर्देशक की भूमिका निभा चुके थे लेकिन अपनी पहली फिल्म के तमाम प्रयोगों से वे मुतमईन/मुतमइन नहीं थे. उन्हें लग रहा था कि असल में जो वह सिनेमा के पर्दे पर उतारना चाहते हैं उसके लिए उन्हें अभी तक मनमाफिक टीम नहीं मिली है, इसलिए उन्होंने अपने प्रयोग को बरसात में भी जारी रखा. यहां मैं यह भी बताना चाहूंगा कि शंकर-जयकिशन राजकपूर की पहली फिल्म आग में संगीत निर्देशक राम गांगुली के साथ साजिंदे के तौर पर काम कर रहे थे. लेकिन फिल्म के प्रोडक्शन कंट्रोलर इंदर राज आग के संगीत निर्माण की पूरी प्रक्रिया पर नजर जमाए हुए थे. शंकर-जयकिशन की फिल्म संगीत की समझ को लेकर आखिर उन्होंने राजकपूर से उन दोनों को बतौर स्वतंत्र संगीतकार मौका देने की सिफारिश की. अंततः राजकपूर ने भी फिल्म बरसात के लिए शंकर-जयकिशन के नाम पर मुहर लगा ही दी.
बहुतों को यह नहीं मालूम कि बरसात के लिए भी शुरू में राम गांगुली को ही बतौर संगीतकार रखा गया था. और कुछ बातों पर हुए विवाद के बाद उनकी जगह पर शंकर-जयकिशन को लिया गया. बरसात के गीत संगीत की कामयाबी के बाद राज साहब को अहसास हो गया कि गीत और संगीत को लेकर शंकर-जयकिशन शैलेंद्र और हसरत परफेक्ट हैं और फिर शैलेंद्र के निधन तक ये सभी सभी साथ-साथ रहे. राजकपूर का एक ही साथ अपनी फिल्मों के लिए दो गीतकारों और संगीतकारों को रखने के पीछे भी समन्वय का मंत्र काम कर रहा था.
संगीत को लेकर जहां शंकर (15 अक्टूबर 1922-26 अप्रैल 1987) की हिंदुस्तानी शास्त्रीय व कर्नाटक संगीत पर गहरी पकड़ थी और भाव प्रधान व नृत्य आधारित गीतों की रचना में उन्हें महारथ हासिल था. वहीं जयकिशन की हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के साथ साथ पाश्चात्य संगीत/ऑर्केस्ट्रेशन की भी अच्छी समझ थी, जिसकी वजह से वे पार्श्व यानी बैक ग्राउंड म्यूजिक और रूमानी गीतों की संगीत रचना में पारंगत थे. बरसात से पहले पृथ्वी थियेटर में जहां शंकर तबला बजाते थे वहीं जयकिशन हारमोनियम. शंकर इससे पहले अपने समय के नामी संगीतकार ख्वाजा खुर्शीद अनवर और हिंदी सिनेमा की पहली संगीतकार जोड़ी हुसनलाल-भगतराम के साथ भी काम कर चुके थे.
बरसात में राजकपूर, शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, शंकर और जयकिशन एक दूसरे से मिले. इस मिलन ने भारतीय सिनेमा को कितनी महत्वपूर्ण उपलब्धियां दीं, यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. बरसात वह फिल्म थी जिसने फिल्म संगीत को बिल्कुल नई ताजगी और जिंदगी प्रदान की. घिसेपिटे बोलों, उबाऊ शास्त्रीयता और प्रचलित मुहावरों (बंगाली लोकगायन, पंजाबी ठेका) के उलट श्रोता पहली बार भारतीय और पश्चिमी वाद्य यंत्रों के अदभुत आर्केस्ट्राइजेशन (60-पीस आर्केस्ट्रा) और हार्मोनिक रिद्म से उपजी स्वर लहरी में झूमकर अभिभूत हुए.
मेलोडी का जो रंग बरसात के गीतों में उभरकर आया वह पहले हिंदी फिल्म में कभी नहीं देखा गया था. रागों को फ़िल्मी गीतों में उतारने का शंकर-जयकिशन का तरीका भी नायाब था. उनके संगीत में पारंपरिक भारतीय वाद्य यंत्रो का प्रयोग भी सबसे अलग अंदाज में देखने को मिला. कुछ रागों को लेकर तो शंकर-जयकिशन की सिद्धहस्तता इतनी थी कि राग और वे एक दूसरे के पूरक हो गए. भैरवी एक ऐसा ही राग था. इस सदाबहार राग में दोनों ने हिंदी सिनेमा को सर्वाधिक रचनाएं दीं. एक समय तो शंकर और जयकिशन को लेकर एक अलग भैरवी यानी शंकर-जयकिशन भैरवी कहने तक का प्रचलन हो गया था. जयकिशन ने तो अपनी बेटी का नाम तक भैरवी (भैरवी जयकिशन) रख दिया.
बरसात के कुल 10 गीतों में 5 राग भैरवी पर आधारित थे
इनकी पहली फिल्म बरसात के कुल 10 गीतों में 5 राग भैरवी पर आधारित थे. ये गीत थे – बरसात में हमसे मिले तुम, मुझे किसी से प्यार हो गया, अब मेरा कौन सहारा, छोड़ गए बालम, मैं जिंदगी में हरदम रोता ही रहा हूं. अपनी संगीत रचनाओं में शंकर ने सही मायने में भैरवी को सदा सुहागन बनाया. ऐसा कोई रंग नहीं था, जिसे शंकर-जयकिशन ने भैरवी में न ढाला हो. राग को लेकर शंकर-जयकिशन का यह प्रयोग अपने आप में अन्यतम था.
पश्चिम की धुनों का भी शंकर-जयकिशन ने अपनी फिल्मों व रचनाओं में प्रयोग किया. उनके ये प्रयोग हमेशा विलक्षण बनकर उभरे. मेलांकली और दर्द भरे गीतों को रिद्मिक बनाने की शुरुआत भी यहीं से हुई. कहें तो आरके के संगीत में मेलोडी के साथ मेलांकली ऐसे अविकल प्रवाहित होती थी, जिसका अहसास थमने के बाद ही शुरू होता था. मेलांकली की सही तस्वीर शंकर-जयकिशन के गीतों में ही देखने को मिलती है. अव्वल तो उनके यहां जिंदगी कभी ठहरी मिलती ही नहीं. और दुख और सुख तो इसी जिंदगी के दो पहलू हैं. फिर दुख को बांध के उसे और गंदला और विगलित करने में वे विश्वास क्यूं करते. उन्हें तो विश्वास था दुख और दर्द का बरसात की बूँदों सा पवित्र होने में. जीवनदायिनी बनाने में, सृजन का आधार रचने में.
बरसात के दर्दीले गीतों जैसे मैं जिंदगी में हरदम रोता ही रहा हूं…, बिछडे हुए परदेसी एक बार तो आना तू… , अब मेरा कौन सहारा… और छोड़ गए बालम मुझे हाय अकेला छोड़ गए… से पहले क्या दर्द भरे गीतों को कोई तेज धुनों पर सजाने की सोच सकता था. कहें तो फिल्म बरसात का संगीत ही पूरी तरह से बरसात की माफिक था जिसने श्रोताओं के अहसासों को जी भर के भिंगोया. भौतिक व आध्यात्मिक, दिल व दिमाग, तन व मन या कहें भारतीय व पश्चिम, गजब का संयोग और समन्वय था एसजे के संगीत में.
इस फिल्म में लता के गाए कुल 8 गीत, 6 एकल गीत और मुकेश के साथ 2 युगल गीत थे. और सारे गीतों का रंग एक दूसरे से जुदा था. यहां तक कि इसमें हिन्दी फिल्मों का पहला कैबरे सॉन्ग पतली कमर है….. भी शामिल था. हालांकि लता की आवाज का जादू इसी वर्ष रिलीज हुई अन्य फिल्मों अंदाज, महल और बडी बहन में भी था. लेकिन इन फिल्मों में वह नूरजहां के असर से निकल नहीं पायी थी. कहें तो बरसात से ही लता की गायिकी की मौलिकता और विविधता लोगों के सामने आई.
'शंकर कहा करते थे मेरे लिए गीत के बोल चित्र यानी पोर्टेट हैं जबकि धुन फ्रेम'
शंकर कहा करते थे मेरे लिए गीत के बोल चित्र यानी पोर्टेट हैं जबकि धुन फ्रेम. कहें तो शंकर-जयकिशन का फ्रेम पहले तैयार करने का एक ही मकसद होता था, गीतकार के निराकार, निर्गुण को आकार देना, सगुण बनाना. एक बात और बरसात से ही शुरू किया शंकर-जयकिशन ने टाइटल यानी यानी शीर्षक गीत का प्रचलन. और हिंदी फिल्मों का पहला शीर्षक गीत था…….बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम…., जिसको महान गीतकार शैलेंद्र ने लिखा था. गीत लेखन को लेकर जहां शैलेंद्र के यहां पूरब का रंग था वहीं हसरत जयपुरी के यहां पश्चिम का रंग. पूरब और पश्चिम के रंग को हिंदी और उर्दू से भी जोड़कर देखा जा सकता है. ऐसे भी कहा जाता है कि शंकर की जहां शैलेंद्र से ज्यादा छनती थी, वहीं जयकिशन की हसरत जयपुरी से.
बरसात के संगीत में प्रयोगों पर थोड़ा और ठहर रहा हूं. बरसात से पहले ऑर्केस्ट्रेशन और पश्चिमी बीट्स का इस्तेमाल सिर्फ फिलर के तौर पर होता था मतलब साफ मुखड़े और अंतरे के बीच खाली स्पेस को भरने के लिए होता था. लेकिन ऑर्केस्ट्रेशन का एक नए और विलक्षण अंदाज में बतौर प्रील्यूड, इंटरल्यूड, काउंटर मेलोडी और एपीलाग इस्तेमाल बरसात से ही शुरू होता है. प्रील्यूड का मतलब मुखड़े की शुरुआत से पहले गीत की भावभूमि बनाने के लिए प्रयुक्त संगीत, इंटरल्यूड मतलब मुखड़े और अंतरे के बीच का संगीत और एपीलाग यानी गीत की समाप्ति के लिए प्रयुक्त होने वाला संगीत का टुकडा. शंकर-जयकिशन से पहले संगीतकार मुखड़े और विभिन्न अंतरों के बीच सामान्यतया एक ही तरह के इंटरल्यूड का इस्तेमाल करते थे लेकिन इस युगल संगीतकार ने मुखड़े और विभिन्न अंतरों के बीच अलग-अलग तरह के इंटरल्यूड का प्रयोग किया. साथ ही युगल गीतों की गायिकी के तरीके को भी प्रभावी बनाने के लिए नए प्रयोग किए.
बरसात से पहले नायक नायिका क्रमिक अंतराल पर गीत का अलग अलग हिस्सा गाते थे. सीधे कहें तो अगर नायक मुखड़ा गाता था तो नायिका अंतरा या पहला अंतरा अगर कोई एक गाता था तो दूसरा अंतरा कोई दूसरा. लेकिन बरसात के युगल गीत छोड़ गए बालम मुझे हाय अकेला छोड़ गए….. में मुखड़े के साथ साथ साथ ही स्लो फेड इन में लता का आलाप भी चलता है. एक ही साथ दो अलग अलग टेंपोरेलिटीज यानी ओवरलैपिंग टेंपोरेलिटीज का इस्तेमाल शंकर-जयकिशन की युगल संगीत रचनाओं का हॉलमार्क है.


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