संत कबीर की समाज संबंधी विचारधारा

सम्पादकीय

Update: 2022-06-14 10:40 GMT
By: divyahimachal 
उसके लिए तो सच्चे मन से एवं कर्त्तव्यनिष्ठा से एकटक लगा करके उस निराकार राम का ही नाम जपना चाहिए, तभी जीवन नैया पार लगेगी…
भारतीय समाज जाति एवं वर्णों के आधार पर विभक्त समाज रहा है। संत कबीर का प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ जब देश में मुस्लिम शासकों का शासन था तथा हिंदू वर्ग में वर्ण व्यवस्था पूर्ण रूप से स्थापित हो गई थी। मुस्लिम वर्ग की कट्टरता भी चरम पर थी। महात्मा कबीर उस समय में समाज को चेताने का प्रयास करते हैं कि सभी एक समान हैं, सभी उस ईश्वर की संतान हैं। सभी रंग-रूप, जाति-नस्ल के आधार पर एक हैं। केवल मात्र अगर कोई अंतर है तो वह पुरुष और स्त्री के मध्य अंतर है जिनकी शारीरिक संरचना कुदरत ने अलग-अलग तरह से की है, किंतु फिर व्यक्ति-व्यक्ति में किस प्रकार का भेदभाव हो सकता है, और क्यों ऐसा भेदभाव किया जाता है? उन्होंने समस्त हिंदुओं और मुसलमानों को अपनी वाणी के माध्यम से समझाने का प्रयास किया कि सभी उस निराकार ईश्वर की संतान हैं तथा सभी एक समान हैं। इसलिए किसी को भी किसी से भेदभाव करने का कोई अधिकार नहीं है : 'जे तु बामण बामणी जाया आन बाट से क्यों नहीं आया। जे तू तुरक तुरकाणी जाया भीतर ख़त़नी क्यों नहीं कराया'। कबीर ऐसे समाज सुधारक हैं जिन्होंने समाज सुधार के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति तथा निराकार ईश्वर प्राप्ति के लिए भी जीवन पर्यंत प्रयास किया तथा सभी को यह समझाने की कोशिश की कि ईश्वर की सत्ता सभी जीवों में एक समान है, वे तो इतना तक कहते हैं कि वह ईश्वर प्रकृति के कोने-कोने, जर्रे-जर्रे में अर्थात हर एक जीव चाहे वह पशु-पक्षी हो या पेड़-पौधे हों, उन सभी में वह ईश्वर विद्यमान है।
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