समाज और समझ : हौसलों से हासिल किया मुकाम, दिव्यांग होना कोई अभिशाप नहीं

जो शारीरिक रूप से सक्षम होने के बावजूद हार मानकर बैठ जाते हैं, जिन्हें यह लगता है कि 'हमसे यह नहीं हो पाएगा!'

Update: 2022-05-14 01:41 GMT

दिव्यांग होना अभिशाप नहीं है, पर समाज में ऐसे व्यक्तियों को अक्सर बोझ समझा जाता है, या फिर उन्हें दया की नजर से देखा जाता है। इसके बावजूद कई ऐसे दिव्यांग पुरुष और महिलाएं हैं, जिन्होंने न सिर्फ खुद के लिए एक मुकाम हासिल किया, बल्कि समाज के लिए भी संदेश दिया। विभिन्न राज्यों की तरह बिहार में ऐसी कई मिसालें हैं। मधुबनी के रहने वाले पैरा स्वीमर मोहम्मद शम्स आलम ने अब तक कई सारे रिकॉर्ड स्थापित किए हैं।

उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय चैंपियनशिप में गोल्ड, सिल्वर और कांस्य पदक मिल चुका है। शम्स बताते हैं कि वह बिल्कुल आम लोगों की तरह थे, लेकिन साल 2010 में उन्हें स्पाइनल ट्यूमर हो गया था। वर्ष 2011 में मुंबई स्थित पैराप्लेजिक फाउंडेशन रिहैबिलिटेशन सेंटर में उनकी मुलाकात दिव्यांग राजाराम घाग से हुई, जिन्होंने 1988 में इंग्लिश चैनल पार कर रिकॉर्ड बनाया था। उनके प्रोत्साहन पर उन्होंने स्विमिंग की ओर अपना कदम बढ़ाया।
24-27 मार्च तक उदयपुर में आयोजित 21वीं नेशनल पैरा स्विमिंग चैंपियनशिप 2021-22 में उन्हें दो स्वर्ण और एक रजत पदक मिला है। वर्ष 2019 में उन्हें बिहार खेल रत्न सम्मान से नवाजा जा चुका है। शम्स चुनाव आयोग के आइकॉन भी रह चुके हैं। पटना की रहने वाली दिव्यांग अधिकार मंच बिहार की अध्यक्ष कुमारी वैष्णवी के पिता फौजी थे। पांचवीं कक्षा तक सब कुछ ठीक था, पर वर्ष 1996 में 11 साल की उम्र में वैष्णवी को बुखार आया और पैर कड़ा हो गया।
शुरुआत में दानापुर स्थित आर्मी हॉस्पिटल में इलाज हुआ, पर कोई असर नहीं हुआ, तो पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल भेजा गया। यहां उनका ऑपरेशन हुआ, जिसमें ट्यूमर निकाला गया, लेकिन पैर की सूजन बढ़ने लगी। इससे एक दूसरा ट्यूमर बन गया। 1998-1999 में उन्हें पता चला कि ट्यूमर का चौथा स्टेज है, जो नस से जकड़ कर पेट पर आ गया था। 2007 में पिता ने उन्हें बैसाखी लाकर दी। वैष्णवी कहती हैं कि उसी वक्त मैंने तय किया कि मुझे अपनी अलग पहचान बनानी है।
फिर उन्होंने पटना के अनीसाबाद स्थित वीआरसी सेंटर में एक वर्ष की ट्रेनिंग भी ली। उस वक्त उन्होंने हैंड स्टिचिंग प्रतियोगिता में भाग लिया और जिला स्तर पर कांस्य पदक जीता। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ा और उन्होंने 2010 में राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित प्रतियोगिता में स्वर्ण जीता। फिर वह राष्ट्रीय विकलांग मंच से जुड़ गईं। उन्होंने एक्शन एड एसोसिएशन के सहयोग से विकलांग अधिकार मंच की स्थापना की, जिसका लक्ष्य दिव्यांग महिलाओं को सशक्त बनाने के साथ सरकारी योजनाओं की जानकारियां देना है।
इसके इतर वह अब तक 33 दिव्यांग जोड़ों की शादी करवा चुकी हैं। भागलपुर स्थित रंगरा गांव की रहने वाली ममता भारती ने मिथिला पेंटिंग के जरिये अपनी अलग पहचान बनाई है। वह चार साल की उम्र तक आम बच्चों की तरह ही थीं। वर्ष 1982 के समय वह पोलियोग्रस्त हो गईं और उनके शरीर को लकवा मार गया। इलाज के बाद कमर से ऊपर का हिस्सा तो काम करने लगा, लेकिन इसके नीचे के हिस्से ने काम करना बंद कर दिया।
उन्होंने परिवार के सहयोग से घर से ही मैट्रिक और इंटर किया। कला के प्रति लगाव होने की वजह से वर्ष 2007 में उपेंद्र महारथी शिल्प संस्थान से मिथिला पेंटिंग सीखी। वहां छह महीने सीखने के बाद उन्हें आर्ट ऐंड क्राफ्ट कॉलेज के बारे में पता चला और वहां के प्रोफेसर की मदद से पढ़ाई पूरी की। कॉलेज के दौरान ही उन्हें काम का प्रस्ताव मिलने लगा। ममता बताती हैं कि लोग कहते थे, 'हैंडीकैप है, क्या ही कर पाएगी?' लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी।
इसके बाद उन्होंने पेंटिंग के अपने शौक को पेशे में तब्दील कर दिया। साल 2014 में उन्हें राज्य स्तर पर सम्मानित किया गया। वह बताती हैं कि 2017 में बिहार स्टार्ट-अप योजना के तहत उनका चयन किया गया और अब तक वह अनेक लोगों को प्रशिक्षित कर चुकी हैं। शम्स, कुमारी वैष्णवी और ममता भारती जैसे लोग हमारे समाज के लिए एक मिसाल हैं। उनके लिए भी मिसाल हैं, जो शारीरिक रूप से सक्षम होने के बावजूद हार मानकर बैठ जाते हैं, जिन्हें यह लगता है कि 'हमसे यह नहीं हो पाएगा!' (चरखा फीचर)

सोर्स: अमर उजाला 

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