स्मृति शेष लता मंगेशकर: इस शून्य को कभी भरा न जा सकेगा

शास्त्रीय संगीत का मूलभूत आधार लिए हुए लता जी ने भजन और आराधना गीतों को जो वाणी दी है

Update: 2022-02-07 05:39 GMT
खेत-खलिहानों से लेकर महानगरों के घरों-बाजारों तक, छोटे शहरों-कस्बों से लेकर किसी बाग की रखवाली करने वाले व्यक्ति की झोपड़ी तक, रेलों-बसों-ऑटो रिक्शों-टैक्सियों और छोटी-बड़ी कारों से लेकर बड़ी लंबी गाड़ियों तक-कहां नहीं गूंजती रही लता जी की आवाज! आगे भी वह इन सब जगहों में गूंजेगी, सुनी जाएगी और उस आवाज की मालकिन की याद भी आएगी, पर उस आवाज को धारण करने वाली लता मंगेशकर अब हमारे बीच नहीं हैं। इस शून्य को सचमुच कभी भरा न जा सकेगा।
यह एक अपूर्व, अप्रतिम जीवन था, जिसकी गाथाएं पहले भी लिखी गई हैं, आगे भी लिखी जाएंगी, पर उनसे अधिक, उनसे अलग 'लता गाथाएं' प्रवाहित होती रहेंगी जन-जीवन में, स्मृतियां बनकर, किंवदंतियां बनकर। वे इतनी अधिक हैं कि कभी खत्म न होंगी। गीतों में पिरोई उनकी आवाज ठिठका-ठहरा लेती थी। मुझे वह दोपहर कभी नहीं भूली, आज से कोई तीस वर्ष पहले की, जब इंदौर होते हुए मांडू गया था। और जब मांडू के तब के छोटे से बाजार में एक दुकान में खड़ा कुछ खरीद रहा था, तभी कहीं से बज उठा था लता जी का गाया वह गीत, जिसकी शुरुआती पंक्तियां हैं- ये शाम की तनहाइयां ऐसे में तेरा गम, पत्ते कहीं खड़के हवा आई तो चौंके हम।
मंत्रमुग्ध-सा खड़ा हुआ उसे सुनता रहा, क्या लेने आया हूं बाजार में, मानो वह भी भूल गया। एक-एक शब्द जैसे मानक तुला पर तौला जा रहा हो। उसकी उच्चारण शुद्धता पर, उसके अर्थ और मर्म पर विचार करते हुए गाया जा रहा हो गीत-ऐसा ही तो लगा था। ऐसे संस्मरण कई लोगों के पास होंगे उनके गायन से संबंधित। दुनिया में उन जैसा उदाहरण मिलना तो असंभव ही है, जिन्होंने कई बोलियों-भाषाओं में गाया हो और हर भाषा में स्वर की मधुरिमा, गरिमा का उतना ही ध्यान रखा हो, जितना कोई सतर्क व्यक्ति अपनी मातृभाषा के शब्दों को बोलते-गाते-गुनगुनाते वक्त उनकी मधुरिमा का ध्यान रखता है। उनकी मातृभाषा मराठी थी। गाया उन्होंने हिंदी में सबसे अधिक, पर भारत के जिन और प्रदेशों की भाषा में उन्होंने गाया, वह इसी सावधानी और प्रेम के साथ कि उस भाषा के लोगों को यह न लगे कि जो गा रही है, वह उनके बीच की नहीं है।
हां, वह हम सबके बीच की थीं। हर व्यक्ति, हर परिवार के बीच। आज यह भी याद कर सकते हैं कि उस आवाज का जादू, हर नए उपकरण के साथ चलने की तमन्ना रखता था। जिन लोगों को ट्रांजिस्टर युग की याद है, वे तो यह भी याद करेंगे कि वह साइकिल की टोकरी में रखे ट्रांजिस्टर से भी हवा में तैर आती थी। वह आवाज एक जबर्दस्त यात्री रही है। सचमुच उसने देश के हर चप्पे पर अपनी छाप छोड़ी है। उसने सुबह-शाम बहुत सैर की है। वह आज भी किसके साथ कब-कब, कहां-कहां टहलती है, कौन जाने। कितने ही तो उन्हें यूट्यूब से मोबाइल पर सुनते ही रहते हैं। जिस लंबे दौर तक उन्होंने गाया, वह अपने आप में अभूतपूर्व है-गाना उन्होंने किशोरी के कंठ से शुरू किया था और गाया बुजुर्गियत के दौर तक। पर वह कंठ हमेशा ताजा, नया, युवा ही बना रहा। यही उनकी गायकी का चमत्कार है।
वह न जाने कितनी पीढ़ियों के साथ चलती रही हैं अपनापे से, प्रेम से, नई पीढ़ियों से लाड़-दुलार करती हुईं। शास्त्रीय संगीत का मूलभूत आधार लिए हुए लता जी ने भजन और आराधना गीतों को जो वाणी दी है, ऋतुओं-पर्वों की छवियों को जिस तरह मूर्तिमान किया है, वह अद्भुत नहीं तो और क्या है! उनके गायन की रेंज बड़ी है। इस रेंज में उनकी आवाज कभी मंद लहरों सी बहती है, कभी वर्षा फुहार बन जाती है, कभी वासंती हो उठती है, कभी धमाचौकड़ी करती है, कभी चुहल करती, तो कभी रूठती-मनाती है। कभी झूला झुलती पेंगे भरती है। कभी वह सचमुच सब कुछ को आलोकित करती हुई लगती है।
हिंदी के विशिष्ट कवि नरेंद्र शर्मा का लिखा और लता जी का गाया हुआ गीत ज्योति कलश छलके मेरे बहुत प्रिय गीतों में से है। वह बहुतों को प्रिय है। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पर बनी फिल्म तीसरी कसम के लिए लता जी ने ही तो गाया था-रात ढलने लगी, चांद छुपने चला, आ आ आ भी जा...। लता गाथा कभी न खत्म होने वाली एक प्रेरक जीवन गाथा है।
अमर उजाला 
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