कुछ अच्छे संवाद बचाइए और संभालकर रखिए, हो सकता है उनकी महक से घर में शांति उतर आए
पहले के दौर में हमारे परिवारों में कुछ संवाद ऐसे होते थे कि
पं. विजयशंकर मेहता का कॉलम:
पहले के दौर में हमारे परिवारों में कुछ संवाद ऐसे होते थे कि जिनमें कही और सुनी गई बातें पूरी फिलॉसफी के साथ कही जाती थीं। अब ऐसी बातें बहुत कम होती हैं, और जो होती हैं वे या तो समय गुजारने के लिए या बहस के रूप में। हमारे बड़े-बूढ़े कुछ तो ऐसा बोल जाते थे जिनके सामने अच्छे-अच्छे आदर्श वाक्य भी पानी भरते लगते हैं।
जैसे पहले कहा जाता था जब घर से निकलें तो ऐसा मत बोलो कि हम जा रहे हैं। इसकी जगह यूं कहो कि काम निपटाकर आते हैं। ऐसे ही यदि आटा न हो तो ऐसा नहीं कहें कि आटा खत्म हो गया। यहां यूं कहें कि आटा लाना है। 'हम जाते हैं', 'आटा खत्म हो गया' इनमें अशुभ देखा जाता है।
अब तो लगभग हर बात एक तनाव से गुजरती है, बहस में बदल जाती है। भौतिक चकाचौंध की इस दौड़ में बड़े-बूढ़ों के कुछ संवाद जो प्यारे होंगे, हमारे सहारे होंगे वो बिना पुकारे ही गुजर जाएंगे और हम न सुन पाएंगे, न कुछ बोल पाएंगे। इसलिए कुछ अच्छे संवाद बचाइए, संभालकर रखिए। हो सकता है उन शब्दों की महक से घर में शांति उतर आए।