सामाजिक लोकतंत्र: समाज को चाहिए संविधान की शिक्षा
शिक्षा के माध्यम से ही हम एक सभ्य राष्ट्र के रूप में संतुलित विकास कर सकते हैं।
भारतीय समाज में राजनीतिक विकास की गति और चिंतन में निरंतर विकास और बदलाव हुए हैं, पर सामाजिक सुधारों में उतनी सकारात्मकता नहीं दिखाई पड़ रही। सामाजिक लोकतंत्र के बिना राजनीतिक लोकतंत्र भाईचारे में वृद्धि नहीं कर पा रहा। संविधान कानून के विद्यार्थियों या कोर्ट-कचहरी, खासकर शासन-प्रशासन के क्रिया कलापों तक सीमित है, जबकि समाज में जो कानून लोगों के व्यवहारों को संचालित करता है, वे रीति-रिवाज, प्रथाएं या परंपराएं हैं।
क्या गांवों में सांविधानिक मूल्यों से किसी का वास्ता है? क्या कहीं स्कूलों के पाठ्यक्रम में संविधान का सार पढ़ाया जाता है? सिर्फ राजनीतिशास्त्र या विधिशास्त्र के अध्येताओं के लिए ही नहीं, बल्कि जीवन शैली में सुधार की दृष्टि से हर विषय और हर अनुशासन को सांविधानिक शिक्षा का अनुशीलन करना अपेक्षित है। अशिक्षितों या अल्प शिक्षितों को भी संविधान की शिक्षा दी जानी चाहिए। इसके अभाव में अलोकतांत्रिक, सामंती और असभ्य आचरण देश के कई हिस्सों में दिखाई पड़ रहा है। गणतंत्र दिवस के समय ही राजस्थान के छड़ी गांव की खबर आई, जहां से दलित समाज के एक दूल्हे श्रीराम मेघवाल की घोड़ी पर चढ़कर बारात निकलने पर खुशी का माहौल था, क्योंकि उस गांव में पहली बार ऐसा हुआ। आजादी के इतने वर्षों के बाद एक दलित दूल्हे के घोड़ी पर बैठने पर समाज की खुशी क्या बताती है? मध्य प्रदेश के गनियारी गांव में तो पहली बार दलित दूल्हा घोड़ी पर चढ़ा, तो सवर्ण समाज के लोगों ने बारात पर हमला कर दिया। 30 जनवरी को राजस्थान में ही चुरू के एक गांव में एक दलित को लाठी और रस्सी से इतना पीटा गया कि वह बेहोश हो गया। मानवाधिकार आयोग ने घटना का संज्ञान लिया।
डॉ. आंबेडकर सामाजिक भेद-भाव, जाति-क्रूरता और धार्मिक अनुदारता के भुक्त-भोगी थे। उन्हें ऐसी आशंका थी, इसलिए संविधान की निर्माण-प्रक्रिया में वह समता, बंधुत्व और स्वतंत्रता के मूल्यों की बात कर रहे थे। क्या समाज सांविधानिक मूल्यों के अनुरूप विकसित हो रहा है? क्या हम सामाजिक दृष्टि से आदर्श लोकतंत्र में जी रहे हैं? सुभाष कश्यप कहते हैं, 'हमारे गणतंत्र के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती सांविधानिक निरक्षरता है। संविधान के बारे में लोगों में शिक्षा और चेतना का अभाव है। मैं समझता हूं कि सांविधानिक शिक्षा देश में अनिवार्य होनी चाहिए, ताकि लोग लोकतांत्रिक मूल्यों एवं नागरिक कर्तव्यों के बारे में जान सकें।...अगर संविधान के बारे में पता नहीं है, तो उसका पालन कैसे होगा? इसलिए चाहे कोई किसी भी शाखा की पढ़ाई करे, सबके लिए संविधान की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।' इसमें इतना और जोड़ लेना चाहिए कि हर स्तर की प्रशासनिक सेवा में, स्कूल-कॉलेज की प्रवेश-परीक्षा में, टीचर्स, प्रोफेसर के प्रशिक्षण में सांविधानिक शिक्षा का एक प्रश्नपत्र पास करना अनिवार्य होना चाहिए। ग्राम सचिवों और प्रधानों को संविधान शिक्षा की परीक्षा पास करनी चाहिए। नहीं तो ग्रामीण समाज में सामंती अनुदारता बनी रहेगी।
विगत अक्तूबर में हनुमानगढ़ में दलित की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी। मध्य प्रदेश के ग्वालियर में दलित से प्रेम विवाह कर लेने वाली युवती को उसी के परिजनों ने फांसी पर लटका दिया। प्रशासन से अपेक्षा की जाती है कि वह सांविधानिक कानूनों का पालन करे, पर उत्तर प्रदेश की पुलिस की भूमिका तो हाथरस की दलित युवती की हत्या व बलात्कार के मामले में संदिग्ध रही, जहां परिवार की अनदेखी कर उसका दाह-संस्कार कर दिया गया था। विगत दिसंबर में कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु से खबर आई, 'पेशाब पीने पर मजबूर करने वाला दारोगा निलंबित।' जयपुर के कोटपूतली कस्बे में दलित दूल्हे के घोड़ी चढ़ने पर आपत्ति जताई गई और पुलिस की मौजूदगी में बारात पर पत्थर फेंके गए।
समाज के उच्च-वर्णीय सामंती मूल्य और लोकतांत्रिक सांविधानिक मूल्य रोजमर्रा के व्यावहारिक जीवन में तालमेल कम दिखाते हैं, टकराते अधिक नजर आते हैं। इसी कारण विगत नवंबर में उच्चतम न्यायालय को कहना पड़ा कि 'जाति से प्रेरित हिंसा की घटनाओं से पता चलता है कि आजादी के 75 वर्ष बाद भी जातिवाद खत्म नहीं हुआ।' उत्तराखंड में चंपावत जिले के एक विद्यालय में भोजनमाता के बहिष्कार की कहानी की जड़ में यही जातिवाद था। उस स्कूल में छात्रों के लिए भोजन बनाने वाली सुनीता देवी को निचली जाति का बताकर कथित ऊंची जाति के छात्रों ने खाना खाने से मना किया। नतीजतन शिक्षा अधिकारी ने उस महिला को नौकरी से बाहर कर दिया था। उसकी प्रतिक्रिया में दलित छात्रों ने सामूहिक रूप से कहा कि 'हमें हमारी वही भोजनमाता चाहिए, हम किसी गैर-दलित रसोइए के हाथ का खाना नहीं खाएंगे।' मीडिया में मुद्दा उछला, सरकार के कान खड़े हुए और संविधान के अनुच्छेद 17 की याद आई। अंततः सब जातियों के छात्रों को एक साथ बिठाकर दलित महिला का बनाया भोजन कराया गया। तमाम घटनाएं बताती हैं कि जो अस्पृश्यता संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 17 में समाप्त की, वह समाज को नहीं समझाई गई। स्कूलों के पाठ्यक्रम में समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के बारे में नहीं पढ़ाया गया। संविधान की शिक्षा के माध्यम से ही हम एक सभ्य राष्ट्र के रूप में संतुलित विकास कर सकते हैं।
सोर्स: अमर उजाला