महापंचायत के संकेत

यह किसान संगठनों को भी सोचना होगा। हठधर्मिता किसी समस्या का हल नहीं होती।

Update: 2021-09-07 01:45 GMT

उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में रविवार को महापंचायत कर किसान नेताओं ने एक बार फिर अपनी ताकत दिखा दी है। पिछले कुछ समय से कहा जा रहा था कि किसान आंदोलन अब खत्म-सा हो चला है और केवल कुछ किसान नेता अपनी राजनीति चमकाने के लिए रास्ते रोक कर बैठे हैं। पर मुजफ्फरनगर में जुटे लाखों किसानों ने इस तरह की बातों को गलत साबित कर दिया। महापंचायत में सिर्फ उत्तर प्रदेश और हरियाणा ही नहीं, बल्कि पंजाब, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, कर्नाटक सहित देश के ज्यादातर राज्यों से किसान पहुंचे। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि विवादास्पद नए कृषि कानूनों की वापसी की मांग को लेकर किसान एकजुट हैं। साथ ही, इस मुद्दे पर केंद्र सरकार के रुख को लेकर किसानों के भीतर गहरी नाराजगी कायम है। वरना महापंचायत में इतनी भीड़ जुटा पाना किसान संगठनों के लिए भी आसान नहीं होता। ऐसा भी नहीं कि किसी महापंचायत में पहली बार इतने किसान शामिल हुए हों। किसान आंदोलन शुरू होने के बाद दूसरे राज्यों में जब-जब महापंचायतें हुई हैं, वे भी किसानों की ताकत का अहसास करवाती रही हैं। किसानों ने 27 सितंबर को भारत बंद का एलान किया है। उनके इस कदम को अब सरकार पर सिर्फ दबाव बनाने के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। मुजफ्फरनगर की महापंचायत में जो रणनीति बनी है, उसके दूरगामी संदेश हैं।

इस बार की महापंचायत से यह संकेत भी मिला है कि किसान आंदोलन अब सिर्फ कृषि कानूनों की वापसी की मांग तक सीमित नहीं रह गया है। किसान नेताओं ने अब केंद्र और उत्तर प्रदेश की सरकार को खुली चुनौती दी है। अगले साल उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं। महापंचायत में भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने केंद्र की आर्थिक नीतियों पर भी जम कर हमला बोला। इससे पहले बंगाल सहित दूसरे राज्य विधानसभा चुनावों में भी किसान नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ अभियान छेड़ कर अपना इरादा साफ कर दिया था। गौरतलब है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश किसान बहुल है। ऐसे में राज्य के सत्तारूढ़ दल के लिए विधानसभा चुनाव भारी पड़ सकता है। हालांकि आंदोलन कर रहे किसान संगठनों ने अभी तक तो राजनीतिक दलों और नेताओं को अपने मंच से दूर ही रखा है। पर विपक्षी दल किसान आंदोलन के समर्थन में ही हैं। रविवार की महापंचायत के बाद भाजपा नेता वरुण गांधी ने भी किसानों के मुद्दे पर सहानुभूति दिखाई और कहा कि सरकार किसानों के दर्द को समझे। इससे पहले मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक भी खुल कर किसानों के समर्थन में बोलते रहे हैं।
हैरानी की बात यह है कि कृषि कानूनों को किसान हितैषी बताने के लिए सरकार विज्ञापन और प्रचार जैसे अभियानों पर भारी पैसा खर्च करती रही है। पर सरकार आज तक किसानों को यह नहीं समझा सकी कि ये कानून किस तरह से उनके लिए लाभकारी हैं। इसे सरकार की नाकामी ही कहा जाएगा। यह कोई बहुत जटिल गणित नहीं है। बेहतर हो कि सरकार खेती-किसानी की समझ रखने वाले सभी दलों के सांसदों, मंत्रियों और विषय विशेषज्ञों की एक समिति बनाए जो किसानों से बात कर उनकी शंकाओं का समाधान कर सके। इस प्रयास में कोई अड़चन नहीं आनी चाहिए। कहने को सरकार और किसान नेताओं के बीच ग्यारह दौर की वार्ता हो चुकी है। पर ऐसी वार्ताओं का क्या औचित्य जिनसे समाधान के रास्ते ही न निकलते हों। यह किसान संगठनों को भी सोचना होगा। हठधर्मिता किसी समस्या का हल नहीं होती।


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