आरपीएन का जाना मर्ज नहीं नासूर है, कांग्रेस को इसका इलाज ढूंढना पड़ेगा
आरपीएन सिंह आखिरकार बीजेपी में शामिल हो गए
आरपीएन सिंह (RPN Singh) आखिरकार बीजेपी में शामिल हो गए. हालांकि इसकी संभावना कई महीनों से व्यक्त की जा रही थी. कहा जा रहा था कि इस विधानसभा चुनाव के बाद या 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले आरपीएन कोई निर्णय लें. शायद आरपीएन यूपी में बीजेपी के विधानसभा के प्रदर्शन तक इंतजार करना चाहते थे. मगर हाल के कुछ हफ्तों में जिस तरह से बीजेपी के पिछड़े वर्ग के नेताओं का समाजवादी पार्टी में जाना हुआ, बीजेपी भी कुछ करना चाह रही थी ताकि लोगों की सोच में वो पिछड़ते ना दिखे. ऐसे में आरपीएन को बीजेपी में शामिल कराया गया. अब सवाल उठता है कि बीजेपी को इससे क्या मिला. दरअसल स्वामी प्रसाद मौर्य के बीजेपी छोड़ने और साथ में अन्य नेताओं के बीजेपी छोड़ने से जो धक्का लगा था, उससे पार्टी उबरना चाहती थी. सवाल पिछड़ा वोट का है. आरपीएन सिंह भी उसी से ताल्लुक रखते हैं, जहां से स्वामी प्रसाद मौर्य. दोनों एक दूसरे के खिलाफ लड़ते रहे हैं.
पिछली बार जब आरपीएन सांसद बने तो उन्होंने स्वामी प्रसाद को ही हराया था. मतलब साफ है, बीजेपी ने मौर्य के जाने के बाद आरपीएन को लाने की रणनीति बनाई गई. पूर्वांचल में बीजेपी कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है, क्योंकि पशिचमी उत्तर प्रदेश में जो नुकसान का डर बीजेपी को है, उसकी भरपाई आखिर कहीं से तो करनी पड़ेगी. दूसरा सवाल यह है कि आरपीएन सिंह को क्या मिला. एक उदाहरण है हमारे पास. कांग्रेस छोड़ने वाले संजय सिंह और भुवनेश्वर कलिता और समाजवादी पार्टी छोड़ कर आए नीरज शेखर और सुरेन्द्र नागर को बीजेपी राज्यसभा में लेकर आई, तो आरपीएन भी राज्यसभा में आ सकते हैं. फिर कांग्रेस में रहते हुए वो झारखंड के महासचिव थे, यानी ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह आरपीएन यदि झारखंड में बीजेपी की सरकार बनवा देते हैं तो केंद्र में मंत्री भी बन सकते हैं. यानी सब कुछ संभव है.
मगर सबसे बड़ा सवाल है कि हाल के सालों में ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह, सुष्मिता देव, अशोक तंवर और प्रियंका चतुर्वेदी जैसे लोग कांग्रेस छोड़ कर क्यों चले गए. निश्चित रूप से यह कांग्रेस की लीडरशिप पर एक टिप्पणी है कि तथाकथित युवा चेहरे जो राहुल और प्रियंका के नजदीक माने जाते रहे वो क्यों उन्हें छोड़ रहे हैं. क्या कांग्रेस में इनको कुछ नहीं मिला? नहीं, ये कहना गलत होगा. कांग्रेस में वो 42 साल की उम्र में विधायक बन गए थे और 2009 में केन्द्र में मंत्री बनाए गए. आरपीएन सिंह के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, सचिन पायलट और मिलिंद देवड़ा भी मंत्री बने. इन सब में एक समानता है. इन सब के पिता कांग्रेस के बड़े नेता रह चुके थे. यानी ये विरासत की राजनीति की ही उपज थे. आरपीएन सिंह के पिता सीपीएन सिंह इंदिरा गांधी की कैबिनेट में मंत्री थे.
फिर सवाल वही उठता है कि सचिन और मिलिंद अभी भी कांग्रेस में हैं, भले ही रूठे हुए ही सही. मगर बाकी लोग क्यों छोड़ गए. इसका जवाब कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व को ढूंढना पड़ेगा. आप यह कह सकते हैं कि इन्हें लगता होगा कि कांग्रेस का आने वाले दिनों में कुछ खास नहीं होने वाला है और उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस के पुनर्जीवित होने की संभावना कुछ खास नहीं दिख रही है. वहां पर इन लोगों को अपने भविष्य की चिंता करना लाजिमी है. हाल के दिनों में कांग्रेस के अंदर जी-23 का उदय होना और कांग्रेस नेतृत्व को चुनौती देना जैसी घटनाओं से इन कथित युवा नेताओं का और भी मोह भंग हुआ है.
दूसरी और कह सकते हैं कि नेता बने हैं तो सत्ता से दूर रहने के लिए थोड़े ही बने हैं, सत्ता की मलाई पर इनका भी हक है. तो फिर वहां क्यों ना जाएं जहां मलाई दिख रही है. नेता हैं कोई साधु थोड़े ही हैं. मगर इस तर्क से कांग्रेस नेतृत्व की जिम्मेदारी कम नहीं हो जाती है. उन्हें जल्द ही कांग्रेस को लोकतांत्रिक ढंग से चलाने के लिए कुछ करना पड़ेगा, जहां पुराने नेताओं के साथ युवाओं क भी भरोसा हो कि हमारा भी आगे का भविष्य यहां सुरक्षित है. वरना कांग्रेस के लिए अच्छे दिन नहीं आने वाले.
अब सबको इंतजार होगा कि इन पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में कांग्रेस कैसा प्रदर्शन करती है. यदि इन राज्यों में कांग्रेस की हालत थोड़ी सुधरी तो ठीक है वरना कई और नेताओं के पार्टी छोड़ने की खबरों के लिए तैयार रहिए और फिर गांधी परिवार पर दवाब बढ़ेगा और जी-23 फिर कोई नया फार्मूला लेकर आएगा.
मनोरंजन भारती NDTV इंडिया में मैनेजिंग एडिटर हैं...
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