15 अगस्त जन्मदिन विशेष: महर्षि अरविंद के विचारों ने दी देश को नई दिशा

15 अगस्त अपनी देश की आजादी का दिन तो है ही। यह दिन एक और वजह से भी खास है

Update: 2021-08-16 16:36 GMT

मोहन सिंह। 15 अगस्त अपनी देश की आजादी का दिन तो है ही। यह दिन एक और वजह से भी खास है। 15 अगस्त 1872 को महर्षि अरविंद का जन्मदिन भी है। देश की आजादी के वक्त उनकी आयु पचहत्तर साल थी। भारत के जीवन में अगस्त महीने का देश की आजादी, भारत छोड़ो आंदोलन के साथ साथ महर्षि अरविंद के जन्मदिन की वजह से भी एक खास महत्व है। श्री अरविंद के विचारों का देश की क्रांतिकारी और राष्ट्रवादी आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा।

बंग भंग आंदोलन के समय वे महाराज बड़ोदा राज्य की सेवा से मुक्त होकर देश की आजादी के आंदोलन में पूरे समर्पण के साथ शामिल हुए। देश के लिए पूर्ण स्वराज हासिल करने के लक्ष्य को सामने रखकर। एक ऐसे वक्त जब देश की आजादी के आंदोलन में शामिल कांग्रेस पार्टी के अधिकतर नेता ब्रिटिश हुकूमत के तहत डोमिनियन राज्य का दर्जा हासिल करने से ज्यादा कुछ सोच और कर नहीं पाते थे। तब कांग्रेस पार्टी भी सालाना बैठक करने,पार्थना पत्र देने,आरोप पत्र दाखिल के प्लेटफार्म से ज्यादा ताकतवर मंच नहीं था।
श्री अरविंद, कांग्रेस के तिकड़ी के रूप में मशहूर लाल,बाल, पाल के विचारों से प्रभावित हुए। श्री अरविंद की स्पष्ट मान्यता है कि भारत को पूर्ण स्वराज इस लिए चाहिए कि उसे दुनिया का आधात्मिक नेतृत्व करना है। पूर्ण स्वराज के बिना वह इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। मानव प्रगति के अगले चरण में भैतिक नहीं,आध्यत्मिक, नैतिक और अतीन्द्रिय विकास करना है। इसके लिए स्वतंत्र एशिया और स्वतंत्र भारत को अगुआ होना चाहिए। उनका सपना आध्यात्मिक राष्ट्रवाद पर आधारित विश्व संघ की स्थापना करना था।
सन् 1947 में अपनी लिखी पुस्तक मानवीय एकता में श्री अरविंद बताते है कि 'मानवीय एकता एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। आने वाले विश्व में यह अवश्य पूरा होगा।ऐसा तब सम्भव होगा,जब हम महसूस करेंगे कि इस पृथ्वी पर हम ईश्वर की सर्वोच्च सत्ता के सर्वोत्तम प्रतीक है।जगत के कण कण में ईश्वर का वास है'।
महर्षि अरविंद का राष्ट्रवाद किसी एक देश ,जाति, भाषा, धर्म तक सीमित संकीर्ण राष्ट्रवाद नहीं था। राष्ट्र एक भौगोलिक इकाई मात्र नहीं, बल्कि एक जैविक इकाई है। श्री अरविंद के विचार में, राष्ट्रवाद एक धर्म है, जो ईश्वर की ओर से आया है । एक ऐसा धर्म जिसका जीवन में तुम्हें पालन करना है। उनकी देश भक्ति इस आधात्मिक चेतना पर आधारित थी।
30 अगस्त 1905 को अपनी पत्नी मृणालिनी को लिखें एक पत्र में श्री अरविंद कहते है कि 'दूसरे लोग अपने देश को एक जड़ वस्तु, कुछ मैदान, जंगल नदी पहाड़ मात्र समझते हैं, वहीं मैं अपने देश को माता मनता हूं'। यह मां ब्रिटिश हुकूमत की बेड़ियों में कैद कराह रही है। इस पतित जाति को उठा सकने की शक्ति मुझ में है। मैं बंदूक या तलवार लेकर लड़ने नहीं जा रहा। ब्रह्म तेज भी है वह ज्ञान के ऊपर प्रतिष्ठित है। यह मेरे अंदर कोई नयी अनुभूति नहीं है। ईश्वर ने यह महान कार्य सम्पन्न करने लिए मुझे पृथ्वी पर भेजा है। चौदह वर्ष की अवस्था में यह बीज उगना शुरू हो गया था और अठारह वर्ष की अवस्था में वह दृढ़ता से जड़ें जमा कर अटल हो गया था'। हालांकि महर्षि के विचारों में आधात्मिक और क्रांतिकारी परिवर्तन भारत आने के बाद ही शरू हुआ।
नौ साल की अवस्था में वे अपने भाइयों के साथ इंग्लैंड चले गए। चौदह साल इंग्लैंड प्रवास के दौरान श्री अरविंद के जीवन में कई परिवर्तन हुए। अंग्रेजी ,लैटिन और ग्रीक समेत यूरोप की कई भाषाओं पर उनका अधिकार था। वे महज 18 वर्ष की अवस्था में ही प्रतिष्ठित आई सी एस की परीक्षा उत्तीर्ण हो गए। पर घुड़सवारी की परीक्षा में शामिल नहीं हुए। नियति को दूसरा ही कुछ मंजूर था। इस दौरान वे इटली और और आयरलैंड के राष्ट्वादी क्रांतिकारी युवकों के संपर्क में आए। कैम्ब्रिज में भारतीय छात्रों के बीच पहले से संचालित संगठन इंडियन मजलिस के पहले सदस्य फिर उसके सचिव बनें।
सचिव की हैसियत के रूप में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कई क्रांतिकारी भाषण दिये।ऐसा लगता है कि इंग्लैंड प्रवास के दौरान ही श्री अरविंद में क्रांतिकारी गोपनीय संगठन बनाने का बीजारोपण हो चुका था। ऐसा ही एक गोपनीय संगठन जिसका नाम लोट्स एंड ड्रैगन था। इस संगठन का एक ही उद्देश्य था, भारत की आजादी। सन 1893 मेंअरविंद की भेंट बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ से लंदन हुई। इसके बाद श्री अरविन्द महाराज बड़ौदा राज की सेवा में आ गए। फिर वहीं कॉलेज में उप प्रधानाचार्य नियुक्त हुए।
बड़ौदा में राजकीय सेवा में रहते हुए अरविंद ने भवानी मंदिर की एक योजना तैयार किया। उनके छोटे भाई उनकी इस योजना में सहायक बनें। इस संगठन का मकसद क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देना और क्रांतिकारी सेना तैयार करना था। इस संगठन के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए कहा गया था कि हमारी मातृभूमि अपने पुत्रों की आश्चर्यजनक जड़ता के बोझ से हाफ रहीं है और आहें भर रहीं हैं।
बंग भंग आंदोलन इस जड़ता को तोड़ने के एक अवसर के रूप में उपस्थित हुआ। महर्षि अरविंद बंग भंग आंदोलन में शामिल होने के लिए बड़ौदा से बंगाल आ गए। विपिन चंद्र के अनुरोध पर बंदे मातरम पत्रिका के संपादन का दायित्व स्वीकार किया। इस पत्रिका में सन 1907 के लिख एक लेख में श्री अरविंद ने बंकिमचंद्र को भारत का एक महान आत्मा और उनके दिये मंत्र बंदे मातरम को भारत के पुनर्जन्म का मंत्र बताया जो भारत का निर्माण कर रहा है। बंदे मातरम पत्रिका पर बाद में देशद्रोह का आरोप लगा।
श्री अरविंद को अलीपुर षड्यंत्र मामले में एक वर्ष कारावास की सजा हुई । पर आरोप सिद्ध नहीं होने पर उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। जेल से रिहाई के बाद श्री अरविंद ने कर्मयोगिन और धर्म पत्रिकाओं काअंग्रेजी और बांग्ला में प्रकाशन शुरू किया। जेल कारावास के दौरान ही उन्हें दिब्य आधात्मिक अनुभूति हुई। इसकी पहली अभिव्यक्ति 30 मई 1909 को उत्तरपाड़ा में दिये सार्वजनिक भाषण में प्रकट हुआ।
अंतरात्मा की आवाज पर वे पांडिचेरी चले गए। यहां से आर्य मासिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ, जिसमें श्री अरविंद लगभग सारी महत्वपूर्ण रचनायें प्रकाशित हुई। इनमें लाइफ डिवाइन, ऐसेज आन गीता, और फाउंडेशन ऑफ इंडियन कल्चर भी शामिल हैं। श्री अरविंद की एक और महत्त्वपूर्ण कविता संग्रह,जिसे महाकाव्य का दर्जा हासिल है, वह सावित्री है। सावित्री के बारे में श्री अरविंद की आध्यत्मिक सहयोगिनी श्री मां कहती है कि वह अविन्द की अंतरदृष्टि की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है।


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