By: divyahimachal
खबरें मौसम की उत्पात मचा रही हैं, हमारे करीब आपदाग्रस्त हिमाचल की तस्वीर बना रही हैं। मकान, सडक़ और राज्य का विकास कांप रहा है, पहाड़ों पर जल्लाद मौसम का यह रुख बदनाम कर रहा है। हम नहीं चाहते इस मौसम में कोई पर्यटक यहां आए। यह भी नहीं चाहते कि हमारी मंजिलों पर कोई खलल आए, लेकिन फिर एक साथ कई परीक्षाओं में बारिश ने हमें चुन लिया और बादलों ने कहर से हमें डराने का सबब बुन लिया। हिमाचल में यात्राएं ही कठिन नहीं, बल्कि जीने की हर राह पर आसमानी मंजर का भयावह परिदृश्य उभर आता है हर बार। पिछले एक हफ्ते से हिमाचल का दर्द बढ़ता जा रहा है। यह पीड़ा सिर्फ हिमाचल की है जिसे हम वर्षों से झेलते आ रहे हैं अकेले। हो सकता है कुछ गलतियां हो गई हों, लेकिन इतने भी गलत नहीं कि पर्वतीय राज्य को हमेशा मौसम की बेरुखी में अकेला छोड़ दिया जाए। बहरहाल पिछले पंद्रह दिनों ने करीब पांच सौ करोड़ का नुकसान इस राज्य की प्रगति, प्रवृत्ति और प्रासंगिकता को सुना दिया। कोटगढ़ के मधावनी गांव के उस परिवार का क्या कसूर, जिसके अस्तित्व को ही छीन लिया गया या श्रीखंड यात्रा में आस्था का क्या दोष जहां एक यात्री की ईहलीला गुम हो गई। शिमला के मौसम की वीभत्स तस्वीर में मधावनी के ढहते मकान में दबे पति-पत्नी और बेटे की मौत सता रही है, तो दरकते पहाड़ों के नीचे जोखिम जिस तरह बढ़ रहा है, उसे देखते हुए बरसात का यह कहर मापा नहीं जा सकता। दोष किसे दें, मानवीय प्रगति या पहाड़ के विकास में आदतन सुराख कहां खोजें।
ऊना में डूबने का मंजर, पंडोह के बाजार से कम नहीं और न ही चंबा के रास्तों में दूरी कम हो रही। खड्डें या नदियां जिस तरह के उफान पर हैं, उसे देखते हुए सिर्फ आपदा प्रबंधन की घंटियां ही बजाई जा सकती हैं या अब बाढ़ जैसी स्थिति के इतिहास से बहुत कुछ सीखना होगा। प्रदेश की प्राथमिकताओं में कहीं हम मौसम के खूंखार पहलुओं को नजरअंदाज तो नहीं कर रहे। कहीं प्रकृति के नियमों के विरुद्ध विकास तो नहीं कर रहे। हम इस आफत में यूं ही नहीं फंसे, राष्ट्रीय मानकों के फलक पर पर्वतीय आवरण से यह तकरार मानी जानी चाहिए। दरअसल जलनिकासी की प्राकृतिक भूमिका से जहां-जहां छेड़छाड़ हुई या विकास की हिदायतों को नजरअंदाज किया गया, वहां-वहां मौसम के खंजर उभर आए हैं।
ऐसे में राष्ट्रीय चेतना में पहाड़ को केवल पर्यावरण का मसौदा मानकर हिफाजत नहीं होगी, बल्कि विकास के विकल्पों में माकूल अनुदान चाहिए। हिमाचल में या हिमाचल से निकलते जल की निकासी को उच्च दर्जे का प्रबंधन और विकास के मानदंडों में नया सृजन चाहिए ताकि मानव बस्तियों को राष्ट्र का इंसाफ मिले। तमाम नदियों, नालों, खड्डों और कूहलों को इनके प्राकृतिक प्रारूप में संरक्षण देने के लिए चैनलाइजेशन की राष्ट्रीय परियोजना तैयार करनी होगी जबकि पर्वतीय विकास की जरूरतों के समर्थन में राष्ट्रीय अवधारणा तय होनी चाहिए। शहरी एवं ग्रामीण विकास के पर्वतीय मानदंड केंद्र सरकार की नीतियों से न मुकम्मल आर्थिक मदद हासिल कर पा रहे और न ही ऐसा मॉडल तय हो रहा है जहां मौसम की बेरुखी के बीच विकास और जनजीवन का संतुलन सुरक्षित रूप से बना रहे। बहरहाल मौसम के साथ पैदा होते दृष्टांत को समझने की जरूरत आम नागरिक को भी है। जल निकासी के पारंपरिक तरीकों पर बढ़ते अतिक्रमण तथा पहाड़ों पर निर्माण की गतिविधियों को जिस तरह आगे बढ़ा रहे हैं, उससे भी अकसर हमें आपदा के समय पछताना पड़ रहा है।