Russia Ukraine War : अमेरिका के डॉलर के मुकाबले रूबल ना सही तो चीनी यूआन को खड़ा करेंगे व्लादिमीर पुतिन, प्लान-B कितना होगा कामयाब?

एक गैर अर्थशास्त्री से अगर डॉलर (Dollar) का अर्थशास्त्र पूछा जाए, तो मेरी समझ में उसे इस वैश्विक खेल में एक मदारी

Update: 2022-04-06 07:16 GMT
बिपुल पांडे।
एक गैर अर्थशास्त्री से अगर डॉलर (Dollar) का अर्थशास्त्र पूछा जाए, तो मेरी समझ में उसे इस वैश्विक खेल में एक मदारी, एक मोटी सी रस्सी और ढेर सारे भालू नजर आएंगे. बंदर कहना भले ही उपयुक्त हो, लेकिन इस अपमानजनक शब्द से बचने के लिए भालू कहना बेहतर रहेगा. ये भालू दुनिया के तमाम देश हैं, जिनकी अर्थव्यवस्था की डोर डॉलर नाम की रस्सी से बंधी है. जिसे अमेरिका (America) नाम के मदारी ने कसकर पकड़ रखा है और पूरी दुनिया को नचा रहा है. यूक्रेन युद्ध (Ukraine War) के बाद से डॉलर को तोड़ने के लिए रूस की छटपटाहट तेज हो गई है और उसने डॉलर के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है. लेकिन रूस के लिए अकेले दम पर लड़ना मुश्किल साबित हो रहा है, इसलिए वो चीन को भी साथ बुला रहा है.
यहां तक कि इस लड़ाई में साथ देने के बदले चीन को रूस अपना बड़ा भाई भी बनाने को तैयार है, डॉलर की जगह अगर रूबल को ना मिल सके तो वो यूआन को भी गले लगाने को तैयार है. ये आज की सबसे बड़ी लड़ाई है. डॉलर आज की ग्लोबल करेंसी भले ही हो, लेकिन अमेरिका इसका इस्तेमाल सैंक्शन की फांसी के तौर पर करता है. अब समझना ये है कि अमेरिका ने फांसी का ये फंदा कैसे तैयार किया है और क्या डॉलर से बंधी ये दुनिया, इस फंदे को तोड़ पाएगी?
रूस-यूक्रेन युद्ध से भी भयानक और विनाशकारी है डॉलर युद्ध?
रूस का पड़ोसी देश यूक्रेन अमेरिका की अगुवाई वाले NATO संगठन में शामिल होना चाहता था. रूस ये नहीं चाहता था, क्योंकि अगर यूक्रेन नाटो देश बनता तो 30 नाटो देशों की सेना रूस के सबसे निकट पड़ोसी की धरती पर उतर सकती थीं. सीक्रेट बेस बना सकती थीं, घातक हथियार तैनात कर सकती थीं. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को लगता है कि इससे उनके पड़ोस में एक ऐसा नासूर पैदा होता, जिससे लड़ने में उनकी सारी ऊर्जा खत्म हो जाती. इसीलिए यूक्रेन ने नाटो मेंबर बनने के लिए जैसे ही कवायद तेज की, रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण कर दिया.
24 फरवरी को रूस ने यूक्रेन पर पहले एयरस्ट्राइक की और उसके बाद ग्राउंड ट्रूप्स उतार दिए. इसके बाद नाटो देशों की प्रतिक्रिया उम्मीद से कतई उलट नहीं थी. अमेरिका समेत नाटो देशों ने रूस की बारूदी लड़ाई का जवाब सैंक्शन से दिया. रूस के खिलाफ 'आर्थिक युद्ध' शुरू किया, जो क्रीमिया के अधिग्रहण के बाद से ही रूस को खोखला करता चला आ रहा है. करीब आठ वर्षों से अमेरिकी सैंक्शन झेल रहे रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने इस आर्थिक युद्ध में पहली अप्रैल से अपने पहले वित्तीय हथियार का इस्तेमाल किया है. पुतिन ने एक डिक्री साइन की है, जिसमें ये प्रावधान किया गया है कि रूस अब 'अमित्र' देशों से कारोबार रूसी करेंसी यानी रूबल में ही करेगा.
यानी यूरोपीय देशों को अमेरिकी डॉलर या यूरो के बजाय रूबल में ही प्राकृतिक गैस के लिए भुगतान करना होगा. इससे जर्मनी समेत कई यूरोपीय देशों की सांसें हलक में अटक गई हैं, जबकि पुतिन को शुरुआती दौर में ही फायदा नजर आने लगा है. रूस ने अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए एक गोल्ड स्कीम भी लांच की है, जिसका नतीजा ये हुआ है कि रूबल की कीमत यूक्रेन पर आक्रमण करने के पहले के स्तर पर पहुंच गई है. रायटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक रूस पर तमाम सैंक्शंस का रूबल पर कोई असर नहीं पड़ा है. लेकिन रूस से डॉलर से लड़ाई की जो शुरुआत हुई है, उसका असर अमेरिका पर जरूर पड़ सकता है.
रूस पिछले कई सालों से अमेरिका के आर्थिक युद्ध का जवाब तैयार कर रहा है
पुतिन का अमेरिका पर ये जवाबी हमला भले ही नया हो, लेकिन पुतिन इसकी तैयारी बहुत पहले से कर रहे हैं. माना जाता है कि ये तैयारी साल 2014 में शुरू हुई होगी, जब यूक्रेन में अमेरिकी समर्थक सरकार बनी और क्रीमिया पर रूस ने कब्जा कर लिया था. तब रूस को पश्चिमी देशों की करेंसी की असल ताकत का पहली बार पता चला था. अमेरिका ने रूस पर तमाम सैंक्शंस लगाने शुरू किए, उसकी अर्थव्यवस्था को मारना और खोखला करना शुरू किया. तभी से रूस ने अमेरिकी प्रतिबंधों की काट ढूंढनी शुरू कर दी.
एक अनुमान के अनुसार, रूस ने डॉलर का विकल्प तलाशा और 2014 के मुकाबले रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन डॉलर में निर्यात का हिस्सा अब तक लगभग आधा कर चुके हैं. इसी दौरान रूस के केंद्रीय बैंक ने अपने खजाने से डॉलर को लगातार कम करना शुरू कर दिया था और रूस के पास जो डॉलर थे, उसे उसने चीन की करेंसी युआन और यूरोपियन यूनियन की करेंसी यूरो से बदलना शुरू कर दिया था.
2014 से 2022 के बीच में रूस ने अपने खजाने में मौजूद 50 प्रतिशत से ज्यादा डॉलर को युआन और यूरो में बदल दिया. साल 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, रूस के पास दुनिया में मौजूद चीनी करेंसी का एक चौथाई हिस्सा आ चुका है. साफ है, मदारी के इस खेल में रूस ने चीन को अपना बड़ा भाई बना लिया है और बदले ग्लोबल ऑर्डर में चीन को मुंह मांगी मुराद मिल गई है.
क्या जिनपिंग बनेंगे 'मदारी', पुतिन का प्लान-B युआन है?
जानकार मानते हैं कि पुतिन जो कदम उठा रहे हैं, उससे रूबल को मजबूती तो मिल सकती है, लेकिन ग्लोबल करेंसी की मान्यता नहीं. यही वजह है कि पुतिन अपनी करेंसी की जगह चीन की करेंसी युआन को आगे बढ़ाना चाहते हैं. क्योंकि चीन का ग्लोबल मार्केट बड़ा है. विडंबना ये है कि दो भालुओं की लड़ाई में, तीसरे भालू की बन आई है. चीन पिछले कई सालों से इसी मौके की तलाश में था कि कब चीन की करेंसी युआन को डॉलर को रिप्लेस करने का मौका मिले. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को युआन का भविष्य दिख रहा है, लिहाजा वो रूस का पूरी तरह से समर्थन कर रहे हैं.
दरअसल, रूस और चीन दोनों डॉलर से पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसे डी-डॉलराइजेशन कहा जाता है. दोनों देशों ने 2019 में भी इस दिशा में एक बड़ा कदम उठाया था और अपने बीच के सारे व्यापार अपनी करेंसी में करने पर सहमत हो गए थे. क्रेमलिन की तरह बीजिंग की भी कमजोर नस डॉलर में दबी हुई है. चूकि चीन के निशाने पर भी ताइवान है, लिहाजा बीजिंग भी उस लड़ाई की तैयारी पिछले कई सालों से कर रहा है. लेकिन ये एक ऐसा लक्ष्य है, जो बिना भारी राजनीतिक उथल-पुथल के हासिल नहीं किया जा सकता है और ये एक ऐसा उथल-पुथल है, जिसके लिए चीन भी अभी तैयार नहीं है.
क्या अब मल्टीपोलर करेंसी युग की शुरूआत होगी?
पुतिन भी जानते हैं कि रातोंरात डॉलर को रिप्लेस करना संभव नहीं है, लेकिन एक सच ये भी है कि मल्टीपोलर करेंसी के युग में दुनिया कदम रख चुकी है, जिसमें दो करेंसी यूरो और युआन की मुख्य भूमिका है. इनके साथ साथ डिजिटल करेंसी और सोना से भी कारोबार होने लगा है. डॉलर से मोहभंग होने वजह मदारी की वो रस्सी ही है, जिसे अमेरिका कुछ ज्यादा ही इस्तेमाल करने लगा है. एक्सपर्ट्स पहले से कहते रहे हैं कि अगर रूस पर प्रतिबंधों को सीमा से अधिक बढ़ा दिया गया तो ये खुद वाशिंगटन के लिए खतरनाक साबित होगा. यूरोप में यूरो का प्रभाव बढ़ेगा और यूरोप इसका स्वागत कर सकता है. हालांकि एक्सपर्ट्स मानते हैं कि रूबल में ऐसी क्षमता भले ना हो, लेकिन युआन में इतनी क्षमता है कि वो डॉलर को चुनौती दे सके.
डॉलर के वैश्विक मुद्रा बनने की कहानी क्या है?
अमेरिकी डॉलर की पहचान एक ग्लोबल करेंसी की बन गई है. दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों में जो विदेशी मुद्रा भंडार होता है उसमें 64 परसेंट अमेरिकी डॉलर होते हैं. इंटरनेशनल स्टैंडर्ड ऑर्गेनाइजेशन की लिस्ट के अनुसार, दुनिया भर में कुल 185 करेंसी चलन में हैं, जिनमें से अधिकतर करेंसी का इस्तेमाल देश के अंदर ही होता है. दुनिया की सबसे ताकतवर करेंसी डॉलर है. जिसके कुछ दिलचस्प डाटा हैं. पहला ये कि अमेरिका के कुल डॉलर के 65 परसेंट डॉलर का इस्तेमाल अमेरिका के बाहर होता है.
दूसरा ये कि दुनिया भर के व्यापार का 85 परसेंट व्यापार डॉलर में होता है, चाहे गैर डॉलर देश ही व्यापार क्यों ना कर रहे हों. तीसरा ये कि दुनिया भर के 39 परसेंट कर्ज भी डॉलर में ही दिए जाते हैं. दुनिया की दूसरी ताकतवर करेंसी यूरो है, जो दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों के विदेशी मुद्रा भंडार में 19.9 फ़ीसदी है. ये आंकड़ा ये बताने के लिए काफी है कि डॉलर कितना मजबूत है और डॉलर की बदौलत अमेरिकी अर्थव्यवस्था कितनी मजबूत है.
दरअसल, 1944 में ब्रेटनवुड्स समझौते के बाद डॉलर की वर्तमान मजबूती की शुरुआत हुई थी. उससे पहले ज्यादातर देश केवल सोने को बेहतर मानक मानते थे. न्यू हैम्पशर के ब्रेटन वुड्स में दुनिया के विकसित देश मिले और उन्होंने अमेरिकी डॉलर के मुकाबले सभी मुद्राओं की विनिमय दर को तय किया. उस समय अमेरिका के पास दुनिया का सबसे अधिक सोने का भंडार था. 1970 की शुरुआत में कई देशों ने डॉलर के बदले सोने की मांग शुरू की, क्योंकि उन्हें मुद्रा स्फीति से लड़ने की ज़रूरत थी. उस समय अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने फ़ोर्ट नॉक्स को अपने सभी भंडारों को समाप्त करने की अनुमति देने के बजाय डॉलर को सोने से अलग कर दिया. तब तक डॉलर ग्लोबल करेंसी बन चुकी थी.
क्या डॉलर के रथ को रूस रोक पाएगा?
मार्च 2009 में चीन और रूस ने एक नई वैश्विक मुद्रा की मांग की थी. कॉन्सेप्ट ये था कि दुनिया के लिए एक रिजर्व मुद्रा बनाई जाए 'जो किसी इकलौते देश से अलग हो और लंबे समय तक स्थिर रहने में सक्षम हो.' लेकिन रूस और चीन अपनी मुद्रा को डॉलर से रिप्लेस करना चाहते हैं और इन देशों की ये इच्छा किसी से छिपी नहीं है. संकट ये है कि कई एक्सपर्ट्स युआन और रूबल में पारदर्शिता की कमी पाते हैं. जिस वजह से कई देश इसे खारिज कर सकते हैं. लेकिन दुनिया के कई देशों का डॉलर से चल रहा युद्ध तार्किक लगता है और इसे तार्किक अंत की तरफ ले जाने की जरूरत है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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